।। मार्क टली ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
राजनीतिक तौर पर विवादास्पद माने जानेवाले नेता नरेंद्र मोदी को हाल ही में भाजपा ने अगले साल होनेवाले आम चुनाव में अपने प्रचार अभियान की अगुवाई की कमान सौंपी है. इसके साथ ही प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी संभावित दावेदारी थोड़ी और बढ़ गयी है.
यह भी माना जा रहा है कि सियासी तौर पर अहम राज्य उत्तर प्रदेश को जीतना मोदी की महत्वाकांक्षा के केंद्र में होगा. पिछले हफ्ते जब गोवा में गुजरात के सीएम नरेंद्र मोदी को भाजपा की चुनाव अभियान समिति की कमान सौंपी जा रही थी और इसको लेकर उत्साह का माहौल था. उस वक्त यूपी के भीड़-भाड़ भरे अस्त-व्यस्त शहरों के लिए यह सब कुछ सामान्य राजनीति की तरह ही था.
* जाति के इर्द-गिर्द : इत्मीनान से चलते गधे, जरूरत से ज्यादा भरी गाड़ियां और सवारियों से लदी जीपों से यूपी के इन शहरों की गड्ढेदार सड़कों का ट्रैफिक थम-सा जाता है. इतना ही नहीं यहां इमारतें कुछ यूं बनायी जाती हैं कि उनमें कायदे से बसाये गये शहरों के निशान खोजना मुश्किल है.
बिजली की कमी और अन्य नागरिक सुविधाओं को लेकर लोगों की शिकायतें भी हैं. ये सब कुछ किसी में यह भरोसा जगा सकता है कि ज्यादातर स्थानीय लोग एक संभावित प्रधानमंत्री के कैरियर पर नजर रखे हुए होंगे. वह भी ऐसे शख्स के बारे में जिसे एक कायदे से चलाये जा रहे राज्य के प्रशासन और उसके नियोजित विकास का श्रेय दिया जाता है.
* उत्तर प्रदेश की जीत : क्या इस सूबे की राजनीति को पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक गांव के एक उदाहरण से समझा जा सकता है. मुझे बताया गया कि इस गांव में भीमराव आंबेडकर की प्रतिमा लगाये जाने की दलितों की मांग को लेकर उनका अन्य पिछड़ी जातियों से विवाद चल रहा है. यह राज्य देश की सबसे ज्यादा आबादी वाला राज्य है और देश की संसद के निचले सदन में सबसे ज्यादा संख्या में 80 सांसद चुन कर भेजता है.
यह वही राज्य है, जहां भाजपा को 180 का आंकड़ा छूने के लिए हवा का रु ख मोड़ना होगा. संख्या के लिहाज से यह सबसे निचला अनुमान है जिसके बारे में माना जाता है कि सरकार बनाने के लिए भाजपा की किसी भी संभावना के मद्देनजर पार्टी को कम से कम इतने सासंद चुन कर लाने होंगे. और ऐसा कोई राज्य है भी नहीं जहां भाजपा के पास फायदा उठाने का अवसर हो जितना कि यूपी में है. लेकिन फिलहाल यहां हालात ऐसे हैं कि हवा का रु ख भाजपा के पूरी तरह से खिलाफ है.
* स्थानीय बनाम राष्ट्रीय : पिछले आम चुनाव में भाजपा को महज 10 सीटें ही मिल पायी थीं और पार्टी मिले मतों में भी 4.7 फीसदी की गिरावट दर्ज की गयी थी. इसके ठीक बाद हुए राज्य विधानसभा चुनाव के नतीजे भी पार्टी के लिए कोई बहुत ज्यादा उत्साहवर्धक नहीं रहे थे.
मोदी के पास इस हवा का रुख मोड़ने का एक मात्र तरीका यही है कि मतदाताओं को इस बात के लिए मनाया जाये कि वे आम चुनावों में स्थानीय मुद्दों को दरकिनार कर राष्ट्रीय मुद्दों को तरजीह दें. चुनावी पंडितों का कहना है कि मोदी की राह में दो मुश्किलें हैं, जिनका हल उन्हें खोजना होगा.
पहला यह कि देश के ज्यादातर हिस्सों में आम चुनाव राज्य विधानसभा चुनावों की कड़ी का ही एक हिस्सा बन गये हैं. भारत में होनेवाले चुनाव पर नजर रखने वाले एक जानकार का तो कहना है कि दुनिया के अन्य देशों की तुलना में यहां होनेवाले आम चुनाव के चरित्र में राष्ट्रीय कही जा सकने वाली बहुत ही कम बातें रह गयी हैं.
* मतदाताओं का रुझान : मोदी की राह में दूसरी चुनौती मतों को सीटों में बदलने के मामले में भाजपा का खराब रिकॉर्ड रहा है. इसे सीट-वोट गुणक के तौर पर भी जाना जाता है. भाजपा ने पार्टी को मिले हर मत फीसदी के अनुपात में जितनी सीटें जीती थीं, उसमें लगातार गिरावट देखी जा रही है.
साल 1999 में यह अनुपात अपने उच्चतम स्तर पर था. इसमें सुधार का सबसे स्पष्ट तरीका यही हो सकता है कि मतदाताओं का रु झान एक बार फिर से राष्ट्रीय मुद्दों के प्रति बढ़े. मोदी को मतदाताओं को इस बात के लिए मनाना होगा कि आम चुनाव का सरोकार राष्ट्रीय मुद्दों से है और कोई राष्ट्रीय स्तर का नेता उनकी जिंदगी में बदलाव लाने के लिए सक्षम हो. उन्हें इस बात का भली-भांति एहसास है और वह पहले भी यह जाहिर कर चुके हैं.
* विकास पुरुष की छवि : यही वजह है कि वे खुद को ‘विकास पुरुष’ के तौर पर पेश कर रहे हैं और वे गुजरात में हुए विकास के लिए मिले श्रेय को भुनाने की कोशिश कर रहे हैं. पिछले दो आम चुनाव के नतीजों का रुझान देखें, तो यह मालूम पड़ता है कि भारत में अब भी कांग्रेस को दिल्ली के लिए सत्ता की नैसर्गिक पार्टी के तौर पर देखा जाता है.
मोदी को इस परंपरा को भी तोड़ना होगा. जब वे कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण की बात कर रहे थे, तो उनके निशाने पर न केवल कांग्रेस के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार की गलतियां और कमजोरियां थीं बल्कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की फैसले न कर पाने की नाकामी भी थी. मोदी कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी और उनके बेटे राहुल को लेकर भी तल्ख थे. लेकिन यह वही जगह है जहां मोदी खुद को मुश्किल हालात में पाते हैं. मोदी को यह अच्छी तरह से पता है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नेतृत्व उनसे पूरी तरह से खुश नहीं है.
* संघ की आवाज : यह बात ध्यान देने लायक है कि प्रधानमंत्री बनने के लिए उनके संघर्ष के पहले चरण में चुनाव अभियान समिति की कमान मिलने में संघ का समर्थन बेहद ही महत्वपूर्ण था. संघ में यह महसूस किया जाने लगा है कि गुजरात भाजपा एक व्यक्ति के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गयी है. इतना ही नहीं बल्कि संघ की आवाज को भी अनसुना किया जा रहा है.
जबकि आरएसएस ही वह संगठन था, जिसकी वजह से मोदी राजनीति में आ सके. संघ के एक वरिष्ठ सदस्य ने हाल ही में मुझसे कहा कि मोदी को जो समर्थन हासिल है, उसकी वजह से ही नेतृत्व अपने मुद्दों को दरकिनार कर खुल कर उनके समर्थन में आ सका. ठीक उसी वक्त गोवा में पार्टी कार्यकारिणी के बैठक के दौरान यह साफ तौर पर दिख रहा था कि भाजपा नेतृत्व को मोदी की नियुक्ति को लेकर पार्टी कार्यकर्ताओं के दबाव से भी रूबरू होना पड़ रहा है.
* गुजरात दंगे : अगर मोदी उन मुद्दों पर उन्हें निराश करते हैं तो जिस जमीन पर वह खड़े हैं, वह खिसक भी सकती है. उस तनी हुई रस्सी पर वापस लौटते हैं जिस पर मोदी संतुलन साधने की कोशिश में खड़े दिखाई दे रहे हैं. एक तरफ अगर वे हिंदुओं के मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं देते हैं, तो उन्हें अपनी सियासी जमीन खोने का खतरा उठना पड़ सकता है.
दूसरी तरफ मुश्किल इस बात की भी है कि अगर वे तुलनात्मक रूप से संकीर्ण माने जानेवाले मुद्दों से जुड़ते हैं, तो उन्हें राष्ट्रीय नेता नहीं माना जायेगा. कांग्रेस पार्टी भी इस अवसर के इंतजार में है कि वह मतदाताओं को 2002 के गुजरात दंगों में उनकी भूमिका को लेकर लगे आरोपों की याद दिलायेगी. सियासत के इन ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर संतुलन साधना मोदी के लिए एक मुश्किल भरी चुनौती साबित होने जा रहा है. आम चुनाव के आखिरी मुकाबले में पहुंचने से पहले मोदी का पतन भी हो सकता है.
(साभार: बीबीसी)
* गुजरात से दिल्ली का सफर होगा वाया लखनऊ
सियासी तौर पर अहम राज्य उत्तर प्रदेश को जीतना नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षा के केंद्र में होगा, लेकिन फिलहाल यहां हालात ऐसे हैं कि हवा का रुख पूरी तरह भाजपा के खिलाफ है.