।।सईद नकवी।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
वह मेरे अध्ययन कक्ष में एक आक्रामक अधिकार की भावना के साथ, जो इन दिनों के युवा टीवी पत्रकारों की एक पहचान-सी बन गयी है, दाखिल हुई. यह आक्रामता आजकल के कर्णभेदी टीवी चैट शो के लिए खासतौर से अनुकूल है. क्या हमारे प्रधानमंत्री को उन नवाज शरीफ का निमंत्रण स्वीकार करना चाहिए, जिन्होंने वाजपेयी जी को बस से लाहौर आने का निमंत्रण दिया था और फिर कारगिल में उनकी पीठ में छुरा घोंप दिया? उसने सवाल पूछना शुरू किया.
जैसा कि कोई भी महसूस कर सकता है, तथ्यों के मामले में वह दुरुस्त थी. उस शाम मैं चकित रह गया, जब उसे मैंने टेलीविजन पर आ रहे शो ‘कारगिल का हत्यारा’ में लगभग दहाड़ते हुए सुना. यह शो नवाज शरीफ के बारे में था. ईश्वर का शुक्र है कि इस संक्रमण का प्रसार नहीं हुआ. हां, एक-दो ऐसे जरूर थे, जिन्होंने आक्रामकता की गाड़ी पर सवार होने की कोशिश की, यह सोचते हुए कि कहीं वे टीआरपी बटोरने के मामले में पीछे न रह जायें, लेकिन पीछे बैठे कुछ लोगों ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया.
चूंकि नवाज शरीफ ने भारत के साथ मैत्री के अपने वादों को बार-बार 1999, यानी अमृतसर-लाहौर बस यात्र के साथ जोड़ा है, इसलिए यह स्वाभाविक है कि यह यात्रा बार-बार बहस के केंद्र में लायी जायेगी. चूंकि मैं उस बस में था, इसलिए यह स्पष्ट करना काम का होगा कि अमृतसर-लाहौर की यात्रा दरअसल हुई ही नहीं थी.
हां, यह सही है कि वाजपेयी और उनके प्रभावशाली शिष्टमंडल के साथ एक बस अमृतसर से रवाना हुई थी, लेकिन यह यात्र वाघा बॉर्डर पर आकर खत्म हो गयी थी. प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनके सूचना मंत्री मुशाहिद हुसैन ने वाजपेयी अटारी और वाघा के बीच के एक नो-मैन्स लैंड में वाजपेयी की अगवानी की थी. इस सुरक्षित स्थान से दोनों प्रधानमंत्री पाकिस्तानी सेना के एक हेलीकॉप्टर पर सवार होकर लाहौर के वीआइपी सरकारी गेस्ट हाउस तक पहुंचे थे. प्रधानमंत्री वाजपेयी के शिष्टमंडल में शामिल बाकी लोग कारों में बैठ कर लाहौर पहुंचे थे. 25 किलोमीटर के महामार्ग के चारों ओर कोई भीड़ मौजूद नहीं थी.
जाहिर है, पाकिस्तान में सुरक्षा तंत्र को लेकर कुछ तनाव था. यह सुरक्षा तंत्र भारतीय प्रधानमंत्री की बाधा और मुश्किलों से पूरी तरह रहित यात्र की गारंटी नहीं दे पाया था. खास कर उस सूरत में जब सड़क मार्ग के दोनों ओर लोगों को जमा होने की अनुमति दी जाती. किसी तरह की ऊंच-नीच से बचने का सबसे आसान रास्ता था कि वाजपेयी को ‘नो-मैंस लैंड’ से आगे सड़क के रास्ते न ले जाकर हवाई जहाज या हेलीकॉप्टर से ले जाया जाये. लाहौर में इसलामिक कट्टरपंथियों द्वारा इकट्ठा किये गये लोगों को संभाल पाने में प्रशासन नाकाम था.
यह ध्यान रखिए कि यह 9/11 और जिहादियों के खिलाफ छेड़े गये वैश्विक युद्ध से पहले का वक्त था. वाजपेयी एक भव्य मुद्रा अपनाते हुए मीनार-ए-पाकिस्तान तक जरूर गये थे, लेकिन इस सहृदयता के प्रदर्शन के जवाब में जमात-ए-इसलामी ने मीनार की सफाई की थी, ताकि इस पर किसी किस्म का दाग न लगा हुआ रह गया हो.
मई, 1998 में दोनों देशों द्वारा किये गये परमाणु परीक्षणों के बाद दोनों देशों के नेतृत्व पर इस बात को लेकर भीषण अंतरराष्ट्रीय दबाव था कि वे मित्रता और परमाणु उत्तरदायित्व की संधि में बंधे नजर आयें. यही कारण है कि लाहौर घोषणापत्र नवाज शरीफ के दस्तखतवाला एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. यह दस्तखत उस राष्ट्रीय मूड और स्थितियों के बीच किया गया, जिस पर नवाज शरीफ का ज्यादा नियंत्रण नहीं था.
पीछे मुड़ कर देखने पर यह साफ महसूस किया जा सकता है कि दोनों देशों पर इतना ज्यादा दबाव था कि शिखर वार्ता की पूर्व तैयारी भी अधूरी और नाकाफी थी. जहां तक नवाज शरीफ का सवाल है, वे सेना समेत दूसरे खिलाड़ियों को वार्ता की मेज पर नहीं ला पाये थे. वाजपेयी को उम्मीद थी कि शरीफ इस स्थिति से किसी तरह निपट लेंगे.
यही कारण है कि परवेज मुशर्रफ ने जब पाकिस्तान को अपने नियंत्रण में लिया, तो वे तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के पसंदीदा लोगों में से नहीं थे. बिल क्लिंटन ने उस समय परवेज मुशर्रफ की कान खींची थी, जब उन्होंने नयी दिल्ली में तो पांच दिन बिताये, लेकिन इसलामाबाद को उन्होंने महज पांच घंटे का वक्त दिया.
हां यह सही है कि आगे चल कर मुशर्रफ जॉर्ज डब्ल्यू बुश के एक तरह से पालतू बन गये. उन्होंने अफगान युद्ध की लपटों को अपने ऊपर सहा, जिसका चरम लाल मसजिद हादसे के बाद दिखा. जब पाकिस्तान अपने इतिहास के किसी भी दौर की तुलना में सबसे प्रबल अमेरिका विरोधी भावना की जद में था, उस समय शरीफ पर अमेरिका के करीबी होने का ठप्पा नहीं लगा. वे इससे बच गये. यह तथ्य और इसके साथ पंजाब के भीतर मौजूद वर्चस्व की भावना ने मिल कर शरीफ को इमरान खान पर जीत दर्ज करने में मदद पहुंचायी, जो शरीफ की तुलना में भी कहीं ज्यादा अमेरिका विरोधी माने जाते हैं. दरअसल, नवाज शरीफ के पक्ष में पाकिस्तान में आया जनादेश मुख्यत: वहां के पंजाब प्रांत से आया जनादेश है. यह एक ऐसी स्थिति है जो केंद्राभिसारी (केंद्र से बाहर की ओर छिटकने को प्रेरित) बलों के मजबूत होने के लिए काफी मुफीद है.
यह नवाज शरीफ की राजनीतिक समझदारी की मिसाल है कि उन्होंने इमरान खान की ओर हाथ बढ़ाया है. लेकिन कराची में एमक्यूएम (मुत्ताहिदा कौमी मूवमेंट) के पक्ष में आया फैसला एक टकराव की स्थिति को जन्म दे रहा है. एमक्यूएम के अलताफ हुसैन ने शरीफ को बधाई दी है, लेकिन उन्हें इस बात की तकलीफ है कि उनके इस भाव प्रदर्शन का शरीफ की ओर से समुचित जवाब नहीं आया. अलताफ हुसैन की यह फरियादी आवाज कि ‘हमें जाने दो, अगर तुम हमारे चुनाव परिणामों से खुश नहीं हो’ वर्ष 2000 में लंदन के एक्टन टाउन हॉल के बाहर दिये गये भाषण का ही जैसे दोहराव है. उन्होंने उस वक्त कहा था कि अगर हम सभी को पाकिस्तान में बराबरी का हक नहीं है, तो पाकिस्तान एक ऐतिहासिक भूल है. उस समय बलूच, पश्तून और सिंधी नेता उनके मंच पर मौजूद थे. आज वे बिल्कुल अकेले हैं. उस खिसियानी बिल्ली की तरह, जिसे हाशिये पर डाल दिया गया है. एमक्यूएम के लिए यह एक तरह से अपने अस्तित्व को बचाये रखने के संघर्ष की घड़ी है.
(‘संडे गाजिर्यन’ से साभार)