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पाबंदी से पहले पारदर्शिता जरूरी

चुनाव सुधार की वर्षो से अनसुनी की जा रही मांगों को कोर्ट का सहारा मिला है. सुप्रीम कोर्ट ने एक के बाद एक महत्वपूर्ण फैसलों में दागी उम्मीदवारों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने और दागियों की संसद या विधानसभा सदस्यता समाप्त करने को लेकर जो आदेश दिये हैं, उन्हें चुनाव सुधार की दिशा में […]

चुनाव सुधार की वर्षो से अनसुनी की जा रही मांगों को कोर्ट का सहारा मिला है. सुप्रीम कोर्ट ने एक के बाद एक महत्वपूर्ण फैसलों में दागी उम्मीदवारों को चुनाव प्रक्रिया से बाहर रखने और दागियों की संसद या विधानसभा सदस्यता समाप्त करने को लेकर जो आदेश दिये हैं, उन्हें चुनाव सुधार की दिशा में मील का पत्थर माना जा सकता है. लेकिन, जानकारों की मानें तो सिर्फ कोर्ट के फैसलों से ही चुनाव प्रक्रिया और राजनीति को साफ करना मुमकिन नहीं है. ऐसा तभी संभव होगा जब खुद कानून बनानेवाले इस दिशा में गंभीरतापूर्वक कदम बढ़ायें. सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के आईने में चुनाव सुधार के सवाल को बहस के बीच लाता आज का समय..

हाल
में आये सुप्रीम कोर्ट के दो फैसले, जिनका संबंध चुने हुए विधायकों तथा सांसदों और उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित करने से है, अपराधी पृष्ठभूमिवाले लोगों पर नकेल कसेगा. इसका स्वागत किया जाना चाहिए. इससे निश्चित तौर पर अपराधियों के लोकसभा और विधानसभा में पहुंचने की घटना कमेगी. लेकिन ऐसे कानून मात्र से राजनीति को स्वच्छ करना मुश्किल है. इसलिए पहले जरूरी है कि चुने हुए जनप्रतिनिधियों और चुनावी गड़बड़ियों से जुड़े मामलों की सुनवाई के लिए विशेष फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन हो.किसी मामले की सुनवाई एक लंबी प्रक्रिया है और अंतिम फैसले तक पहुंचने में काफी वक्त लग जाता है.अदालत में मामला चलने के बावजूद एक चुना हुआ प्रतिनिधि लंबे समय तक सदन का सदस्य बना रह सकता है. क्योंकि फैसला आने में वर्षो लग जाते हैं. साथ ही प्रभावशाली राजनेता अदालती प्रक्रिया को लटकाने के तरीके खोज सकता है और गवाहों को प्रभावित कर सकता है. एक समस्या का समाधान खोजने के प्रयास के कारण एक दूसरी समस्या सामने आ सकती है. राजनीति को स्वच्छ करने की गंभीर कोशिश ताकि अपराधियों को कानून निर्माता बनने से रोका जा सके की पहल कानून बनानेवालों की तरफ से ही होनी चाहिए. हालांकि यह कल्पना करना मुश्किल लग सकता है, लेकिन एकमात्र समाधान यही नजर आता है.

स्थिति यह है कि चुनाव सुधार की लॉ कमीशन की हालिया पहल का जोर मुख्य तौर पर प्रतिबंध लगाने और कानून के निर्माण पर है, न कि बातचीत, आम सहमति और लोगों की भागीदारी पर. चुनाव का मतलब केवल चुनाव लड़नेवालों से नहीं है, बल्कि इस प्रक्रिया में शामिल होने वाले लोगों, मतदाताओं से भी है.चुनाव के दौरान एक-एक वोट के महत्व को राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों से बेहतर कौन जान सकता है? हम में से कई इस बात को लेकर सहमत हो सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से जब चुनाव सुधार पर कोई बात होती है, तब इन मतदाताओं को भुला दिया जाता है. चुनाव सुधार को लेकर लॉ कमीशन का हालिया प्रयास अपने उद्देश्य के रूप में लोकतांत्रिक प्रक्रिया में समाज के सभी वर्गो की व्यापक, असरदार और अर्थवान भागीदारी की बात करता है. लेकिन दुर्भाग्य से कमीशन इस मुद्दे पर लोगों की राय नहीं लेता है. ऐसा लगता है कि चुनाव सुधार के नाम पर मुख्य कोशिश सिर्फ ऐसे कानून के निर्माण के लिए हो रही है, जिसका मकसद सिर्फ उम्मीदवारों को अयोग्य ठहराना, मीडिया पर पाबंदी लगाना, सजा बढ़ाना और दलों को नियंत्रित करना है. चुनाव सुधार के लिए मतदाताओं की भागीदारी अधिक से अधिक करने का प्रयास होना चाहिए. कमीशन अयोग्यता घोषित करने के मानदंड तय करने के लिए राय मांग रहा है. सुप्रीम कोर्ट का हालिया फैसला अयोग्यता पैदा करनेवाली स्थितियों का वर्णन करके इस मामले में कुछ कदम आगे बढ़ गया है.

कमीशन पार्टियों के फंड के स्नेत और खर्च के नियंत्रण को लेकर चिंता जाहिर करता है. राजनीतिक दलों के फंड को लेकर पारदर्शिता जरूरी है. इसके लिए 20 हजार रुपये तक नकद रूप में चंदा लेने की छूट के मौजूदा नियम में बदलाव करके हर राशि के चंदे को चेक से देने को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए. कमीशन ने चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा निर्धारित करने पर कुछ नहीं कहा है, जो मौजूदा समय में लोकसभा चुनाव के लिए 40 लाख है. यह मानना संभव नहीं है कि 26 लाख मतदाताओं वाले क्षेत्र में इतनी रकम से कोई उम्मीदवार चुनाव अभियान चला सकता है. इन चिंताओं के साथ ही एक नयी चिंता पेड न्यूज के तौर पर चुनाव संबंधित खबरों को लेकर है. इसलिए चुनावी खबरों के लिए भी कुछ नियम-कायदे बनाने की जरूरत है.

प्रतिबंध और रोक लगाने की दिशा में कदम उठाने की बजाय पारदर्शिता के बारे में सोचने की जरूरत है. हमने देखा है कि प्रतिबंध के बावजूद लोग नियमों की धज्जियां उड़ाने के नये तरीके खोज लेते हैं. कमीशन का सरकारों द्वारा आखिरी 6 महीने किये गये काम के प्रचार पर रोक लगाने के बारे में विचार करना सही नहीं है. मेरा मानना है कि सरकारों को अपने हर कामकाज के बारे में मतदाताओं को संदेश देने की इजाजत मिलनी चाहिए. चाहे वह काम कार्यकाल के आखिरी 6 महीने का ही क्यों न हो!भारतीय मतदाता परिपक्व है और वह 6 महीने के काम से प्रभावित नहीं होता. अगर सत्ताधारी दल ऐसा करने में सफल रहते तो वे इस हथियार का प्रयोग मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए करते और कभी चुनाव नहीं हारते. लेकिन इतिहास ने राजनीतिक दलों की हार-जीत और सरकारों को बदलते देखा है.

1,258
विधायकों पर जो राज्यों की विधानसभा के कुल 4,062 विधायकों का 31 फीसदी है, आपराधिक मामले चल रहे हैं.

118
है संख्या भाजपा के कुल दागी प्रतिनिधियों की.

107
है संख्या कांग्रेस के कुल दागी प्रतिनिधियों की.

टॉप 20 दागी सांसद

नाम क्षेत्र

कुल मामले

कामेश्वर बैठा (झामुमो)

पलामू 35
जगदीश शर्मा (जदयू) जहानाबाद 6
बाल कुमार पटेल (सपा) मिर्जापुर 10
प्रभातसिंह प्रतापसिंह चौहान (भाजपा) पंचमहल 3
कपिलमुनि करवारिया (बसपा) फूलपुर 4
पी करुणाकरण (माकपा) कासरगोड 12
कुंवरजी भाई वावलिया (कांग्रेस) राजकोट 2
विट्ठलभाई राडडिया (कांग्रेस) पोरबंदर 16
रामकिशुन(सपा) चंदौली 10
लालू प्रसाद (राजद) सारण 7
चंद्रनाथ रघुनाथ पाटिल(भाजपा) नवसारी 6
फिरोज वरुण गांधी(भाजपा) पीलीभीत 6
असाउद्दीन ओवेसी (एमआइएमआइएम) हैदराबाद 4
गणोश (भाजपा) सतना 2
शिवासामी सी (एडीएमके) तिरुपपुर 1
रमाकांत यादव (भाजपा) आजमगढ़ 11
विनय कुमार (कांग्रेस) श्रवस्ती 9
अनंत कुमार हेगड़े (भाजपा) उत्तरा 3
सुवेंदु अधिकारी (टीएमसी) तमलुक 3
बृजभूषण शरण सिंह (सपा) कैसरगंज 3
(स्त्रोत: एसोशिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म)

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