।। रविभूषण।।
(वरिष्ठ साहित्यकार)
आर्थिक संवृद्धि-समृद्धि को सर्वस्व मान कर उस पर समस्त ध्यान केंद्रित करनेवाले नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के अर्थशास्त्रियों, सिद्धांतकारों-प्रवक्ताओं के यहां ‘नैतिक अर्थशास्त्र’ का कोई स्थान नहीं है. अब अर्थशास्त्र ने अपना एक नया आचार-शास्त्र, नीतिशास्त्र विकसित कर लिया है, जिसका नैतिकता और नैतिक मूल्यों से कोई रिश्ता नहीं है. स्वाभाविक है बेशर्मी, ढिठाई और थेथरई का फैलना. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था का सर्वाधिक कमजोर पक्ष और दुगरुण यह है कि उसने पुरानी अर्थव्यवस्था को फालतू व अनुपयोगी सिद्ध करने की कोशिश की है. मानव-जीवन और सामाजिक जीवन को अब अर्थशास्त्र सर्वाधिक प्रभावित कर रहा है. बाजार उसका सबसे बड़ा हथियार है, जो हमारे आचार-विचार, सोच-समझ, बुद्धि-विवेक सबको नष्ट-भ्रष्ट कर रहा है.
नैतिकता का प्रश्न सामाजिक-सांस्कृतिक है. जिसे समाज की परवाह नहीं है, उसके लिए नैतिक-अनैतिक का प्रश्न बेमानी है. प्रश्न ‘स्व’ और ‘अन्य’ के बीच के, ‘व्यक्ति’ और ‘समाज’ के बीच के संबंध का है, जो पहले की तुलना में आज कहीं अधिक सिकुड़ रहा है. इस संबंध के सिकुड़ने या क्रमश: लुप्त होते जाने से कई प्रकार की मुश्किलें खड़ी हो रही हैं. राजनीति और वर्तमान अर्थव्यवस्था द्वारा एक नयी संस्कृति विकसित हो रही है, जिसे अपराध, बलात्कार, भ्रष्टाचार की संस्कृति कह सकते हैं. यह नैतिक पतन का दौर है. समय-समय पर एक-दूसरे से नैतिकता की मांग करने और नैतिकता की दुहाई देनेवाले राजनेताओं की नैतिकता में क्या सचमुच कोई संबंध है? 1991 की आर्थिक नीतियों के बाद भारत में जिस नये मध्यवर्ग का द्रुत गति से विकास हुआ, वह मुख्यत: उपभोक्ता वर्ग है. 25 करोड़ की आबादी वाला भारतीय मध्य वर्ग एक उधेड़बुन में है. वह पूरी तरह न तो नैतिकता के साथ है और न उसे छोड़ रहा है. स्वत:स्फूर्त ढंग से दिल्ली में युवाओं की भीड़ बलात्कारी के खिलाफ सड़कों पर उतरती है, पर संस्थाओं के क्षरण, सरकारी झूठ और लूट-महालूट को लेकर वह अधिक परेशान नहीं होती.
नैतिकता वास्तविक यथार्थ और दुनिया से जुड़ी होती है. आभासी यथार्थ और दुनिया में उसका स्थान न के बराबर है. आंतरिक दुनिया का बाह्य दुनिया से संबंध-विच्छेद हो रहा है और चालीस-पचास वर्ष पहले की घटनाओं से हम विमुख हो चुके हैं. अतीत के उदाहरण अब कम काम में आ रहे हैं. वाटरगेट और कोलगेट में, एफबीआइ और सीबीआइ में, अमेरिका के राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह में अंतर है. वाटरगेट मामले में 30 अप्रैल 1973 को निक्सन ने अपने दो सर्वाधिक महत्वपूर्ण सहायकों-एचआर हाल्डमैन और जॉन एहरलिचमैन को इस्तीफा देने को कहा था. मनमोहन सिंह ने पवन कुमार बंसल और अश्वनी कुमार से इस्तीफा नहीं मांगा. उस समय अमेरिका के महान्यायवादी (अटॉर्नी जनरल) एलियन रिचर्डसन और उप महान्यायवादी विलियम रकेलशंस को भी इस्तीफा देना पड़ा था. वाटरगेट मामले में निक्सन ने इस्तीफा दिया था 9 अगस्त 1974 को. ‘वाशिंगटन पोस्ट’ के दो पत्रकारों -बॉब वुडवर्ड और कार्ल बर्नस्टीन ने वाटरगेट को ‘निम्नस्तरीय चोरी’ कहा था. अपने ही देश में देखें, तो 1957 के मूंदरा स्कैंडल में तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णमाचारी ने अपने पद से त्याग पत्र दिया था. लाल बहादुर शास्त्री ने रेल मंत्री रहते हुए रेल दुर्घटना के लिए अपने को जिम्मेदार मान कर इस्तीफा दिया था. मंत्रलय वही है, पर क्या हम लालबहादुर शास्त्री और पवन कुमार बंसल की तुलना करना चाहेंगे? पद को सबकुछ मानने वाले क्या सचमुच नैतिक हो सकते हैं? पचास और साठ के दशक में भ्रष्टाचार कम था. नैतिक मूल्य शेष थे. अब भ्रष्टाचार अधिक है, नैतिक मूल्य गायब हैं.
कर्नाटक में भाजपा की हार भ्रष्टाचार के कारण हुई, न कि विचारधारा के कारण. मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी कर्नाटक में भाजपा की विचारधारा को खारिज होते देखते हैं. नवउदारवादी अर्थव्यस्था के दौर में ही ‘सभ्यता का संघर्ष’ और ‘इतिहास का अंत’ का विचार फैलाया गया था, जिसकी वास्तविक सच्चई से अब सब अवगत हैं. लड़कियों से की जानेवाली छेड़छाड़ और कोल ब्लॉक आवंटन की जांच-रिपोर्ट से की जानेवाली छेड़छाड़ के बीच क्या किसी प्रकार का कोई परोक्ष संबंध नहीं है? 2जी प्रकरण में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सामूहिक जिम्मेदारी थी और कोल ब्लॉक आवंटन में उनकी जिम्मेदारी निजी थी! 2जी घोटाले के प्रमुख आरोपी ए राजा का पक्ष जाने बिना मसौदा रिपोर्ट तैयार की गयी. राजा ने स्वीकारा है कि उन्होंने सभी फैसले मनमोहन सिंह, तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम और विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी से सलाह-मशविरा के बाद ही लिये थे. इस मामले में केवल ए राजा ही कैसे दोषी ठहरते हैं? 27 अगस्त 2012 को संसद में मनमोहन सिंह ने कोयला मंत्रलय का प्रभारी होने के नाते मंत्रालय द्वारा लिये गये सभी फैसलों की पूरी जिम्मेदारी स्वयं ली थी. कानून मंत्र अश्वनी कुमार के पक्ष में वे अंत तक खड़े रहे और यह कहते रहे ‘कानून मंत्री के इस्तीफे का सवाल ही नहीं उठता.’ अंत में दोनों केंद्रीय मंत्रियों- अश्वनी कुमार और पवन बंसल ने इस्तीफे दिये. नैतिक आधार पर और दबाव अथवा निर्देश पर इस्तीफे देने में अंतर है.
लगभग 17 वर्ष पहले अगस्त 1996 में हवाला घोटाले की जांच के समय तत्कालीन सीबीआइ निदेशक जोगिंदर सिंह को राजनीतिज्ञों से मेलजोल के कारण सुप्रीम कोर्ट की आलोचना सुननी पड़ी थी. जोगिंदर सिंह ने उस समय सुप्रीम कोर्ट से माफी मांगी थी. विनीत नारायण बनाम भारत संघ (यूनियन ऑफ इंडिया) मामले में 18 दिसंबर 1997 को (दिवंगत) न्यायमूर्ति जेएस वर्मा के निर्णय का पालन नहीं हुआ और सीबीआइ की जांच में राजनीतिक दखलंदाजी बनी रही. शीर्ष पदों पर बैठे कुछ लोगों को नैतिकता से कोई मतलब नहीं है. बड़े अफसर, संयुक्त सचिव, मंत्री, सीबीआइ के निदेशक, महान्यायवादी- सब किसी के बचाव में एक साथ खड़े हो जाते हैं. नैतिक पक्ष कमजोर होने पर ही ऐसा घटित होता है. क्या आज का भारत नैतिक रूप से कमजोर होकर आगे बढ़ेगा? नैतिक पतन केवल ऊंचे स्तर पर ही नहीं है. वह सर्वत्र फैल रहा है. नैतिक मूल्यों के संकट में भारत फंसा हुआ है. प्रश्न यूपीए-2 और मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी, भाजपा और क्षेत्रीय पार्टियों की जीत-हार, उपलब्धियों-कमियों का नहीं है. बड़ा सवाल दूसरा है कि नैतिक पतन का यह दौर कब और कैसे समाप्त होगा?