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क्यों नहीं खत्म हो रहा है मलेरिया?

।। डॉ एके अरुण ।।देश में उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू हुए दो दशक बीत चुके हैं. इस दौरान स्वास्थ्य क्षेत्र में कई बदलाव भी देखे जा रहे हैं. पुराने जानलेवा रोगों मलेरिया, टीबी, कालाजार, मस्तिष्क ज्वर, हैजा-दस्त आदि की भयावहता के बावजूद चर्चा तक नहीं हो रही. वहीं कई तथाकथित रोगों पर बेइंतहा सरकारी धन […]

।। डॉ एके अरुण ।।
देश में उदारीकरण की प्रक्रिया शुरू हुए दो दशक बीत चुके हैं. इस दौरान स्वास्थ्य क्षेत्र में कई बदलाव भी देखे जा रहे हैं. पुराने जानलेवा रोगों मलेरिया, टीबी, कालाजार, मस्तिष्क ज्वर, हैजा-दस्त आदि की भयावहता के बावजूद चर्चा तक नहीं हो रही. वहीं कई तथाकथित रोगों पर बेइंतहा सरकारी धन लुटाया जा रहा है. देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में गत 20 मार्च से पांच अप्रैल तक मलेरिया के 9000 मामले सामने आ चुके हैं. हालांकि पिछले वर्ष की तुलना मे मुंबई महानगर पालिका मलेरिया के मामलों में 50 फीसदी कमी का दावा कर रही है.

वर्ष 2012 में मलेरिया से देश में 40,297 लोगों की मौत हुई (गैर सरकारी आंकड़ा). जांच के दौरान, दिल्ली में पिछले वर्ष 18,000 घरों में मलेरिया के मच्छर पनपते पाये गये थे.

पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष अभी तक मलेरिया का प्रभाव 23 प्रतिशत ज्यादा है. मलेरिया के रोज बढ़ते और जटिल होते मामले हमें भविष्य के भयावह खतरे का एहसास करा रहे हैं. हाल यह है कि इस साधारण और नियंत्रित किये जा सकनेवाले (प्लाजमोडियम) परजीवी से होनेवाला बुखार जानलेवा तो है ही, अब लाइजाज होने के कगार पर है. लेकिन समुदाय और सरकार अब भी इसे गंभीरता से नहीं ले रहे हैं.

18 वीं शताब्दी में फ्रांस के एक सैन्य चिकित्सक लेरेरान ने इस खतरनाक मलेरिया परजीवी को उत्तरी अफ्रीका के अल्जीरिया में ढूंढ़ा था. जैव-वैज्ञानिक रोनाल्ड रोस ने 1897 में पता लगाया कि एनोफेलीज मच्छर मलेरिया परजीवी फैलाने के लिए जिम्मेदार है. इन मच्छरों को मारने या नियंत्रित करने के लिए स्विस वैज्ञानिक पॉल मूलर द्वारा आविष्कृत डीडीटी अब प्रभावहीन है, जबकि मूलर को उनकी इस खोज के लिए नोबेल पुरस्कार मिला था.

यह परजीवी अपनी खोज से लेकर आज तक, रोकथाम के तमाम प्रयास के बावजूद घातक ही होता गया है. वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद, मलेरिया के संक्रमण और बढ़ते प्रभाव की आलोचना से बचने के लिए सरकार ने राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम एवं राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम से अपना ध्यान हटा लिया है.

नतीजा हुआ कि सालाना मृत्यु दर में वृद्धि हो गयी. सरकारी आंकड़ों में मलेरिया संक्रमण के मामले कम हुए हैं, लेकिन सालाना परजीवी मामले, सालाना फैल्सीफेरम मामले में गुणात्मक रूप से वृद्धि हुई है.

विश्व बैंक का अनुमान है कि मलेरिया के वर्ष 2006 में 24.7 करोड़ मामले सामने आये. इनमें 86 प्रतिशत मामले अफ्रीका क्षेत्र में थे और बाकी मामलों का 80 प्रतिशत भारत, म्यांमार, बांग्लादेश एवं पाकिस्तान में. भारत में मलेरिया महामारी को इन श्रेणियों में बांटा जाता है :

* आदिवासी मलेरिया : लगभग 4.4 करोड़ आदिवासी आबादी में से 50 प्रतिशत लोग मलेरिया की खतरनाक प्रजाति फैल्सीपेरम मलेरिया की चपेट में हैं. मलेरिया से होनेवाली कुल मौतों में इस आबादी का 50 प्रतिशत शामिल होता है.

* ग्रामीण मलेरिया : हरियाणा, पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, ओड़िशा, आंध्र प्रदेश, एवं तमिलनाडु से ज्यादातर मलेरिया रोगी आते हैं.
शहरी मलेरिया : देश के 15 बड़े शहरों के साथ-साथ चार मेट्रोपोलिटन शहरों के लोग इसकी चपेट में हैं. कुल 423.9 लाख शहरी आबादी मलेरिया की चपेट में है.

विडंबना यह है कि मलेरिया नियंत्रण और उन्मूलन के अब तक सभी सरकारी कार्यक्रमों/अभियानों की विफलता के बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सुझाव पर तथाकथित मलेरिया-रोधी टीका (रढऋ66 तथा फळर,र/अर02 ) का प्रचार जोर-शोर से किया जा रहा है, जबकि इस महंगे टीके की घोषित प्रभाव क्षमता 50 प्रतिशत से भी कम है. हालांकि इसकी निर्माता कंपनी अमेरिका में इसके 70 प्रतिशत सफलता का दावा कर रही है.

भारत में पहली बार अप्रैल 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम शुरू किया गया. बताते हैं कि पांच वर्ष में इस कार्यक्रम ने मलेरिया का संक्रमण 7.5 करोड़ से घटा कर 20 लाख पर ला दिया. इससे उत्साहित होकर विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 1955 में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम की योजना बनायी. 1958 मे मलेरिया के मामले 50,000 से बढ़ कर 64 लाख हो गये. इतना ही नहीं अब मलेरिया के ऐसे मामले सामने आ गये हैं, जिनमें मलेरियारोधी दवाएं प्रभावहीन हो रही हैं. इसे प्रशासनिक व तकनीकी विफलता बता कर स्वास्थ्य संस्थाओं, सरकार और डब्ल्यूएचओ ने पल्ला झाड़ लिया.

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रलय ने पुन: 1977 में मलेरिया नियंत्रण के लिए संशोधित अभियान शुरू किया. थोड़ा-बहुत नियंत्रण के बाद, इससे भी कोई खास फायदा नहीं हुआ. उल्टे मलेरियारोधी दवा ‘क्लोरोक्विन’ के हानिकारक प्रभाव ज्यादा सामने आने लगे. जी मिचलाना, उल्टी, आंखों में धुंधलापन, सिरदर्द जैसे साइड इफेक्ट के बाद लोग क्लोरोक्विन से बचने लगे.

मलेरिया से बचाव के लिए रोग प्रतिरोधी दवा पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को देने की योजना भी कई कारणों से नहीं चलायी जा सकी. उधर मच्छरों को खत्म करने की बात तो दूर, उसे नियंत्रित करने की योजना व उपाय भी धरे रह गये. डीडीटी व अन्य मच्छररोधी दवाओं के छिड़काव से भी मच्छरों को रोकना संभव नहीं हुआ, तो इसे प्रतिबंधित करना पड़ा.

मलेरिया उन्मूलन में केवल मच्छरों को मारने तथा बुखार की दवा आजमाने के परिणाम दुनिया ने देख लिये हैं. मलेरिया से जुड़े सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक व आर्थिक पहलुओं पर सरकारों व योजनाकारों ने कभी गौर करना भी उचित नहीं समझा. अब भी वैज्ञानिक मच्छरों के जीन परिवर्तन जैसे उपायों में ही सिर खपा रहे हैं.

अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्सियस डिजिजेस के लुई मिलर कहते हैं कि मच्छरों को मारने से मलेरिया खत्म नहीं होगा, क्योंकि सभी मच्छर मलेरिया नहीं फैलाते. आणविक जीव वैज्ञानिक भी नये ढंग की दवाएं ढूंढ़ रहे हैं. कहा जा रहा है कि परजीवी को लाल रक्त कोशिकाओं से हीमोग्लोबिन सोखने से रोक कर यदि भूखा मार दिया जाये, तो बात बन सकती है. लेकिन इनसानी दिमाग से भी तेज इन परजीवियों का दिमाग है, जो उसे पलट कर रख देता है.

बहरहाल मलेरिया परजीवी के खिलाफ विगत एक शताब्दी से जारी मुहिम ढाक के तीन पात ही सिद्ध हुई है. परजीवी अपनी अनुवांशिक संरचना में इतनी तेजी से बदलाव कर रहा है कि धीमे शोध का कोई फायदा नहीं मिल रहा.

वैज्ञानिक सोच और कार्य पर आधुनिकता तथा बाजार का इतना प्रभाव है कि देसी व वैकल्पिक कहे जानेवाले ज्ञान को महत्व ही नहीं दिया जाता. होमियोपैथी के आविष्कारक डॉ हैनिमैन एलोपैथी के बड़े चिकित्सक और जैव वैज्ञानिक थे. मलेरिया बुखार पर ही ‘सिनकोना’ नामक दवा के प्रयोग के बाद उन्होंने होमियोपैथी चिकित्सा विज्ञान का सृजन किया.

दुनिया जानती है कि मलेरिया की एलोपैथिक दवा क्लोरोक्विन तो प्रभावहीन हो गयी है, लेकिन होमियोपैथिक दवा ‘सिनकोना ऑफसिनेलिस’ आज 225 वर्ष बाद भी उतनी ही प्रभावी है. आयुर्वेद व होमियोपैथी की रोग उपचारक व नियंत्रण क्षमता को कभी सरकार ने उतनी अहमियत नहीं दी, जितनी कि एलोपैथी को देती है. देसी व वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की वैज्ञानिकता को परख कर बिना किसी पूर्वाग्रह के उन्हें प्रचारित किया जाना चाहिए.

शहरीकरण, उद्योग-धंधे, मोटर गाड़ियां, कटते जंगल, शहरों में बढ़ती आबादी, बढ़ती विलासिता आदि वैश्विक गर्मी बढ़ा रहे हैं. मच्छरों के फैलने के लिए यह तापक्रम जरूरी है. अत: इस कथित आधुनिकता के बढ़ते रहने से मच्छरों को नियंत्रित करना संभव नहीं होगा. मच्छरों से बचाव के कथित आधुनिक उपाय जैसे क्रीम, धुंआ बत्ती, स्प्रे आदि बेकार हैं. पारंपरिक तरीकों जैसे मच्छरदानी, सरसों का तेल शरीर पर लगाने, नीम की खली आदि से मच्छरों को नियंत्रित किया जा सकता है.
(लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं.)

* वैज्ञानिक शोध, विकास व कथित आर्थिक संपन्नता की ओर बढ़ते समाज और देश के लिए आज भी मलेरिया एक जानलेवा पहेली बनी हुई है. विश्व मलेरिया दिवस पर पेश है यह खास आलेख.

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