।।अंजलि सिन्हा।।
(महिला मामलों की जानकार)
दुनिया की ‘सबसे खूबसूरत’ महिला के तौर पर प्रोजेक्ट की जानेवाली अमेरिकी अभिनेत्री, फिल्म निर्देशक एवं पटकथा लेखक एंजेलीना जॉली, जो वहां की सबसे महंगी अभिनेत्रियों में शुमार की जाती हैं, अपने पार्टनर/पति के ब्राड पिट के साथ सबसे महंगे मॉडल के तौर पर भी चुनिंदा उत्पादों की मार्केटिंग में सामने आयी हैं, जिनके जुड़वां संतानों की पहली तस्वीरें पाने के लिए अग्रणी पत्रिकाएं 14 मिलियन डॉलर उड़ेल देती हैं, के गत सप्ताह दुनिया के कई अखबारों में प्रकाशित एक आलेख ‘माई मेडिकल चॉइस’ से अनेक प्रश्न उभरे हैं.
क्या चिकित्सा विज्ञान इतनी ऊंचाइयों पर पहुंचा है कि वह किसी खास किस्म के कैंसर होने की संभावना को अचूक बता सकता है? और क्या कैंसर की किसी संभावना से बचने के लिए शरीर का वह अंग निकाल देना ही एकमात्र विकल्प है? क्या किसी बीमारी का हौवा दिखा कर आबादी के एक विशाल हिस्से को गैरजरूरी परीक्षणों के लिए मजबूर करना, जहां वह कॉरपोरेट तंत्र के एकाधिकार के चलते बीस गुना अधिक खर्च करने के लिए मजबूर हो जाये, किसी भी रूप में उचित ठहराया जा सकता है? और आखिर जीन, जिन्हें जीवनसूत्र भी कहा जाता है और जो प्रकृति द्वारा निर्मित हैं, को पेटेंट कर उसे बड़े-बड़े थैलीशाहों के मुनाफे का जरिया बना देना, कहां का न्याय है?
प्रकाशित आलेख में यही था कि फरवरी के मध्य में जॉली ने अपने दोनों स्तन निकालने की सजर्री (मास्टैक्टॉमी) करायी, जब उन्हें बताया गया कि उन्हें कैंसर होने की 87 फीसदी संभावना है. डॉक्टरों के मुताबिक दोषपूर्ण बीआरसीए1 जीन के चलते ऐसा कैंसर होने की स्थिति बनती है. हालांकि स्तनों के निकाले जाने पर यह स्पष्ट हुआ कि उसमें कैंसर की पेशियों के कोई चिह्न नहीं मिले. इस सजर्री तथा उसके बाद अंजाम दी गयी कॉस्मेटिक सजर्री, जिसमें इंप्लांट लगाये गये, के पूरे होने के दो हफ्ते बाद उन्होंने लेख में लिखा कि किस तरह खून की जांच से इसका पता लगाया जा सकता है. अपने स्तनों को निकालने के निर्णय के लिए उन्होंने नारीवादी विमर्श का जम कर इस्तेमाल किया, जिसमें ‘च्वॉइस’ की बात थी ही, साथ में अपने शरीर पर अपने अधिकार की बात भी थी.
एंजेलिना जॉली के इस लेख से दुनिया भर में हंगामा मचना ही था, टाइम पत्रिका के 27 मई, 2013 के अंक की कवर स्टोरी है ‘द एंजेलीना इफेक्ट’, जिसमें उसने जेनेटिक परीक्षण को सुर्खियों में लाने के लिए उसकी तारीफ की, तो ‘पीपल’ नामक पत्रिका ने भी अपने मुखपृष्ठ पर एंजेलीना की तसवीर के साथ ‘माय मेडिकल च्वॉइस’ का शीर्षक दिया, ब्रिटेन के विदेश सचिव विल्येम हेग ने जॉली को लोगों के लिए प्रेरणा घोषित किया.
भारत में चिकित्सक समुदाय के जरिये अलग किस्म की प्रतिक्रिया देखने को मिली, जिसमें जीन संबंधी गड़बड़ियों से होनेवाले कैंसर से चिंतित महिलाओं को आश्वस्त करते हुए कहा गया कि भारत में 400-500 मामलों में से एक-दो में ही बीआरसीए1 जीन की संभावना दिखती है, इसलिए उन्हें 50 हजार रुपये का यह परीक्षण करने की जरूरत नहीं है. हां, महिलाओं को यह सलाह अवश्य दी गयी कि उन्हें साल में एक बार सिर्फ मेमोग्राफी टेस्ट करानी चाहिए.
विडंबना कही जायेगी कि एक्स-रे जैसे विकिरण/ रेडिएशन के चलते लोग लंबे दौर में खुद शरीर में कैंसर को पनपने का मौका देते हैं, यह चिकित्सकों ने लोगों को नहीं बतायी और न ही इस बात को रेखांकित किया कि साल में एक बार ही सही मेमोग्राफी करवाने में महिलाएं अपने आप को ऐसे ही बीमारियों का एक्सपोज करती हैं. अमेरिका में हर साल हजारों महिलाएं मेमोग्राफी जैसे परीक्षणों के चलते शरीर में कैंसर जैसी बीमारियों को पनपने का मौका देती हैं.
बहरहाल, अगर हम जॉली के इस ‘स्वत:स्फूर्त’ एवं ‘साहसी निर्णय’ की तरफ लौटें, तो इस कहानी से जुड़े कई अन्य ‘संयोगों’ की भी पड़ताल कर सकते हैं, जिनके बारे में मुख्यधारा के मीडिया में चर्चा नहीं हो सकी है. पहले ‘पीपल’ पत्रिका के आलेख को लें, यह वही पत्रिका है, जिसने ‘हैलो’ नामक पत्रिका के साथ मिल कर जॉली को 14 मिलियन डॉलर तीन साल पहले दिये थे, जिसका अंक तीन सप्ताह पहले तैयार हो जाता है. दूसरा संयोग, बीआरसीए1 नामक जीन का पेटेंट जिस ‘मिरियाड जेनेटिक्स’ कंपनी के पास है, उसके शेयर्स की कीमत जॉली का लेख प्रकाशित होने के बाद अचानक उछली. तीसरा संयोग यह भी कह सकते हैं कि अमेरिका का सुप्रीम कोर्ट आनेवाले दिनों में इस स्तन कैंसर के केंद्र में कहे जानेवाले बीआरसीए 1 जीन के पेटेंट को लेकर अपना निर्णय सुनानेवाला है. अमेरिका में नागरिक आजादी के लिए सक्रिय ‘अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन’ एवं ‘पब्लिक पेटेंट फाउंडेशन’ जैसी संस्थाओं ने कॉरपोरेट सम्राटों द्वारा जीन पेटेंट करने के खिलाफ वर्ष 2009 में ही याचिका डाली है, उनका साफ मानना है कि जिस चीज को प्रकृति ने हमें दिया है, उसे निजी मुनाफे के लिए कैसे पेटेंट किया जा सकता है? अगर हम विस्तार में जाएं, तो यह भी जान सकते हैं कि इस जीन के परीक्षण का एकाधिकार जिस कंपनी के पास है, वह इस परीक्षण के लिए पहले तीन हजार डॉलर लेती थी, लेकिन अब चार हजार लेने लगी है, जबकि बाजार में अन्य जीन का परीक्षण शुल्क 200 डॉलर है. अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने स्वास्थ्य संबंधी जिन नीतियों का ऐलान किया है उसमें अगर आप वहां रजिस्टर्ड हैं तो बीआरसीए1 का जो भी खर्च आपको देना होगा, उसे सरकार ही चुकता करेगी. एक तरह से कॉरपोरेट क्षेत्र को मालामाल करने का यह अच्छा नुस्खा साबित हो सकता है.
कल्पना करें कि अगर अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने मिरियाड के परीक्षण अधिकार संबंधी दावे को सही माना, तो महज परीक्षणों के नाम पर कंपनी कई बिलियन डॉलर की कमाई कर सकती है, क्योंकि जॉली के इस ‘साहसी निर्णय’ को पढ़ कर कैंसर के डर से बहुत सी महिलाएं मिरियाड के लैब में पहुंच सकती हैं, जिनमें से कई ‘दुनिया की ‘सबसे खूबसूरत महिला’ से प्रभावित होकर अपने स्तनों को निकालने का गैरजरूरी निर्णय ले सकती हैं और अपने शरीर को अधिक विपरीत प्रभावों के लिए छोड़ सकती हैं.
जॉली ने अपने में स्तन कैंसर विकसित होने की ‘87 फीसदी संभावना’ की बात की. यह समूची आबादी पर लागू नहीं होता. नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट के आंकड़ों के मुताबिक महज 1200 में से एक में यह संभावना कही जा सकती है. स्पष्ट है कि लोगों की बीमारियों से होनेवाले मुनाफे पर टिका कैंसर उद्योग नारीवादी विमर्श का दोहन करके महिलाओं के शरीर को कॉरपोरेट तंत्र का शिकार बनने के लिए तो छोड़ सकता है, पर स्त्रियों को जागरूक कर उन्हें ऐसे परीक्षणों से बचने की सलाह नहीं दे सकता.