।। राणा अवधूत कुमार ।।
(प्रभात खबर, गया)
दोपहर का भोजन यानी लंच कोई नयी चीज नहीं है. चाहे मजदूर-कर्मचारी हों या फिर बोरा लेकर स्कूल जानेवाले नंग-धड़ंग बच्चे, लंच बॉक्स उर्फ टिफिन उर्फ खाने का डिब्बा उनका साथी रहा है. हालांकि बदलते दौर में लंच का स्वरूप भी बदला है और इसकी प्रासंगिकता भी.
आज जितना जरूरी दफ्तरों के रिसेप्शन पर महिलाओं का होना है, उतना ही जरूरी कारपोरेट दफ्तरों से लेकर मॉल में काम करनेवाले कर्मचारियों के लिए लंच आवर है. दफ्तरों में लंच को ‘स्वर्णिम पल’ कहा जा सकता है. इन्हीं पलों में महिला कर्मचारी अपना मेक -अप ठीक करती हैं, प्रेमी युगल प्रेमालाप करते हैं, गपबाज गप लड़ाते है, तो बुजुर्ग थोड़ा-सा सुस्ता लेते हैं.
लंच का असली महत्व दिखता है सरकारी कार्यालयों में. सरकारी कर्मचारियों के बारे में एक पुरानी कहावत है- ‘बारह बजे से पहले लेट नहीं, दो बजे के बाद भेंट नहीं.’ हर सरकारी दफ्तर में ये जुमले सुनने को मिल जायेंगे- साहब लंच पर गये हैं, लंच के बाद आइयेगा या फिर लंच आवर से पहले आना चाहिए था न! देहात से पांच किमी पैदल चल कर, फिर बस में धक्का खाते हुए कोई ग्रामीण यदि 11-11.30 बजे भी तहसील पहुंचता है, तो सुनने को मिलता है- लंच के बाद आइयेगा.
लंच के समय के बारे में पूछताछ करने पर सख्त पाबंदी है. बड़े साहबों से तो लंच आवर में मिलना तो दूर, बात करना भी गुनाह है. ऑफिस में जो बड़ा साहब है, उसके लिए लंच का कोई तय समय नहीं है.कई साहिबान तो लंच के बाद ऑफिस आना जरूरी भी नहीं समझते. और आयें भी क्यों, वे बड़े साहब जो ठहरे? सचिवालय में चले जाइए, लंच आवर के बाद शायद ही कोई बड़ा अधिकारी आपकी समस्याओं या बातों को सुऩे हाकिमों से लेकर उनके गार्ड-चपरासी तक लंच आवर का बखूबी इस्तेमाल करते हैं. भले पेट में कुछ न जाये, लेकिन इस आवर में रोज के काम से छुटकारा तो मिलता है.
सरकारी स्कूलों में तो बच्चे आते ही हैं दोपहर के भोजन के लिए. जिन गरीब बच्चों का पेट भरने और स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करने के वास्ते यह योजना चल रही है, उनका पेट भरे या न भरे, लेकिन इस बहाने कुछ ठेकेदारों-शिक्षकों को खाने-कमाने का अवसर जरूर मिलता है. और अब तो सरकारें भी दावे के साथ कह रही हैं कि फलां जिले में मिड-डे मील की अच्छी व्यवस्था होने से वहां के स्कूलों में पिछले वर्ष के मुकाबले उपस्थिति बढ़ी है.
वैसे महंगाई के जमाने में लंच का असली मजा वही ले पा रहे हैं, जिनके यहां लाख सरकारी निगरानी के बावजूद नोट बरस रहे हैं. नौकर-चाकर दो घंटे पहले से ही तैयारियां शुरू कर देते हैं. हर दिन अलग-अलग मेनू. वरना आम दफ्तरी आदमी तो रोज लंच में रोटी-सब्जी या पराठा-अचार खा रहा है.