।। हरिवंश ।।
– एक तरफ गरीबी बढ़ रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है, स्विस बैंकों में रखा भारतीय धन घट रहा है (यानी स्विस बैंकों में जो भी भारतीय काला धन है, उसे हटा कर कहीं और रखा जा रहा है), अतिधनी लोगों की संख्या बढ़ रही है, पर ऐसे गंभीर सवाल, राजनीति में मुद्दे नहीं हैं. पहले सत्ताधारी दलों में ही ऐसे मुद्दों को उठानेवाले नेता, गुट या लोग होते थे. पर अब सत्ता पक्ष को छोड़ दीजिए, ऐसे मूल सवालों पर विपक्ष के एक भी बड़े दल या नेता ने कोई गंभीर पहल की है? –
कुछ दिन उत्तराखंड रहना हुआ. लौटा, तब से अब तक की कुछ खास खबरें देखीं-पढ़ीं. जेहन में बार-बार ये गूंजती-ध्वनित होती हैं.
* मुंबई के अतिसुरक्षित नवी मुंबई के जेल में बंद माफिया डान अबू सलेम पर हमला. जेल में गोली मारी. पुलिस को शंका है, यह सुपारी केस है. दाऊद इब्राहिम के इशारे पर. याद रखिए, क्रिकेट मैच फिक्सिंग मामले में भी दाउद इब्राहिम की भूमिका चर्चा में आयी थी.
* कनिमोझी दोबारा राज्यसभा पहुंचीं. याद करिए, 2जी का महाभ्रष्टाचार. कई लाख करोड़ में. इसमें करुणानिधि की प्रिय व महत्वाकांक्षी पुत्री कनिमोझी की भूमिका और लंबे समय तक उनका जेल में रहना. डीएमके के बड़े नेता, कांग्रेस सपोर्ट के लिए, प्रधानमंत्री और सोनिया गांधी से मिलने गये थे. उन्हें राज्यसभा पहुंचाने के लिए.
* 27 जून की खबर है कि राहुल गांधी और कांग्रेस की आलाकमान सोनिया गांधी ने कांग्रेस मुख्यालय से अनेक ट्रक रवाना किये. राहत सामग्री लेकर, उत्तराखंड पहुंचने के लिए. देसी-विदेशी मीडिया में यह खूब तड़क -भड़क के साथ दिखाया गया. सोनिया जी ने 24 ट्रकों को झंडा दिखा कर रवाना किया. साथ में और 125 वाहन थे. ये वाहन ऋषिकेश और देहरादून पहुंच कर खड़े हैं. क्योंकि इनमें तेल खत्म हो गया. इनमें से हर ड्राइवर को दो-दो हजार रुपये तेल के लिए दिये गये थे.
* रुपये का भाव, डॉलर के मुकाबले सबसे नीचे पहुंचा. एक डॉलर, 60 रुपये से भी अधिक. पर वित्त मंत्री कहते हैं, परेशान होने की जरूरत नहीं. उसी दिन सेंसेक्स भी 19 हजार से नीचे आ गया था. दो दिनों बाद हार्वर्ड में पढ़ानेवाली अर्थशास्त्री, गीता गोपीनाथ का बयान आया कि दुनिया के बाजार में बड़े निवेशक भारत को लेकर नर्वस हैं.
* रुपये का भाव गिरा. उसी दिन सरकारी खबर आयी कि 2009-10 से 2011-12 के बीच भारत में बेरोजगारों की संख्या बढ़ी. बेरोजगारी की दर 2.5 से 2.7 फीसदी के बीच रही है.
त्नउसी दिन नेशनल सेंपल सर्वे (एनएसएस) के स्नेत से यह खबर भी आयी कि गांव में गरीब 17 रुपये प्रतिदिन की आमद पर जीवन गुजारते हैं.
* 20 जून की खबर थी कि भारत के सुपर रिच (अति धनाढ्य) लोगों के लिए अब भी भारत चमक रहा है (इंडिया इज शाइनिंग). वर्ष 2012 में एक मिलियन डॉलर से अधिक निवेश करनेवाले भारतीय लोगों की संख्या में 22.22 फीसदी वृद्धि हुई है. पहले नंबर पर रहे हांगकांग में यह वृद्धि 35.7 फीसदी थी. इसके बाद दुनिया स्तर पर भारत में ही समृद्ध लोगों की संपदा इतनी बड़ी मात्र में बढ़ी. यानी अति संपन्नों की संपत्ति बढ़ने में भारत, दुनिया के दूसरे नंबर पर रहा. वर्ष 2012 में.
* एक बिजनेस अखबार की यह खबर थी, भारतीय युवकों के लिए अभिशाप, नौकरियां खत्म हो रही हैं. यानी तेजी से घट रही हैं.
* दूसरे बड़े बिजनेस पेपर की खबर थी कि स्विस बैंक में भारतीय धन अब तक के सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया है. नौ हजार करोड़ भारतीय रुपये फिलहाल स्विस बैंकों में हैं. 2012 में लगभग 4900 करोड़ रुपये निकाल लिये गये. 2006 में यह 32 हजार करोड़ रुपये के आसपास था. स्विस बैंकों में यह अधिकतम 41 हजार करोड़ रुपये के आसपास पहुंचा था. याद रखिए, यह महज स्विस बैंकों में जमा भारतीय धन या काला धन का ब्योरा है.
* जून के तीसरे सप्ताह की खबर है कि भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के प्रमुख केजी बालाकृष्णन और उनके करीबियों की संपत्ति की जांच हुई. पर जांच के तथ्य सरकार उजागर नहीं करेगी.
* यह खबर भी उसी दिन की है. दुनिया की मशहूर पत्रिका, टाइम के एक सर्वे के अनुसार दुनिया के सौ मशहूर विश्वविद्यालयों में एक भी विश्वविद्यालय भारत का नहीं है.
* दिल्ली के एक अंग्रेजी अखबार की लगभग लीड खबर में भारत का रेप कैपिटल (बलात्कार की राजधानी), दिल्ली बताया गया है. इस खबर में उल्लेख है कि बलात्कार के मामले में पुलिस समेत आठ विद्यार्थी गिरफ्तार. ट्रैफिक पुलिस समेत चार से बलात्कार. एक अल्प उम्र की बच्ची से भी बलात्कार. यह एक दिन की घटना है. जून के तीसरे सप्ताह की.
पिछले नौ दिनों के अंदर की ये कुछेक खबरें हैं. ये खबरें देश के हालात बताती हैं. यह मुल्क कैसे चल रहा है? कानून से चल रहा है? तो कानून की क्या स्थिति है? अति सुरक्षित जेलों में दाऊद इब्राहिम के गुंडों द्वारा हमला. जेल, सरकार का कैदखाना है. मान्यता है कि जेल में रह रहे लोग सरकारी अमानत हैं. जेल, सबसे सुरक्षित जगह है. वहां भी दाऊद के हमलावर पहुंच जाते हैं. मैंच फिक्सिंग, बड़े अपराध, आतंकवादियों से मिल कर भारत के खिलाफ षड्यंत्र में मुख्य किरदार.
पिछले 30-40 वर्षो में एक अपराधी, विदेशी ताकतों के बल भारत संघ के लिए चुनौती बना है. भारत असहाय स्थिति में है. कहां हैं, दिल्ली से लेकर राज्यों तक सत्ता चलानेवाले? कानून-व्यवस्था के रखवार या ठेकेदार? आंकड़ों के अनुसार पिछले एक साल में दिल्ली में बलात्कार की घटनाएं काफी बढ़ गयी हैं. सख्त कानून बनाने के बाद भी. क्यों ऐसे हालात हो रहे हैं, मुल्क के? पिछले कुछेक वर्षो से भारत के कालाधन का मुद्दा सुर्खियों में रहा.
बाबा रामदेव व अण्णा के आंदोलनों के कारण. मांग थी कि भारतीय धन, जो विदेशों में जमा है, वहां से उसे भारत के अंदर लाया जाये? पर खबरें आ रही हैं कि विदेशी बैंकों में जमा भारतीय धन लगातार घट रहा है यानी वहां से हटाया जा रहा है. देश के अंदर या देश के बाहर भारतीयों हितों से जुड़े ऐसे बुनियादी सवालों पर ‘गवर्नेस’ कहां है? सरकार का ताप या छाप कहां है? क्या भारत एक अशासित मुल्क बन गया है? पसरता भ्रष्टाचार, बढ़ते अपराध-बलात्कार और असहाय होती व्यवस्था, इससे भी गंभीर स्थिति कि ऐसे मूल सवालों पर न संसद में बहस है, न राजनीति में विमर्श?
दूसरी ओर देश की लगातार नाजुक होती अर्थव्यवस्था है. रुपये का भाव निरंतर गिर रहा है. डॉलर के मुकाबले. देश की आर्थिक स्थिति का प्रतीक या संकेत है, देश की मुद्रा का स्वास्थ्य. पूरी दुनिया भारत की कमजोर होती अर्थव्यवस्था को देख रही है. हार्वर्ड के प्रख्यात अर्थशास्त्री कह रहे हैं कि भारत को लेकर दुनिया के निवेशकों में बेचैनी-चिंता है, पर भारत के हुक्मरान देश को झूठा भरोसा दिला रहे हैं कि चिंता की कोई बात नहीं.
बात यहीं तक नहीं है. बहुसंख्यकों के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है. महंगाई बढ़ रही है. बेतहाशा. पेट्रोल, डीजल और गैस की बात भूल जायें, वहां तो आग लगी हुई ही है. पर यह आग भारत के सुपर रिच (अत्यंत धनाढ्य वर्ग) के लिए नहीं है. उनके लिए तो स्वर्ग जैसी स्थिति है. 2004 में एनडीए ने नारा दिया, ‘इंडिया इज शाइनिंग.’ इस नारे ने एनडीए की नाव डुबो दी. पर इस नारे के खिलाफ पार उतर कर सत्तारूढ़ हुए यूपीए के दौर में आंकड़े बता रहे हैं कि भारत के अति धनाढ्य लोगों की संपदा बढ़ने की रफ्तार दुनिया में दूसरे नंबर पर है.
हमारी अर्थनीति में यह विषमता, अराजकता, भेदभाव और कुव्यवस्था या अंतर्विरोध क्यों? 1991 के पहले तक भारतीय राजनीति में अर्थव्यवस्था प्रबंधन का सवाल या मुद्दा अहम माना जाता था. आज इतनी खराब स्थिति के बाद चर्चा तक नहीं? क्या इसका एक कारण यह तो नहीं कि राजनीति करनेवाले इतने अमीर या साधन संपन्न हो गये हैं कि इन्हें ऐसे मूल सवाल परेशान ही नहीं करते. पहले कांग्रेस में ही वामपंथी या जन-रुझान के लोग होते थे, वे ऐसे सवालों को लकर सत्ता पक्ष की अर्थनीति पर सवाल उठाते थे. अब तो इस तरह की स्वस्थ बहस की परंपरा ही खत्म हो गयी है.
ऐसा ही हाल विपक्ष का भी है. जिस मुल्क में अराजकता की स्थिति हो, अर्थव्यवस्था, चंद हाथों में गिरवी बन रही हो, वहां विपक्ष ऐसे मूल सवालों पर आंदोलन न खड़ा कर पाये? विपक्ष भी इसी कुव्यवस्था का हिस्सा नजर आने लगे, तो लोकतंत्र को ताकत कहां से मिलेगी? अण्णा के आंदोलन, केजरीवाल के अभियान या रामदेव के आवाहन का राजनीतिक अर्थ क्या है? आज विपक्ष बुनियादी सवालों को उठाने की सार्थक भूमिका में होता, तो अण्णा, केजरीवाल या रामदेव को जो थोड़ी जगह मिली (सार्वजनिक जीवन में), वह भी नहीं मिलती. विपक्ष की विफलता ने इन्हें जगह दी, पर कुछ ही समय बाद इनका प्रभाव घटने लगा. कारण, राजनीतिक मुद्दे तो अंतत: राजनीतिक दल ही दूर तक ले जा सकते हैं.
उत्तराखंड में त्रासदी के सबब क्या हैं? सेना, बीएसएफ और आइटीबीपी ने साबित कर दिया कि वे अद्वितीय हैं. पर नागरिक प्रशासन, बाढ़ नियंत्रण जैसी अनेक सरकारी संस्थाएं कहां थीं? दरअसल संस्थाएं (व्यवस्था) मर चुकी हैं. लोभी राजनीति को पैसा कमाने से फुरसत कहां है? पर देश, समाज के ये मूल सवाल भारत की राजनीति से ही गायब हैं.
देश चलानेवाले क्या कर रहे हैं? राजनीति में क्या इन सवालों की कहीं गूंज या चर्चा है? सिर्फ मोदी के पक्ष या विपक्ष पर मीडिया बंटा है. राजनीति बंटी है. लेकिन मुल्क के गंभीर सवाल अपनी जगह हैं. वे रोज ही और गंभीर बन रहे हैं. पर अंतत: अराजक हालात या ध्वस्त होते गवर्नेंस को राजनीति ही नियंत्रित कर सकती है. पर राजनीति चलानेवालों के बीच कैसी अगंभीरता है? उत्तराखंड की विभीषिका के लिए सोनिया गांधी, राहुल गांधी ट्रक भेजते हैं. ट्रक रवाना करते हैं. यह एक अच्छा प्रयास है. पर ऐसे ट्रक रास्ते में ही खड़े हो जाते हैं. क्योंकि उनके पास न तेल है, न आगे जाने का खर्च. आधा-अधूरा काम करना, अगंभीरता से काम करना, हमारी रगों में हैं.
हमारी कार्यसंस्कृति है. सोनिया गांधी, राहुल गांधी को चेहरा दिखाने के लिए कांग्रेसियों के बीच स्पर्धा रही, पर यह सामान जरूरतमंदों तक पहुंच जाये, यह व्यवस्था सुनिश्चित करने की किसी को फुरसत नहीं. क्योंकि इस काम से सत्ता नहीं मिलती. सत्ता की आभा भी नहीं मिलती. यह सेवा करने का समय नहीं है.
अब तो राजनीति में आते ही सत्ता चाहिए. सत्ता भी किसलिए? देश की सेवा के लिए नहीं, बल्कि खुद की सेवा के लिए. एक तरफ गरीबी बढ़ रही है, बेरोजगारी बढ़ रही है, स्विस बैंकों में रखा भारतीय धन घट रहा है (यानी स्विस बैंकों में जो भी भारतीय काला धन है, उसे हटा कर कहीं और रखा जा रहा है), अतिधनी लोगों की संख्या बढ़ रही है, पर ऐसे गंभीर सवाल, राजनीति में मुद्दे नहीं हैं. पहले सत्ताधारी दलों में ही ऐसे मुद्दों को उठानेवाले नेता, गुट या लोग होते थे. विपक्ष का तो धर्म ही यह होता था. पर अब सत्ता पक्ष को छोड़ दीजिए, ऐसे मूल सवालों पर विपक्ष के एक भी बड़े दल या नेता ने कोई गंभीर पहल की है?