अत: उन्होंने अपनी घोषणा को कई बार दोहराया. दोहरा ही रहे थे कि जैसा कि आजकल किसी भी लम्हें में हो सकता है, प्रदेश के मुख्यमंत्री ने, अपनी अंतरात्मा की आवाज सुन कर, जो पार्टी हाइकमांड के आदेश की पर्यायवाची है, अचानक इस्तीफा दे दिया.
हमारे क्षेत्रीय विधायक जी दूसरे मंत्रिमंडल में, बिरादरी के अनूठे प्रतिनिधि होने के नाते, फिर से राज्यमंत्री बना दिये गये.
दूसरा समारोह भी भव्य और भावनीना तो बताया गया, पर रंग कुछ फीका रहा. दुकानदार दुकान सजाये बैठा हो, पर यह पता न चले कि यहां कौन-सा माल बिकता है, मंत्री जी की हालत कुछ वैसी ही थी.
प्रशासनिक सुधार और कार्मिक लोगों के पल्ले नहीं पड़ रहे थे. पर मंत्री जी का जीवट कुछ कम नहीं था. उन्होंने इस बार एक नयी घोषणा की, आदरणीय प्रधानमंत्री के नेतृत्व में हमें नयी-नयी तकनीकों और पद्धतियों की जानकारी करनी होगी. खासतौर से कंप्यूटर की जानकारी तो बच्चे-बच्चे को होनी चाहिए.
इसकी शुरु आत हमने अपने आला अफसरों से की है. हम अपने वरिष्ठ अधिकारियों को कंप्यूटर का प्रशिक्षण देने के लिए दो सप्ताह का एक सत्र आयोजित कर रहे हैं. यह प्रशिक्षण उमरावनगर में होगा.
अब गले में टाई और हाथ में ब्रीफकेस लटकाए हुए जो अफसर दिल्ली के किसी वातानुकूलित कमरे की हवा में अपनी हवा जोड़ते, वे उमरावनगर में कंप्यूटर प्रशिक्षण के लिए कंप्यूटर-समेत आ गये हैं.
बीडीओ साहब यह ब्योरा मुङो सुना रहे थे, तब उनकी आवाज के पीछे, जैसा कि फिल्म डिविजन के वृत्तचित्रों में होता है, कई तरह की आवाजें पृष्ठसंगीत का काम कर रही थीं. नीचे सड़क पर विचरते और चरते हुए गधों की सीपों-सीपों, ट्रकों के प्राणबेधी हार्न, आटा चक्की की किट्-किट् एक साथ कई दुकानों पर बजते हुए ट्रांजिस्टर और एक दुकान पर एंप्लीफायर के सहारे गरजता हुआ एक लगभग अश्लील लोकगीत, आदि-आदि.
इन आवाजों को कुछ देर पहले लाउडस्पीकर पर गूंजती हुई अजान ने पस्त किया था, पर अजान तो चंद मिनटों का करिश्मा है. उसके खत्म होते ही स्वामी रघुवरदास के आश्रम का कीर्तन बाकी सब आवाजों पर हावी हो गया था.
कीर्तन में जनाना-मर्दाना, दोनों ही आवाजें थीं, पर सबसे प्रबल आवाज एक नारी कंठ की थी. बीडीओ साहब की बात खत्म होते होते वह नारी कंठ तारसप्तक के मध्यम पर जा कर टिक गया और वहीं टिका रहा. फिर उससे भी एक स्वर ऊपर जा कर उसने आलाप लिया : की..ई..ई..ई..की..ई..ई..ई. लगा, कोई फेफड़ा फाड़ कर चीख रहा है! मेरे मत्थे पर उलझन की रेखाएं उभर आयी होंगी. बीडीओ साहब बोले, लगता है सियादुलारी जी को फिर से दौरा पड़ा है!
पर सियादुलारी जी की बात बाद में, पहले ये पांच कोठियां. पर उसके भी पहले एक नजर उस फिजा पर जो विकास से पहले की है.
कुछ दूरी पर आम के ठूंठ की एक सूखी, पर मोटी डाल आसमान की ओर हाथ उठा कर पनाह-जैसा मांग रही है. उसी के पास यह कोठी बनी है. उमरावनगर का यह पहला पक्का मकान है. आम के ठूंठ से आप सोच सकते हैं, और सही सोचेगें, कि यहां पहले एक अमराई थी. उसके वे पेड़ जो सड़क के किनारे नहीं थे, पहले ही शहरवालों के चूल्हे-भाड़ में जा चुके हैं. सड़क के किनारेवाले पेड़ सरकारी हैं. इसलिए वे काटे-बिना ही काट-देने की पद्धति से सिर्फ ठूंठ बना कर छोड़ दिये गये हैं.
यह पद्धति कैसी है? वैसी ही, जैसे टैक्स, लगाये बिना, टैक्स लगने की पद्धति. जैसे, कुछ महीने हुए, पेट्रोलियम पदार्थो के दाम हचक कर बढ़ा दिये गये. लोगों ने चिल्लपों मचाई, तो सरकारी अर्थशास्त्रियों ने समझाया- तुम लोग मान लो कि दाम नहीं बढ़ाए गये हैं, हमने तो इन पदार्थो पर सिर्फएक टैक्स-जैसा लगाया है. टैक्स देनेवालों ने एक-दूसरे मौके पर चिल्लपों मचाई तो उन्होंने वहां समझाया-हम टैक्स की दर बढ़ाना नहीं चाहते न नये टैक्स लगाना चाहते हैं.
इसीलिए देखो, हमने पैट्रोल आदि की कीमत बढ़ा दी है!
तो, जनता ने भी सरकार के साथ वैसा ही किया है. ईंधन की कमी हुई तो बीवी को बताया, सड़कवाला पेड़ काट कर ला रहा हूं. पेड़ की उन्होंने इधर-उधर की शाखें छांट दी, बस फुनगी छोड़ दी. फिर सारा काम तने पर किया. उसकी पहले छाल छील दी, फिर कुछ गहरे पैठ कर गूदे से कई दिन छोटी-छोटी चिप्पियां निकालीं. निकालते रहे.
क्रमश: