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नक्सल विरोधी नीतियों में खामी

।।प्रकाश सिंह।।(पूर्व महानिदेशक, बीएसएफ)छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं के काफिले पर हमले के बाद नक्सल समस्या से निपटने में सरकार की ढ़ुलमुल नीति फिर उजागर हो गयी है. इतने बड़े हमले के बाद भी गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा अपना अमेरिका दौरा निजी कारणों से जारी रखने से जाहिर होता है कि मंत्री महोदय इसे […]

।।प्रकाश सिंह।।
(पूर्व महानिदेशक, बीएसएफ)
छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं के काफिले पर हमले के बाद नक्सल समस्या से निपटने में सरकार की ढ़ुलमुल नीति फिर उजागर हो गयी है. इतने बड़े हमले के बाद भी गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे द्वारा अपना अमेरिका दौरा निजी कारणों से जारी रखने से जाहिर होता है कि मंत्री महोदय इसे लेकर गंभीर नहीं हैं. आंतरिक सुरक्षा से जुड़े मंत्रालय की कमान संभाल रहे व्यक्ति को इतनी बड़ी घटना के बाद यहां होना चाहिए था. इस हमले के बाद प्रधानमंत्री तक ने छत्तीसगढ़ का दौरा करना जरूरी समझा, लेकिन गृहमंत्री को यह जरूरी नहीं लगा. इसके उलट, ब्रिटेन में अपने एक सैनिक पर आतंकी हमले की खबर मिलते ही वहां के प्रधानमंत्री विदेशी दौरा छोड़ कर लौट आते हैं. यह सुरक्षा के प्रति भारत और अन्य देशों के सोच में अंतर को दिखाता है.

हालांकि शिंदे की गैरमौजूदगी को लेकर विपक्षी दल उनकी आलोचना कर रहे हैं, पर आलोचना से ही हालात नहीं बदलेंगे. नक्सलवाद के प्रति इस सरकार की नीति शुरू से ही विरोधाभासों से भरी रही है. जब तत्कालीन गृह मंत्री चिदंबरम ने नक्सलवाद के खिलाफ कड़े कदम उठाने की पहल की, तो कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह विकास के नाम पर इसकी आलोचना करने लगे. इस कारण नक्सलवाद के प्रति कोई कठोर कदम नहीं उठाया जा सका. नक्सली समस्या को खत्म करने के लिए ‘ऑपरेशन ग्रीन हंट’ चलाया गया, पर कुछ राज्यों और राजनीतिक दलों के विरोध के कारण इसे बंद कर देना पड़ा. ऐसे अधूरे प्रयासों से कुछ हासिल नहीं हो सकता है. एक ओर प्रधानमंत्री नक्सलवाद को आंतरिक सुरक्षा के समझ सबसे बड़ी चुनौती बताते रहे हैं, दूसरी ओर इस समस्या के समाधान के लिए सरकार के मंत्रियों में ही एक राय नहीं है. वैसे, कांग्रेसी नेताओं की हत्या के बाद अब शायद हालात बदलें.

देश में नक्सली समस्या नयी नहीं है, लेकिन इससे निपटने में सरकार के सुस्त रवैये के कारण नक्सलियों का प्रभाव क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ता गया. आज हालत यह हो गयी है कि देश का एक चौथाई हिस्सा इसकी चपेट में है. छत्तीसगढ़ में बड़े नक्सली हमले पहले भी हुए हैं. राज्य में 2010 में सीआरपीएफ के 76 जवान नक्सलियों के हमले में शहीद हो गये थे. ऐसे में सवाल उठता है कि पहले के हमलों से हमने क्या सबक लिया? कुछ दिनों के शोर-शराबे के बीच अतिरिक्त सुरक्षा बलों की तैनाती कर जिम्मेवारी से मुक्ति पा ली गयी.

अक्सर देखने में आता है कि नक्सली कुछ दिनों की शांति के बाद बड़े हमले को अंजाम देते हैं. इसके बावजूद अतिरिक्त सावधानी नहीं बरती जाती है. इस हमले के बाद भी सरकार नक्सलियों के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई करने का साहस दिखा पायेगी या नहीं, यह देखनेवाली बात होगी. हमले की जांच राष्ट्रीय जांच एजेंसी को सौंपने भर से भी हालात नहीं बदलेंगे. इस हमले से स्पष्ट है कि सुरक्षा व्यवस्था में कई स्तरों पर अनियमितता बरती गयी. नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में एसओपी (स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसेड्योर) के दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया गया. खुफिया एजेंसियां नक्सलियों के इतने बड़े जमावड़े का पता लगाने में नाकाम रहीं. लेकिन अब ऐसे सवालों के जबाव ढ़ूढ़ने की बजाय नक्सलियों के खात्मे के लिए ठोस रणनीति पर विचार किया जाना चाहिए.

कोई भी निर्णायक कदम उठाने और उसके बेहतर परिणाम हासिल करने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच बेहतर तालमेल जरूरी है. नक्सल समस्या अंतरराज्यीय समस्या है. ऐसे में इससे जूझ रहे सभी राज्यों को मिल कर समग्र तौर पर नक्सलियों के खिलाफ कार्रवाई की दिशा में काम करना चाहिए. नक्सली किसी भी सूरत में विकास कार्यो को अंजाम तक नहीं पहुंचने देना चाहते. इसलिए यह मान लेना सही नहीं होगा कि केवल विकास के सहारे ही नक्सली समस्या खत्म हो जायेगी. इसके लिए रणनीति के साथ पुलिसिया कार्रवाई भी बेहद जरूरी है. दोनों मोरचे पर एक साथ काम करके ही नक्सलियों को परास्त किया जा सकता है.

जहां तक नक्सलियों के खिलाफ सेना के इस्तेमाल की बात है, ऐसा करना सही फैसला नहीं होगा. हर समस्या का समाधान सेना नहीं कर सकती है. इसके लिए पुलिस बलों का ही आधुनिकीकरण करने और बेहतर तकनीक का इस्तेमाल करने की जरूरत है. तकनीक का सटीक उपयोग कर जानमाल के नुकसान को भी कम किया जा सकता है.

छत्तीसगढ़ में हुए नक्सली हमले से साफ जाहिर है कि नक्सलियों को स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल है. इतना बड़ा हमला स्थानीय सहयोग के बिना संभव नहीं है. इससे यह भी जाहिर होता है कि इन क्षेत्रों में प्रशासन नाम की चीज नहीं है. नक्सलियों का प्रभाव उन्हीं इलाकों में बढ़ा है, जहां प्रशासनिक ढांचा चरमराया है. ऐसे में स्थानीय लोगों का भरोसा जीतने के लिए प्रशासनिक तंत्र को मजबूत करना होगा. प्रशासनिक ढांचे को दुरुस्त किये बिना नक्सलियों का खात्मा नहीं हो सकता है. जिन इलाकों को नक्सली प्रभाव से मुक्त कराया जाये, वहां प्रशासन को अपना काम तेजी से करना चाहिए, पर ऐसा नहीं हो रहा है.

केंद्र सरकार को अपनी नक्सल विरोधी नीति में भी बदलाव करना होगा. हमले को रोकने के साथ ही नक्सलियों के शीर्ष नेताओं को पकड़ने और खत्म करने की रणनीति पर भी अमल करना होगा. इसके लिए इन इलाकों में खुफिया तंत्र को बेहद मजबूत करने की जरूरत है. साथ ही केंद्रीय अर्धसैनिक बल और स्थानीय पुलिस के बीच बेहतर तालेमल जरूरी है. 2010 में दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के जवानों के साथ महज एक पुलिसकर्मी मौजूद था. स्थानीय पुलिस को क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति के बारे में बेहतर जानकारी होती है.

सशक्त पुलिस बल के बिना नक्सलवाद को खत्म नहीं किया जा सकता है. आंध्र प्रदेश में पुलिस की सक्रियता से नक्सली आंदोलन को कमजोर किया जा सका है. दूसरे राज्यों को भी इससे सबक लेने की जरूरत है. आंध्र प्रदेश पुलिस ने खुफिया तंत्र को मजबूत किया और नक्सली संगठन में घुसपैठ कर इसे रोकने में कामयाबी हासिल की. अर्धसैनिक बल केवल सहायता प्रदान कर सकते हैं.

यह देश का दुर्भाग्य है कि यहां नक्सली समस्या भी राजनीति का औजार बन गयी है. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण ही नक्सलवाद विकराल रूप धारण करता जा रहा है. अगर अब भी इस समस्या के समाधान के लिए ठोस पहल नहीं की गयी, तो इससे भी बड़े हमले होते रहेंगे और नक्सलियों का मनोबल बढ़ता रहेगा. छत्तीसगढ़ की घटना से सबक लेते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को मिल कर एक ठोस नीति पर अमल का प्रयास करना चाहिए. साथ ही राजनीतिक दलों को भी संकीर्ण स्वार्थ से ऊपर उठ कर इस गंभीर होती समस्या के खात्मे के लिए मिल कर काम करना होगा. (बातचीत पर आधारित)

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