।। शीतला सिंह ।।
(जनमोर्चा के संपादक)
बसपा प्रमुख मायावती ने इलाहाबाद हाइकोर्ट के जाति के आधार पर रैलियों को प्रतिबंधित करनेवाले फैसले को अनुचित बताया है. उन्होंने यह घोषणा भी की है कि धर्म और सामाजिक सद्भाव बढ़ाने के लिए उनका भाईचारा अभियान जारी रहेगा. जहां तक देश में जाति– व्यवस्था का प्रश्न है, यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी शुरुआत कब और कैसे हुई. ऊंच–नीच का भेदभाव भी इसमें कैसे शामिल हो गया जबकि माना यही जाता था कि ‘सबै भूमि गोपाल की’ और ईश्वर ही इसका नियामक, नियंता और संहारकर्ता है!
बाहर से आये धर्म भी जाति–व्यवस्था के प्रभावों से मुक्त नहीं रह पाये. इसलाम इसका उदाहरण है. सबसे आधुनिक धर्म तो सिखों का माना जाता है, उसमें भी जाति प्रभाव कहां से आया? उसमें भी श्रेष्ठता के वर्चस्व का युद्घ जारी ही रहा. विभाजन उसमें भी देखा जा सकता है. जाति व्यवस्था में जिन्हें अस्पृश्य दलित और निचली कोटि का माना जाता था, वे सबसे अधिक प्रभावित हुए.आदिवासी जिन्हें मूल निवासी माना जाता था, उनको भी नीचे की कोटि में रखने का प्रयत्न हुआ. कबीलाई व्यवस्था समाप्त होने के बाद उनकी पहचान अलग–अलग मानी गयी. वे श्रेष्ठताबोध से भी ग्रस्त थे और आपस में एक भी नहीं हो पा रहे थे. इसलिए संविधान निर्माताओं ने यह अनुभव किया कि जिस समतावादी समाज की रचना को वे संकल्प में शामिल कर रहे हैं वह तभी संभव होगा, जब कमजोर, वंचित और पिछड़ों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए आरक्षण मिले, जिसके आधार पर राजनीति, सरकारी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की व्यवस्था की गयी. इसकी पहचान का मूल आधार भी जातियां हैं, जो जन्म पर आधारित है, कर्म, आर्थिक स्थिति या स्वीकार्यता पर नहीं.
पुरुष वर्चस्व वाले समाज में मान लिया गया है कि बच्चे भी पिता की जाति का इस्तेमाल कर सकेंगे, इसलिए इन्हें समाप्त करना आसान नहीं है, क्योंकि संविधान के मूल अधिकारों, जिसमें आने–जाने, संगठन बनाने, उन्हें चलाने की व्यवस्था की गयी है, उनका इस्तेमाल इसे बनाये रखने के लिए हो रहा है. इसलिए जाति के आधार पर रैलियां, सम्मेलन और बैठकें रुकेंगी कैसे, क्योंकि यह अस्तित्व और वास्तविकता से जुड़ी हुई हैं.
10 वर्षो के लिए निर्धारित आरक्षण व्यवस्था की समाप्ति के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं, बल्कि इसे बनाये रखने के लिए जाति की संकल्पना को बनाये रखना, उसे मजबूत करना आवश्यक है. इसलिए जातियों से मुक्त समाज एक ऐसी कल्पना है, जिसमें संविधान का संकल्प सहायक नहीं हो रहा है.
जहां तक चुनाव आयोग का संबंध है, जिसका गठन संविधान के अनुच्छेद-324 के तहत किया गया है, उसके लिए संसद ने जनप्रतिनिधित्व कानून की रचना की है. इसके तहत उसे निष्पक्ष चुनाव कराने का दायित्व निभाना है. इसी कानून में उम्मीदवारों की अयोग्यताओं में जाति, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा आदि के नाम पर वोट मांगने को भी अनुचित करार दिया गया है. यदि ऐसा करते हुए कोई उम्मीदवार पाया जाये तो आरोप सिद्ध होने पर उसकी सदस्यता भी समाप्त हो सकती है. लेकिन चुनाव 5 वर्ष में एक बार होता है और चुनाव आयोग की भूमिका लगभग दो महीने में पूरी होती है. चुनाव संपन्न होने के बाद जब उम्मीदवारों की सूची, विज्ञप्तियों का प्रकाशन हो जाता है, तो इसे समाप्त माना जाता है.
चुनाव आयोग को चुनाव संबंधी विवादों की सुनवाई का भी अधिकार नहीं है. यह काम न्यायपालिका करती है. चुनाव आयोग तो सभी कालों में रहता है, लेकिन मुख्य रूप से उसका काम निर्वाचन, पंजीकरण के लिए मतदाताओं की सूची, मतदान केंद्र, चुनाव क्षेत्रों का निर्धारण, राजनीतिक दलों का पंजीकरण और मान्यता देना तथा उनके लिए चुनाव चिह्न् आवंटित करना रह जाता है.
आमतौर से इस बीच में अदालतों को भी इसके मामले में दखल देने से रोक दिया गया है. वह अदालत के किसी निर्णय के परिपालन का दायित्व निभाने वाली संस्था नहीं है, इसलिए कब, कहां और कौन सभा आयोजित हो रही है, उसका स्वरूप, स्थान क्या, कहां हो यह सब शासन के छोटे अधिकारी ही तय करते हैं. ऐसे में यदि मायावती समझती हैं, कि जातिगत रैलियों के बजाय इसे सामाजिक सौहार्द्र और भाईचारा पैदा करने का आयोजन कहा जाये, तो उच्च न्यायालय के निर्देश निर्थक हो जायेंगे, तो यह स्वाभाविक है.