20.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

अभी तो यह अंगड़ाई है

।।अरविंद मोहन।।(वरिष्ठ पत्रकार)महाराजगंज उप-चुनाव से शुरू हुआ राजनीतिक घटनाक्रम इतनी रफ्तार से सब कुछ बदलने की दिशा में बढ़ेगा, इसकी कल्पना इसके मुख्य पात्रों को भी नहीं रही होगी. और यह क्रम थम गया हो, यह भी नहीं कहा जा सकता. एक स्तर पर यह बिहार में भी शुरुआत ही है और मुल्क की राजनीति […]

।।अरविंद मोहन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
महाराजगंज उप-चुनाव से शुरू हुआ राजनीतिक घटनाक्रम इतनी रफ्तार से सब कुछ बदलने की दिशा में बढ़ेगा, इसकी कल्पना इसके मुख्य पात्रों को भी नहीं रही होगी. और यह क्रम थम गया हो, यह भी नहीं कहा जा सकता. एक स्तर पर यह बिहार में भी शुरुआत ही है और मुल्क की राजनीति पर तो इसका प्रभाव पड़ना अभी ही शुरू हुआ है. हमारा अनुभव पहले का भी है कि जब चीजें गुजरात से शुरू होती हैं और बिहार मशाल थाम लेता है, तो बदलाव संपूर्ण न भी हो तब भी काफी हो जाता है. जेपी आंदोलन के समय यह दिखा है.

और तब भी संपूर्ण क्रांति नहीं हुई, लेकिन 1977 को भारतीय राजनीति का विभाजक साल माना ही जाता है. कांग्रेस का हारना ही महत्वपूर्ण नहीं था, और भी काफी कुछ हुआ और लोकतंत्र को तो सचमुच का नया जीवन मिला. इस बार वैसा ही कुछ हो जायेगा, यह भविष्यवाणी करना तो मुश्किल है, पर यह भी सच्चाई है कि अब 1974 जैसा आंदोलन खड़ा होना भी मुश्किल लगता है. बिहार में एक नयी शुरुआत हुई है और चीजें आगे क्या रंग-रूप लेती हैं, यह कहना आसान नहीं है. कांग्रेस और निर्दलीयों ही नहीं, भाकपा के एकमात्र सदस्य के भी समर्थन के चलते सरकार मजे से बच गयी और कांग्रेस ने भी लालू-नीतीश के बीच चुनाव साफ कर दिया. इससे अभी सबसे ज्यादा लालू प्रसाद बेचैन दिखते हैं, पर बाकी सब निश्चिंत हो गये हों, ऐसा भी नहीं है.

बिहार में नंबर दो पर आ गयी भाजपा को अपना नेता चुनने में ही पसीना छूट गया और दरार छुपाने के लिए वोटिंग से बाहर रहना पड़ा. उधर, नीतीश कुमार के यहां भी उप मुख्यमंत्री बनाने की खुली मांग आ गयी, तो मंत्री बनने की तो होड़ ही लगी है. पहले 92-93 सदस्यों को संभालने का जिम्मा सुशील मोदी संभालते थे और नीतीश कुमार की गिनती उसके ऊपर शुरू होती थी. फिर वे मजे से सांसद और विधायक कोष खत्म करने का जोखिम मोल ले सकते थे, मंत्रियों को भी समय देने में कंजूसी कर सकते थे, संगठन से बेखबर थे और सामाजिक समीकरणों को न भूलते हुए भी जातिवाद करने से बच लेते थे. मुख्य चिंता शासन की थी. अब वे कैसे चलाते हैं और क्या करते हैं, इस पर काफी कुछ निर्भर करेगा और लोगों का ध्यान भी रहेगा. जातिगत गणित के हिसाब से वही सबसे कमजोर जमीन पर हैं और भाजपा तथा संघ परिवार उनको भले धोखेबाज बताने का प्रयास करें, पर सबसे बड़ा जोखिम उन्होंने ही उठाया है. उनकी तुलना में भाजपा और राजद के पास एक साफ सामाजिक आधार है.

रामविलास पासवान भी अपनी बिरादरी के वोटों पर दावा कर सकते हैं, जिनकी गिनती ठीकठाक है. दूसरी ओर नीतीश के लिए ही नहीं, किसी भी ‘बाहरी’ के लिए अति पिछड़ा, महादलित, पसमांदा मुसलमान जैसे विभाजन भी आपको बहुत दूर नहीं ले जा सकते. कुर्मी-कोइरी जैसा कोई गठजोड़ आज है भी, यह कहना मुश्किल है. ऐसे में कब सामाजिक समीकरण साथ छोड़ देगा, या भाजपा के जाने से बनिया और अगड़ा समर्थक आधार खिसका तो क्या होगा, यह कहना मुश्किल है. भले ही लालू जी की परिवर्तन रैली उतनी सफल नहीं हुई और कांग्रेस ने अपना सिगनल साफ करके उनके लिए मुसलमान वोट पाना थोड़ा मुश्किल बना दिया, पर यह भी तय है कि बला के होशियार लालू प्रसाद नये चेहरे और नये मुद्दों के आधार पर फिर से खड़े होने की कोशिश आसानी से नहीं छोड़ेंगे. बिहार में उनका राज ऐसा नहीं रहा है कि उसकी वापसी की ललक बिहारियों में जगे, पर केंद्र में रेल मंत्री के रूप में काम तो लुभावना था ही.

और अकेले लालू प्रसाद ही नहीं नीतीश को चुनौती देने की तैयारी कई तरफ से हो रही है, जिसमें उनकी पूर्व सहयोगी भाजपा भी है, जिसने काफी पहले से सभी लोकसभा सीटों के लिए घोषित तैयारी शुरू की थी. अगर मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बने, तो बाकी मुल्क के लिए तो नहीं, पर बिहार के एक वर्ग के लिए उनका अति पिछड़ा होना भी मुद्दा बन सकता है. इसका संकेत खुद सुशील मोदी ने पहले दिन ही दे दिया. भाजपा का एक वर्ग इस बात की तैयारी कर रहा है, पर अभी भी काफी कुछ तय होना बाकी है. गौरतलब यह भी है कि न तो मोदी कभी खुद को पिछड़ा बताते हैं न उन्होंने पिछड़ों के लिए कुछ किया हो. और हिंदुत्व को सबसे बड़ी चीज और जाति की राजनीति को अपनी राह की सबसे बड़ी बाधा माननेवाले मोदी जब खुद को किसी जाति का बता कर वोट मांगेंगे तो वह कितना मोदी रहेंगे यह कहना मुश्किल है. दिखावे भर के लिए भी मुसलमान की टोपी न पहनने वाले मोदी खुद को अति पिछड़ा बताते हैं या नहीं, यह भी देखना दिलचस्प होगा. साफ है कि बिहार में अभी सब कुछ नये सिरे से शुरू हो रहा है. कुछ नये संकेत हैं, पर वे सचमुच के नये हैं या पुरानी स्थिति के बदलाव का ही नतीजा है, यह कहना मुश्किल है. पर सबके लिए मैदान खुला है और सभी साल भर से भी कम समय में होनेवाली परीक्षा में परखे जायेंगे. पास-फेल तो तभी होना है.

नीतीश कुमार बहुत संभावनाओं वाले नेता हैं और अभी सभी उनसे ही लड़ने की बात और तैयारी कर रहे हैं, तो यह भी कुछ संकेत तो देता ही है. इसके साथ ही यह चीज भी देखनेवाली होगी कि अगला चुनाव वे अकेले लड़ते हैं या नये गंठबंधन के साथ. भाजपा भी अकेले लड़ेगी और उसके निशाने पर कांग्रेस कम, नीतीश ही ज्यादा होंगे. बाकी सभी बिना गंठबंधन के नहीं चल सकते और न ही उनको बहुत ज्यादा सीटें मिलने की उम्मीद लगती हैं. पर यह भी तय है कि जो ज्यादा से ज्यादा सीटें लायेगा अगली संसद और सरकार में उसका वजन उतना अधिक होगा. नीतीश और लालूजी के लिए कांग्रेस और तीसरा मोरचा में से किसी के भी पास जाने का विकल्प होगा, पर भाजपा के लिए यह विकल्प नहीं होगा. केंद्रीय राजनीति में किसी बिहारी नेता ने काफी समय से बड़ी भूमिका नहीं निभायी है. नीतीश ने नरेंद्र मोदी को रोकने का जो दावं चला है, अगर वह सफल होता है तो राष्ट्रीय राजनीति में उनका कद काफी बढ़ जायेगा.

अब यह गिनवाने की जरूरत नहीं है कि किसको क्या-क्या करना पड़ सकता है. यह तो हमारे-आपके देखने की चीज होगी. पर बिहार का असर देश की राजनीति पर पड़ना शुरू हो चुका है. कांग्रेस ने अपने चार विधायकों का समर्थन देकर जदयू के बीस सांसदों व दस राज्यसभा सदस्यों का समर्थन पाने का जुगाड़ कर दिया है. इससे भी कई महत्वपूर्ण विधेयक पास होने का हिसाब हो सकता है. और खाद्य सुरक्षा विधेयक जैसे कानून देश पर और चुनावी राजनीति पर क्या असर छोड़ेंगे, यह कहना अभी मुश्किल है. अभी चुनावी गंठजोड़ के पहले भी काफी कुछ होनेवाला है. देखते रहिए आगे-आगे होता है क्या!

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें