।। प्रफुल्ल बिदवई ।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
– कई विकसित देश अब मोटरीकरण पर पछता रहे हैं और सिटी सेंटरों से कार को प्रतिबंधित कर रहे हैं. उन पर ज्यादा कर लगाया जा रहा है, ज्यादा पार्किग फीस वसूली जा रही है. –
यह कोई छोटी विडंबना नहीं है कि पिछले पांच वर्षों में जहां भारत में कारों की बिक्री दोगुनी हो गयी है, वहीं राष्ट्रीय आय में गरीबों की हिस्सेदारी घटी है. उच्च मध्यवर्ग के उपभोक्तावाद और व्यक्तिगत गतिशीलता के अभिजात्य विचार तथा कारों के प्रति उसके आकर्षण की वजह से ऑटोमोबाइल क्षेत्र भारत का सबसे तेजी से बढ़ता हुआ उद्योग है.
ऑटोमोबाइल के प्रति इस जबरदस्त आकर्षण के कारण यह तय है कि कारों की बिक्री में दशक में पहली बार आयी छह प्रतिशत की गिरावट क्षणिक होगी. यूटिलिटी वाहनों विशेषकर स्पोर्ट यूटिलिटी वाहनों (एसयूवी) की बिक्री में 52 फीसदी की बढ़ोतरी इस गिरावट की वैसे भी भरपायी कर देती है.
एसयूवी भारी मात्र में ईंधन गटकनेवाले, सड़कों का बड़ा भाग घेरनेवाले और ट्रकों के बराबर धुआं उगलने वाले वाहन होते हैं. चूंकि वे सामान्य तौर पर डीजल पर चलते हैं, इसलिए उनसे निकलने वाला धुआं कहीं ज्यादा हानिकारक होता है. इसमें खतरनाक वायुकण भी मिले होते हैं. भारत दुनिया में एसयूवी वाहनों की बिक्री के मामले में दूसरा सबसे तेजी से बढ़ता हुआ बाजार है.
भारत में डीजल की कीमत पेट्रोल से काफी कम है. आज भारत में कुल कार बिक्री के 55 फीसदी डीजल पर चलते हैं. यह 2002 के 10 प्रतिशत की तुलना में कहीं ज्यादा है. इसी वजह से और निजी वाहनों के प्रसार के कारण ज्यादातर शहरों में खतरनाक वायुकणों और सल्फर और नाइट्रोजन के आक्साइड्स की मात्र काफी तेजी से बढ़ी है.
सर्वे किये गये 190 में से 188 शहरों में प्रदूषण का स्तर मान्य मानक से कहीं ज्यादा है. न सिर्फ मुंबई, दिल्ली और कोलकाता जैसे बड़े शहर बल्कि सूरत, फरीदाबाद, अलवर, मेरठ और नगांव (असम) जैसे छोटे शहरों में भी खतरनाक वायुकणों का स्तर 60 माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर के मान्य स्तर से ज्यादा है. छोटे शहर सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड के प्रदूषण के मामले में भी अग्रणी हैं.
2002 में दिल्ली ने सार्वजनिक बसों, टैक्सियों और तिपहिया वाहनों में कंप्रेस्ड नैचुरल गैस (सीएनजी) के इस्तेमाल की ओर रुख किया. लेकिन, सड़कों पर वाहनों की लगातार बढ़ती संख्या के कारण इसके फायदे पीछे छूट गये हैं. दिल्ली में खतरनाक वायुकणों का 261 माइक्रोग्राम्स का मौजूदा स्तर सीएनजी पूर्व दिनों से भी बदतर है.
शहरी भारत का वायु प्रदूषण के कारण दम घुट रहा है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की हालिया ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीजेज रिपोर्ट में स्थिति को बेहद गंभीर बताते हुए कहा गया है कि प्रदूषण भारत में मृत्यु का पांचवा सबसे बड़ा कारण है. वायु प्रदूषण कई रोगों जैसे कैंसर, डायबिटीज, हृदय रोग, तनाव और बच्चों में सांस संबंधी एलर्जी का कारण बनता है. इसमें विकलांगता के कारण होने वाले कार्य के नुकसान, बढ़े हुए तनाव, फ्लाइओवर और कार पार्किगों के कारण शहरी सौंदर्य में विरूपता, सड़क हादसों से होने वाली मौतों और पैदल चलनेवालों तथा साइकिल चलानेवालों की असुरक्षा को जोड़ दिया जाये, तो आपको इस मोटर संस्कृति का भयावह प्रभाव साफ दिखायी देगा.
किसी परजीवी की तरह कार सड़क पर काफी स्थान घेरते हैं. सामान्यत: एक कार में दो लोग सवारी करते हैं, लेकिन यह 40 से 60 लोगों को ढोने वाली बस का एक तिहाई भाग घेरती है. भारतीय शहरों में कुल आवागमन का दस फीसदी कारों से होता है, लेकिन ये सड़क का तीन चौथाई भाग कब्जा कर लेती हैं. कई शहरों के यातायात में साइकिलों की हिस्सेदारी इतनी ही है, लेकिन सड़कों पर उनके लिए कोई जगह नहीं है और उन पर खतरा लगातार मंडराता रहता है.
सार्वजनिक स्थलों में कारों की मुफ्त पार्किग भारत का एक बड़ा घोटाला है. अगर कार मालिकों को मुख्य व्यापारिक स्थानों मे बाजार आधारित मूल्य पर किराया भरना होता, तो उन्होंने कार चलाना छोड़ दिया होता. फिर भी ज्यादातर शहर हास्यास्पद रूप से कम पार्किग फीस लेते हैं. रिहाइशी इलाकों में तो कार मालिक बेहद दबंगई से सड़कों का, यहां तक कि फुटपाथों का निजीकरण कर देते हैं, यह सीधे-सीधे अपराध है.
कई दूसरे रूपों में कारें सामाजिक परजीवी होती हैं. शहरी बुनियादी ढांचे पर सार्वजनिक खर्च का सड़कों को चौड़ा करने, पुल और फ्लाईओवर बनाने में खर्च होता है. कारें ट्रैफिक को 30 से 50 फीसदी तक धीमा कर देती हैं, खासकर बसों को. इससे कीमती सामाजिक समय का नुकसान होता है.
कारें एक अभिजात्य पंथ, गति व शक्ति के प्रतीक का रूप ले चुकी हैं, जिसका मकसद लोगों में अचंभा और डर पैदा करना है. भारतीय मध्यवर्ग अब मारुति 800 जैसी कांपैक्ट कारों से संतुष्ट नहीं है. यह अब बड़ी और ज्यादा लग्जीरियस कारों का दीवाना है. कारें पैसे और ताकत के प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल में लायी जाती हैं.
एक सामान्य कार मालिक के मन में पैदल चलने वालों के प्रति अवमानना का भाव होता है, जिसे वह डराता है. इस तरह कारें दुष्टता और इंसानों से नफरत के भाव को प्रोत्साहित करती हैं.
कई विकसित देश अब मोटरीकरण पर पछता रहे हैं और सिटी सेंटरों से कार को प्रतिबंधित कर रहे हैं. उन पर ज्यादा कर लगाया जा रहा है, ज्यादा पार्किग फीस वसूली जा रही है. वहां सार्वजनिक यातायात को प्रोत्साहित किया जा रहा है. बसों और साइकिलों के लिए समर्पित गलियारे बनाये जा रहे हैं.
कई यूरोपीय देश सड़कों पर सबके समान अधिकार के लिए आंदोलनों का साक्षी रहा है. यहां तक कि शंघाई, बीजिंग और गुआंगझाउ में हर साल कार लाइसेंस प्लेट की निलामी की जा रही है और उसकी संख्या को नियंत्रित किया जा रहा है. सिंगापुर में आप भारी कीमत चुकाये बगैर और बिना अपने पार्किग स्पेस के कार नहीं खरीद सकते.
हम दक्षिण एशियाई लोगों को ऐसे ही उपाय की ओर जल्दी ही बढ़ना होगा और एसयूवी तथा डीजल पर चलने वाली गाड़ियों पर एकमुश्त प्रतिबंध लगाना होगा. इसके साथ ही हमें प्रदूषण निगरानी को भी चाकचौबंद करना होगा. इससे कहीं ऊपर हमें सस्ते, सुरक्षित और सक्षम सार्वजनिक परिवहन की दरकार है. इसका हल मेट्रो रेल का निर्माण नहीं है, जिसके निर्माण में काफी लागत आती है.
दिल्ली मेट्रो अपने आकर्षक रूप और वातानुकूलित डिब्बों के कारण मध्यवर्ग की आंखों का तारा बन चुका है, लेकिन इसने सड़कों पर कारों की संख्या कम करने में कोई मदद नहीं की है. हमारे नीति निर्माता मूर्खतापूर्ण तरीके से मेट्रो का विस्तार छोटे शहरों में कर रहे हैं, वहां यह सफेद हाथी ही होगी.
सार्वजनिक परिवहन की समस्या का सबसे सस्ता समाधान मौजूदा सड़कों का, बस रैपिड ट्रांजिट, इलेक्ट्रिक ट्राली बसों का इस्तेमाल और साइकलिंग और पैदल चलने को प्रोत्साहन देने में छिपा है.