।। अनुज कुमार सिन्हा ।।
हेमंत सोरेन को 18 जुलाई को विधानसभा में बहुमत साबित करना है. ऐसे मौके पर विधानसभा अध्यक्ष की निर्णायक भूमिका होती है. सीपी सिंह अभी तक अध्यक्ष हैं. उन्होंने अभी तक इस्तीफा नहीं दिया है. इस्तीफा देंगे या नहीं, यह भी साफ नहीं किया है. सत्ता पक्ष असमंजस में है. वह सीपी सिंह को समझ नहीं पा रहा है. रणनीति भी नहीं बना पा रहा है. सारी निगाहें अध्यक्ष सीपी सिंह की ओर हैं.
अध्यक्ष की अपनी रणनीति है. स्पष्ट और सीधी बात करनेवाले सीपी सिंह कोई संवैध़ानिक संकट पैदा कर बदनामी मोल लेनेवाले राजनीतिज्ञ नहीं हैं. इस बात की संभावना अधिक दिखती है कि वोटिंग के पहले वे पद त्याग कर दें, क्योंकि ऐसा नहीं करने पर नैतिकता का सवाल उठ सकता है. अगर वे चाह लें कि इस्तीफा नहीं देंगे, तो सत्ता पक्ष उन्हें बाध्य भी नहीं कर सकता.
अध्यक्ष को तत्काल हटाने का भी प्रावधान नहीं है. इसके लिए उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाना होगा. तो फिर सीपी सिंह कर क्या रहे हैं, उनके मन में क्या चल रहा है और इस्तीफा नहीं देने का असर क्या पड़ रहा है?, इसे समझना होगा. यह सही है कि 43 का आंकड़ा पूरा करने के बावजूद सत्ता पक्ष के समक्ष चुनौतियां हैं. उसे समर्थन देनेवाले कई विधायक कानूनी लड़ाई में फंसे हैं और ऐसे वक्त अध्यक्ष का एक भी निर्णय सरकार के भविष्य को तय करता है.
सीपी सिंह के अभी तक अध्यक्ष बने रहने से जोड़–तोड़ की राजनीति खुल कर नहीं हो पा रही है. इस पर अंकुश लगा है. सीता सोरेन और नलिन सोरेन दोनों के खिलाफ वारंट है. बगैर सरेंडर किये अगर ये सीधे विधानसभा पहुंचते हैं, तो अध्यक्ष को तय करना है कि उनका क्या किया जाये. विधानसभा अध्यक्ष के पास यह अधिकार है कि वह वारंटी विधायकों को गिरफ्तार करवा सकते हैं या फिर चुनावी प्रक्रिया से अलग रख सकते हैं.
सीपी सिंह अगर इस्तीफा दे देते हैं और उनकी जगह सत्ता पक्ष का कोई सदस्य अध्यक्ष बनता है तो स्थिति कुछ अलग भी हो सकती है. इसलिए सीपी सिंह जब तक अपना पत्ता नहीं खोलते हैं, सत्ता पक्ष निश्चिंत नहीं हो सकता.
सत्ता पक्ष की नजर विपक्ष के कुछ विधायकों पर भी है. हालांकि विपक्ष में शामिल लगभग सभी दल ह्विप जारी कर रहे हैं. हो सकता है कि ह्विप का उल्लंघन कर कुछ विधायक मतदान करें. ह्विप को नहीं मानने पर उस विधायक की सदस्यता या उनके द्वारा की गयी वोटिंग पर निर्णय लेने का अधिकार भी विधानसभा अध्यक्ष को ही होता है. इसलिए जब तक वे अध्यक्ष रहेंगे, यह भी आसान नहीं होगा. कोई भी विधायक क्रॉस वोटिंग की हिम्मत नहीं करेगा. अध्यक्ष भी चीजों को समझ रहे हैं. वे जानते हैं कि बहुत दिनों तक जोड़–तोड़ को रोकना संभव नहीं है.
अनेक अड़चनें हैं. कई विधायकों के खिलाफ गंभीर आरोप हैं. कुछ विधायक अपने दल में घुटन महसूस कर रहे हैं और मुक्ति के लिए तड़प रहे हैं. सदन में वोटिंग के दौरान कुछ भी कदम उठा सकते हैं. उस दौरान अध्यक्ष को बहुत कड़े और अप्रिय फैसले लेने भी पड़ सकते हैं. उन पर आरोप भी लग सकते हैं. अध्यक्ष यह भी नहीं चाहेंगे कि उनके साफ–सुथरे कैरियर में कोई दाग लगे.
जिस अध्यक्ष ने अपने कार्यकाल में विधानसभा में एक भी बहाली नहीं की, पहले हुई बहाली की जांच के आदेश दिये, जो कर्मचारी–अधिकारी 12 माह काम कर 13 माह का वेतन लेते थे, उसे बंद कराया, अनावश्यक भत्तों पर रोक लगायी, उपस्थिति के लिए बायोमैट्रिक्स सिस्टम लागू कराया, जब सत्ता पक्ष ने भी गलती की, तो सरकार को भी नहीं छोड़ा और विपक्ष का भी दिल जीता, वह अध्यक्ष नहीं चाहेंगे कि उन पर कोई अंगुली उठाये. इसलिए जितनी दूर तक वे जोड़–तोड़ पर रोक लगा सकते हैं, लगाने का प्रयास करेंगे, उसके बाद पद त्यागने में भी कोई विलंब नहीं करेंगे. हो सकता है कि यही उनकी रणनीति भी हो.