वो कहते हैं न लेखन एक रचनात्मक नशा है. लत लगी तो छूटती कहां. अगर पत्र पत्रिकाओं के झरोखे में झांके तो इसकी बानगी देखने को मिलती है. बात राजनीतिक स्वतंत्रता की हो यासामाजिक पुनर्जागरण की. वक्त के हर मोड़ पर पत्र-पत्रिकाओं ने बौद्धिक चिंतन एवं विचारपूर्ण लेखन के माध्यम से समाज को जागृत किया. लेकिन बाजार आधारित व्यवस्था के आगमनके साथ ही सामाजिक सरोकार की कड़ी मायने बदलने लगी. ऐसे में शुरू हुआ सिद्धांत व हकीकत के बीच द्वंद्व. कुछ ने वक्त की नब्ज पकड़ी, तो कुछ सिद्धांतों पर अडिग रहे. सिद्धांतों कीचुनौती पूर्ण राह पर कुछ पत्रिकाएं आज भी कायम हैं, तो कुछ सिमट गयीं. प्रतिरोध के प्रतिमान की इस श्रृंखला में हम ऐसी ही पत्रिकाओं से आपको रू-ब-रू करवायेंगे.
पेश है पहली कड़ी.
-रवि दत्त बाजपेयी-
प्रकाशन उद्योग में मशीनों द्वारा मुद्रण तकनीक के आविष्कार के साथ ही पुस्तकों, समाचार पत्रों,पत्रिकाओं के प्रकाशन में अभूतपूर्व विस्तार हुआ.भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता औरसामाजिक पुनर्जागरण आंदोलन में भी प्रकाशन की इस नयी तकनीक का भरपूर उपयोग किया गया.
राजनीतिक व सामाजिक उद्देश्यों के समाचार पत्रों के साथ ही भारत में बौद्धिकचिंतन एवं विचारपूर्ण लेखन के लिए महत्वपूर्ण प्रकाशनों की शुरुआत हुई. वर्ष 1890 में ‘हिंदू’ समाचार पत्र के संस्थापक जी सुब्रमण्यम अय्यर की एक सहयोगी कामाक्षी नटराजन नेमद्रास (अब चेन्नई)
में समाज सुधारों व सामाजिक सरोकारों से संबंधित एक साप्ताहिक पत्रिका ‘इंडियन सोशल रिफॉर्मर’ स्थापित की थी, जिसे कुछ समय के बाद में मुंबईस्थानांतरित कर दिया गया. वर्ष 1901 में रामानंद चटर्जी ने कलकत्ता (अब कोलकाता) में बांग्ला साहित्य पर एक मासिक पत्रिका ‘प्रबासी’
और वर्ष 1907 में अंगरेजी भाषा में ‘मॉडर्नरिव्यू’ नामक एक पत्रिका की शुरु आत की.
प्रबासी पत्रिका में बांग्ला साहित्यकारों के लेखन को घर- घर पहुंचाने का काम किया जबकि ‘मॉडर्न रिव्यू’ भारतीय राष्ट्रवादी बुद्धिजीवियों केलिए अपने विचार व्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण मंच बन गयी. भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान दोनों पत्रिकाएं बहुत लोकप्रिय थीं, पर स्वतंत्र भारत में इनका प्रसार घटने लगा औरये दोनों पत्रिकाएं बंद हो गयी. पू बंगाल (अब बांग्लादेश) में जन्मे सचिन चौधरी (1904-967) ने 1927 में ढाका विवि में अर्थशास्त्र में एमए की अपनी परीक्षा मामूली अंकों के साथ उत्तीर्णकी. और अपने परीक्षा परिणामों से व्यथित होकर ढाका छोड़ कर मुंबई आ गये. सचिन चौधरी ने अल्पावधि के लिए बहुत सारे काम किये. कांग्रेस कार्यकर्ता, निजी ट्यूटर,विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के शोध छात्र, अखबारों में फिल्म समीक्षक, बीबीसी समाचार के पटकथा लेखक और एक समय फिल्म कंपनी बॉम्बे टाकीज के प्रबंधक भी रहे. स्वतंत्रता केकुछ महीने बाद ही भारत सरकार ने विदेश व्यापार की संभावनाएं ढूंढ़ने के उद्देश्य से एक प्रतिनिधिमंडल यूरोप-अमेरिका भेजा. इस दल का नेतृत्व एक भारतीय कंपनी से संबंधित आर्थिकपत्रिका के संपादक कर रहे थे और सचिन के छोटे भाई हितेन चौधरी भी इस दल के सदस्य थे. हितेन को अपने प्रतिनिधिमंडल के अगुआ बने संपादक महोदय की विचारधारा औरआर्थिक दर्शन, राष्ट्र हितों के प्रतिकूल लगा. हितेन अपने बड़े भाई की प्रतिभा से भलीभांति परिचित थे और उन्होंने स्वतंत्र भारत की आर्थिक नीति निर्माण में सचिन चौधरी से रचनात्मकभूमिका निभाने का आग्रह किया. वर्ष 1949 में सचिन चौधरी के संपादकीय नेतृत्व में मुंबई से ‘इकॉनोमिक वीकली’ नामक एक साप्ताहिक का प्रकाशन आरंभ हुआ.
आरंभिक दिनों में सचिन चौधरी को उनके व्यापक शैक्षणिक संपर्को, बॉम्बे विश्वविद्यालय के युवा अध्यापकों और रिजर्व बैंक ऑफइंडिया के युवा अर्थशास्त्रियों ने पूरे उत्साह के साथसहयोग दिया. अपनी स्थापना के कुछ माह के भीतर ही ‘इकॉनोमिक वीकली’ ने अपनी एक अलग पहचान बनायी और थोड़े ही समय में यह भारत में केवल अर्थशास्त्र ही नहीं,बल्किव्यापक समाज विज्ञान के क्षेत्र में बौद्धिक व वैचारिक लेखन का एक मानक बन गयी. इस पत्रिका में प्रकशित लेख एक प्रकार से भारत के अकादमिक विशारदों, नीति निर्धारकों औरउदीयमान प्रशिक्षु विद्वानों की पूरी प्रतिभा सूची ही थे. जैसे अशोक मेहता, जेसी कुमारप्पा, वरिष्ठ अर्थशास्त्री वीकेआरवी राव, युवा अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन, जगदीश भगवती, केएन राज,पीएन धर, अशोक मित्र, समाजशास्त्री आंद्रे बेटिल्ले, एमएन श्रीनिवास, युवा राजनीति शास्त्री रजनी कोठारी. सचिन चौधरी ने ‘इकॉनोमिक वीकली’ को एक पत्रिका नहीं बल्किशिक्षाविदों, शोधकर्ताओं, नीति निर्माताओं, स्वतंत्र विचारकों, गैर-सरकारी संगठनों के सदस्यों और राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं को गंभीर मुद्दों पर बहस करने के लिए एक अनूठामंच प्रदान किया. इन सबसे ऊपर सचिन चौधरी ने ‘इकॉनोमिक वीकली’ को एक लघु लेकिन पूर्णत: स्वतंत्र कुटीर उद्योग की तरह चलाया और गंभीर आर्थिक संकट में भी किसी भी तरहकी सरकारी या निजी आर्थिक सहयोग लेने से इनकार कर दिया. वर्ष 1966 में लगभग तालाबंदी के कगार पर पहुंचे इस संस्थान को बचाये रखने के लिए ‘समीक्षा ट्रस्ट’ का गठन किया.इसी साल पत्रिका का नाम बदल कर ‘इकॉनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ कर दिया गया.
वर्ष 1960 में ‘दिल्ली स्कूल ऑफइकॉनोमिक्स’ के प्रख्यात अर्थशास्त्री केएन राज ने अपने संस्थान के एक छात्र कृष्ण राज (जो उनके संबंधी नहीं थे) को ‘इकॉनोमिक वीकली’ केसंपादक सचिन चौधरी के साथ काम करने को भेजा. कृष्ण राज वर्ष 1969 से अगले 35 साल तक, आजीवन इस पत्रिका के संपादक बने रहे और अपने संपादकीय कार्यकाल में उन्होंनेभारत में राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में भारी उलट-फेर का समय देखा. कृष्ण राज के समय ‘इकॉनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ भारत ही नहीं बल्कि विश्व में भारत सेसंबंधित विषयों पर एक विश्वसनीय और तथ्यपरक विश्लेषण का पर्यायवाची माना गया.
वर्ष 2004 में कृष्ण राज के निधन के बाद सी राममनोहर रेड्डी इस पत्रिका के संपादक नियुक्त हुए. आइआइएम कोलकाता के स्नातक, चेन्नई के समाचार पत्र समूह ‘द हिंदू’ के आर्थिकमामलों के संपादक रेड्डी ने कई गुना कम वेतन पर केवल 11,000 प्रसार संख्या वाले‘इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ का यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार किया. सी राममनोहर रेड्डीके अनुसार प्रसार संख्या इस पत्रिका के प्रभाव का पैमाना नहीं है. एक तो 11,000 प्रसार संख्या में ज्यादातर संस्थागत ग्राहक हैं, जिसके कारण कुल पाठक संख्या इस आंकड़े से कई गुनाअधिक है और दूसरे ‘इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ के पाठक नीतिगत निर्णयों से बेहद करीब से जुड़े हुए हैं, जिसके कारण इस पत्रिका का प्रभाव किसी अन्य समाचार पत्र यापत्रिका से कहीं ज्यादा है. भारत के किसी भी समाचार पत्र या पत्रिका में समसामयिक विषयों या ज्वलंत समस्याओं पर हर सप्ताह आम लोगों के मुद्दों पर बारीक-बौद्धिक विश्लेषण प्रकाशितकरने की सामथ्र्य नहीं है और यही विशिष्टता ‘इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ को एक अद्वितीय पत्रिका बनाती है.
लोक सरोकारों से निर्लिप्त प्रशासनिक तंत्र, अनभिज्ञ- उदासीन होते समाज और कॉरपोरेट मीडिया के मिथ्याचार के इस दौर में ‘इकॉनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’ सूचना-तर्क-विमर्शके माध्यम से चेतना जगाने की एक बेहद प्रासंगिक और अनिवार्य भूमिका निभा रहा है.