।।अरविंद मोहन।।
(वरिष्ठ पत्रकार)
संसद के इस सत्र पर भी खतरा है. खतरा किससे है और कौन जिम्मेवार है, इस बहस को आगे उठाएं, लेकिन यह कहना जरूरी है कि अगर सदन चला ही नहीं, तो हमारे लोकतंत्र का, इसकी संस्थाओं का महत्व कुछ नहीं रह जायेगा. बीते काफी समय से यह हो रहा है कि सिर्फ जरूरी औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए सांसद जमा होकर हाथ उठा देते हैं और सदन सामान्य काम नहीं कर पाता.
संयुक्त संसदीय समिति की रिपोर्टे आम तौर पर सर्वसम्मति से तैयार होती हैं. पर इस बार हालत यह हुई कि लीक अंतरिम रिपोर्ट पर पक्ष और प्रतिपक्ष के सदस्य लड़ पड़े और बैठक हफ्ते भर के लिए स्थगित हो गयी. और तो और प्रश्नकाल के चलने पर भी आफत है, क्योंकि हर बात पर सदन की कार्रवाई रोकने का एजेंडा लेकर आये लोग उस वक्त को भी बर्बाद कर देते हैं. विडंबना यही है कि जो जमात सरकार के कथित भ्रष्टाचार या असफलता के सवाल को सदन चलने देने से ज्यादा बड़ा मुद्दा मानती है, वही हाउस न चलने की सूरत में हर बात के लिए संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने की मांग करती है.
यह खेल राम मंदिर आंदोलन वाले दौर से भी पहले बोफोर्स वाले समय से शुरू हुआ. हालत यह हो गयी है कि मुल्क की तसवीर बदलनेवाले पूरे दौर में कभी भी बजट पर ढंग से चर्चा नहीं हुई है. प्राय: हड़बड़ी में हाथ उठवा कर ही बजट पास हुआ है. पर बोफोर्स और कोयला घोटाले या टूजी घोटाले में क्या फर्क है, यह सभी देख-जान रहे हैं. आज कई गुना ज्यादा बड़े मामले भी हमारी संवेदना को उस तरह नहीं झकझोरते, जैसा कि बोफोर्स के समय हुआ था. उस मामले को अभी भी कई लोग जिंदा रखना चाहते हैं.
शायद उसे मुकाम पर पहुंचाने से ये बाद के मामले नहीं होते या इस आकार-प्रकार के नहीं हुए होत़े बोफोर्स पर बहस और जांच से यह तो लग गया कि राजीव गांधी ने भले दलाली न खायी हो, पर चोर पकड़ने में उनकी या कांग्रेसी सरकारों की रुचि नहीं थी. लेकिन इससे भी ज्यादा साफ ढंग से यह बात उजागर हुई कि विपक्ष को चोर पकड़वाने से ज्यादा रुचि चोर-चोर का शोर मचाने में ही थी. और धीरे-धीरे यह खेल आम हो गया कि चोर पकड़ने से देश-समाज का भला हो न हो चोर-चोर का शोर मचाना राजनीतिक रूप से फायदे का सौदा है और राजनीतिक फायदा हो जाये, तो बाकी चीजों की परवाह करने की जरूरत नहीं है.
अभी जिस कोयला घोटाले के मामले में स्थायी समिति की रिपोर्ट या केंद्रीय जांच ब्यूरो के मुखिया से कानून मंत्री की भेंट, टूजी मामले में संयुक्त संसदीय समिति की अंतरिम रिपोर्ट, मनरेगा में गड़बड़ी संबंधी कैग की रिपोर्ट को लेकर इतना शोर मच रहा है, उसमें तो शुरू से लग रहा है कि पक्ष और विपक्ष किसी को भी चोर पकड़ने में रुचि नहीं है. सभी पूरे मुल्क के साथ एक खेल खेल रहे हैं. कुछ संस्थाओं, आंदोलनों और इन सबसे बढ़कर अदालतों ने जरूर मामले को गंभीरता से उठाया. उनकी वजह से ही ये मामले सामने आये और यहां तक पहुंचे हैं. इसमें अगर भाजपा और विपक्ष ने कोई योगदान किया, तो यही कि संसद को बार-बार ठप्प किया. इसमें भी आज द्रमुक और कोई छोटी पार्टी विरोध में शामिल है, तो बहुत छोटे स्वार्थ के लिए. अब राजा को क्यों शिकायत हो रही है या उनकी पार्टी क्यों सक्रिय हो रही है, इसमे कांग्रेस का व्यवहार एक मुद्दा है पर उनके अपने मंसूबे ज्यादा बड़े कारण हैं.
असल में ये सारे मामले भूमंडलीकरण और उदारीकरण के जिस दौर के हैं, उसमें कांग्रेस और भाजपा ही नहीं सारी पार्टियां एकमत रही हैं. इनमें भी मुख्य भूमिका कांग्रेस और भाजपा की रही है. दोनों होड़ लगा कर इस अभियान को आगे बढ़ाने में लगे रहे हैं. इसी क्रम में प्राकृतिक संसाधनों और देश के आर्थिक सामानों की लूट हुई है. इसे सबने देखा और कुछ ने जाना है.कई लोगों ने समय-समय पर आवाज भी उठायी है. सैकड़ों जगहों पर जनांदोलनों से यह विरोध हुआ. पर जब कैग ने सिर्फ लेखा परीक्षा करने की जगह प्राकृतिक संसाधनों की लूट को भी मसला बना दिया, तब हंगामा मचना शुरू हुआ. अदालतों ने भी तभी सक्रियता दिखायी और खुद की रोजाना की निगरानी में मुकदमा देखना शुरू किया. फिर विपक्ष ने क्या किया, उसको सबने देखा है. संसद ठप्प होने से भी यह मसला चर्चा में आया. पर वहां नुकसान भी काफी हुआ.
कांग्रेस को यह खेल समझने में मुश्किल नहीं हुई कि भाजपा क्या चाहती है. भाजपा सड़क पर उतर कर राजनीति करने वाले दौर को भुला चुकी है. कौन मसला संसद में उठेगा और कौन सड़क पर या गोष्ठियों-चर्चाओं में, यह भेद करना वह भूल गयी है. कांग्रेस तो यह 1947 में ही भूल गयी थी. पर जब आप संसाधनों की लूट वाली वही नीतियां चलाते हों, आपके नेता भी कांग्रेस की तरह के हो चुके हों, तो आप उसी लाठी से कांग्रेस को नहीं पीट सकते. सो कांग्रेसियों ने द्रमुक और गंठबंधन की राजनीति को दोष देने के बाद हर मामले को पीछे तब तक घसीट कर ले जाना शुरू किया, जब एनडीए की सरकार थी और यही नीतियां चला रही थी या एनडीए शासित राज्यों का भी गुनाह दिखे. यह अपने रंग में सबको रंग कर अपना गुनाह कम दिखने देने की रणनीति है. संयोग से स्पेक्ट्रम आवंटन से लेकर कोयला और अयस्कों की लूट वाली नीतियां भाजपा राज में ही बनीं और बाद में भाजपा की राज्य सरकारों ने नीतियां न बदलने के लिए दबाव डाला. सो मामला काले-सफेद का नहीं, बल्कि छोटे चोर बड़े चोर का है. जानबूझ कर भी गलत नीतियां चलाने का है. बहती गंगा में हाथ धोने का है.
इसीलिए भाजपा और कांग्रेस में से कोई भी नहीं चाहता कि बहस हो. बहस होने से तो बात निकलेगी और जवाब देना होगा. छोटे दल इन दोनों के साथ रहे हैं, पर उनकी भूमिका निश्चित रूप से इस पैमाने की लूट को चलाने और खुद की भागीदारी वाली नहीं थी. शायद अकेले द्रमुक ने इस खेल को समझा तो उसके लोग और सर्वोच्च स्तर के लोग भी इसमें शामिल हो गये. इसमें कोई लालू यादव, ममता या नीतीश कुमार या मुलायम और मायावती नहीं शामिल हुए. वे तो रेल जैसे मंत्रलय की लड़ाई में ही लगे रहे. पर मुश्किल यह है कि ये लोग भी जुबान खोलने और सच्ची बहस की बात नहीं करते. पांच-सात सांसदों के साथ डॉ लोहिया ने किस तरह चीन की हार के बाद कांग्रेस सरकार की हवा निकाली थी, यह सभी जानते हैं. सो संसद न चलना भी एक बीमारी का ही लक्षण है, उसके इलाज का तरीका नहीं. मुश्किल यह है कि सदन के अंदर दवा भी है, पर इन भाइयों को इसका एहसास भी नहीं है.