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मुकदमेबाजी की प्रवृत्ति से लोग बचें

एक परिचय झारखंड हाइकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश विक्रमादित्य प्रसाद के व्यक्तित्व के कई आयाम हैं. वे जितने संवेदनशील जज रहे हैं, उतने ही संवेदनशील लेखक और इनसान भी हैं. सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने जहां एक ओर वाणिज्य कर अधिकरण, निजी तकनीकी संस्थाओं के शुल्क निर्धारण एवं प्रवेश नियंत्रक समितियों के अध्यक्ष, झारखंड/वनांचल आंदोलनकारी चिह्न्किरण आयोग […]


एक परिचय
झारखंड हाइकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश विक्रमादित्य प्रसाद के व्यक्तित्व के कई आयाम हैं. वे जितने संवेदनशील जज रहे हैं, उतने ही संवेदनशील लेखक और इनसान भी हैं. सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने जहां एक ओर वाणिज्य कर अधिकरण, निजी तकनीकी संस्थाओं के शुल्क निर्धारण एवं प्रवेश नियंत्रक समितियों के अध्यक्ष, झारखंड/वनांचल आंदोलनकारी चिह्न्किरण आयोग के अध्यक्ष पद की जिम्मेवारी निभायी, वहीं दूसरी ओर कुछ पुस्तकों के लेखन में भी लगे रहे. जल्द ही बिरसा मुंडा के जीवन और काल पर लिखा गया उनका एक काव्य ग्रंथ प्रकाशित होने वाला है. उनकी एक जटायु और, कौवा, जस्टिस वर्सेज ज्यूडिशियरी, धूसरित आदि पुस्तकों प्रकाशित हो चुकी हैं.
आदिकाल से हमारे गांवों की अपनी न्याय व्यवस्था रही है. पर, हाल के कुछ दशकों में यह कमजोर हुई है. पुलिस व कचहरी तक लोग हर छोटी बात को लेकर पहुंचने लगे हैं. पहले से काम के बोझ तले दबी पुलिस व कोर्ट पर लोगों के इस रवैये के कारण और बोझ बढ़ रहा है. लोगों के लिए त्वरित न्याय दुर्लभ हो गया है. यह सोचना पड़ रहा है कि कैसे न्याय व्यवस्था दुरुस्त हो. इस मुद्दे के विभिन्न पहलुओं पर झारखंड हाइकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश विक्रमादित्य प्रसाद व ग्राम स्वराज मंच के संयोजक शिव शंकर उरांव से राहुल सिंह ने विस्तृत बातचीत की. प्रस्तुत है बातचीत का प्रमुख अंश
आप लंबे समय तक न्यायिक सेवा में रहे हैं. कोर्ट-कचहरी पर इतना बोझ क्यों है?
कोर्ट-कचहरी पर बोझ का पहला कारण बढ़ती जनसंख्या है. जनसंख्या के अनुपात में कोर्ट-कचहरी की संख्या नहीं बढ़ी. जैसे-जैसे हम प्रगति कर रहे हैं, हमारी सामाजिक चेतना बढ़ रही है. अधिकारों के प्रति भी चेतना बढ़ रही है, तो ऐसे में हम न्यायालय की ओर जायेंगे ही. यह चेतना अधिकारों की प्राप्ति की व्यग्रता का कारण है. नये-नये कानून नये-नये अधिकार देते हैं. जैसे घरेलू हिंसा एक्ट. नये कानून आयेंगे तो उससे मिलने वाले अधिकार को लोग प्राप्त करना चाहेंगे ही.
कुछ स्वार्थगत बातें भी हैं. किसी को परेशान करने के लिए फंसा दो. जो विवाद घर में सुलझाये जा सकते हैं, उन्हें लेकर भी अदालत ही चले जाओ. सहनशक्ति नहीं है, विद्वेष है. दहेज कानून का दुरुपयोग हो रहा है. मुकदमेबाजी की प्रवृत्ति भी केस की संख्या बढ़ाती है. दूसरों के अधिकार के प्रति अनादर का भाव भी इसका कारण है. अगर सरकारी स्तर पर केवल कानून को ध्यान में रख कर आदेश पारित नहीं हो, तो ऐसे में लोग अदालत जायेंगे ही.
एक समस्या यह भी है कि जो बातें दोनों पक्षों के बीच सुलझ सकती हैं, उसे वकील ही सुलझाने नहीं देते हैं. जब मैं एसडीजेएम था तो मेरे पास ऐसा एक मामला आया था, ताजिया उठाने के विवाद को लेकर. दोनों पक्ष से करीबन 50-50 लोग थे. उस मामले में एक पक्ष दो दिन जेल में रहा था, तो वह चाहता था कि दूसरा पक्ष भी जेल में रहे. उस मामले में धारा सुलहनीय थी. मैंने दूसरे पक्ष से कहा कि वह अगली तारीख को अगर कोर्ट में हाजिर नहीं होगा तो उसकी जमानत रद्द हो जायेगी और फिर एक दिन उसे जेल में रहना होगा. फिर उस पक्ष के अदालत में पेस होने के बाद विवाद सुलझ जायेगा. और ऐसा ही हुआ.
चौथी बात यह कि ऊपरी न्यायालय में केस इसलिए लंबित हो जाते हैं, क्योंकि कई बार हमारे लोअर कोर्ट के जज वास्तविक फैसला करने में चूक जाते हैं. इससे अपीलीय न्यायालय पर बोझ बढ़ जाता है. इसका एक कारण यह है कि जो ईमानदार अधिकारी हैं, उन्हें भी भय होता है कि उन पर कोई उंगली न उठा दे. इसलिए वे कुछ ऐसे आदेश अपने कैरियर के हित में पारित कर देते हैं, जो निगेटिव होता है. समाज को भी ईमानदार अधिकारियों पर उंगली उठाने से पहले 100 बार सोचना चाहिए.
छोटे-छोटे मुकदमे भी अदालत पहुंच जाते हैं. इन्हें पंचायत स्तर पर क्यों नहीं निबटा लिया जाये? ग्राम न्यायालय की अवधारणा क्या है?
यह सही है कि छोटे-छोटे मुकदमे भी अदालत पहुंच जाते हैं. पहले बिहार में बिहार ग्राम पंचायत एक्ट 1948 था. उसमें सरपंच की व्यवस्था थी. उसमें छोटी चोरी, मारपीट के मामले को निबटाने की व्यवस्था थी. कालांतर में यह पाया गया कि वहां कुछ ऐसी परिस्थितियां पैदा हो गयीं, जिससे स्वतंत्र न्याय नहीं मिल पाता था. दरअसल, अब वह चरित्र नहीं रह गया जो प्रेमचंद के पंच परमेश्वर के आदर्श पर जाकर फैसला दे. जब बड़े-बड़े न्यायालय के जजों पर उंगली उठ रही है, तो पंच क्या हैं?सरपंच के अधिकारों को रद्द करने की शक्ति ऊपरी अदालतों को थी.
अधिकतर मामलों में वे केस जनरल कोर्ट में चले जाते थे. वह व्यवस्था बहुत फलदायी नहीं सिद्ध हुई. फिर ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 बना. यह राज्य पर निर्भर करेगा कि कोई राज्य उसे किस तरह लागू करेगा. ग्राम न्यायालय पंचायत या कुछ पंचायतों को मिला कर बनेंगे. ग्राम न्यायालय का अधिकारी न्याय अधिकारी कहलाएगा. उसके पास प्रथम श्रेणी की न्यायिक शक्तियां होंगी. वह उन सभी मामलों में न्याय दे सकेगा, जिसमें दो साल से अधिक की सजा नहीं होती हो.इसके अलावा साधारण चोरी (379), घर में घुस कर चोरी (380), किसी क्लर्क या नौकर के द्वारा की गयी चोरी (381), जिसमें चोरी की गयी वस्तु का मूल्य भी 20 हजार रुपये से अधिक नहीं हो. अगर कोई चोरी का सामान खरीदता है और उसका मूल्य भी 20 हजार रुपये तक हो तो वह केस ले सकता है. चोरी के माल को बिकवाने (भादवि की धारा 414) के मामले की भी वह सुनवाई कर सकता है, बशर्ते सामान 20 हजार रु से ज्यादा का नहीं हो. अगर कोई किसी के घर में अपराध करने की नीयत से घुसता है (454-456) है, तो उस मामले को भी ग्राम न्यायालय देख सकता है.
इसके अलावा अगर कोई शांति भंग करने की धमकी (504 व 506) दे रहा है, तो उस मामले को भी वह देख सकता है. इस तरह के अपराधों को प्रोत्साहित करने वालों को भी दंडित कर सकता है. यह फौजदारी क्षेत्रधिकार है.दिवानी क्षेत्रधिकार के तहत न्यूनतम वेतन से कम वेतन देने का मामला, छूआछूत का मामला, पुत्र, पत्नी या पिता को गुजारा-भत्ता देने का मामला (125) भी वह देख सकता है. ग्राम न्यायालय बंधुआ मजदूर के मामले भी देखेगा. लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव, घरेलू हिंसा के मामले देखने का भी उसे अधिकार है. इसके अलावा अगर राज्य कोई विशेष कानून बनाता है तो उसे भी वह देख सकेगा.
जमीन, पेड़ खरीद के अधिकार, संपत्ति को खरीदने का अधिकार को लेकर अगर झगड़ा होता है, तो उसकी सुनवाई भी ग्राम न्यायालय कर सकता है. नहर के पानी, पानी के स्नेत को लेकर झगड़ा होने के मामले भी यह देख सकता है. किसी कुएं, टय़ूबवेल के पानी को लेकर झगड़ा होने पर उसे भी वह देख सकता है. गांव में किसी जमीन या फॉर्म हाउस के दखल को लेकर अगर झगड़ा, रुपया के बकाया, न्यूनतम वेतन को बाकी रखने का मामला, सूदखोरी के पैसों को लेकर उत्पन्न विवाद, किसी जमीन पर दो आदमी रोपा करता है तो उस झगड़े को भी यह देख सकता है. वनोपज को लेकर झगड़ा है, तो उसे भी यह ग्राम न्यायालय देखेगा. इसके अलावा राज्य सरकार चाहे तो अधिसूचना जारी कर उन्हें दूसरे मामले को निबटाने का अधिकार दे सकता है.
क्यों जरूरी है यह कानून?
पहले सरपंच की व्यवस्था थी. इसके तहत गांव का विवाद गांव में ही सुलझा लिये जाने की आशा थी. पर, यह फलदायी नहीं रहा. इसलिए एक स्वत्रंत्र व्यक्ति को बाहर से लाकर यह जिम्मेदारी देने का निर्णय लिया गया. ताकि उस पर लोगों का विश्वास हो.
हमलोग कहते हैं कि न्याय खर्चीला है. समय लेता है. सरकार की संवैधानिक जिम्मेवारी सभी को न्याय सुलभ कराने की है. इसको दिलाने के लिए जरूरी है कि न्यायालय आपके द्वारा पहुंचे : जस्टिस एट दी डोर. उसके लिए यह व्यवस्था बनायी गयी. इसी के तहत मोबाइल कोर्ट की व्यवस्था की बात भी कही गयी है. पंचायत बड़ी व दूर-दूर तक फैली हो सकती है. ऐसे में न्याय पहुंचाने के लिए लोगों के घर तक खुद न्यायालय पहुंचेगा. इससे गांव के गरीब व साधनविहीन लोगों को लाभ होने की संभावना बहुत अधिक होगी.
झारखंड में ऐसे न्यायालयों की स्थापना की दिशा में क्या प्रगति है?
यहां ऐसे न्यायालय नहीं बने हैं. पर ऐसे संकेत हैं कि सरकार व उच्च न्यायालय प्रयोगात्मक तौर पर निकट भविष्य में ऐसे न्यायालयों की स्थापना के लिए प्रत्यत्नशील है.
अबतक इसका गठन क्यों नहीं हुआ?
नये काम में 50 अड़चने आती हैं. भवन चाहिए, कर्मचारी चाहिए. व्यवस्था बनानी होती है. इस पर खर्च भी आता है. इन सब चीजों की व्यवस्था करने में समय लगता है.
प्राचीन काल में भारत में पंच परमेश्वर का सिद्धांत था. अंगरेजों के शासन में ऐसी व्यवस्था थी. उससे न्याय मिलता था. लेकिन अब क्या स्थिति है?
कोई चीज हवा में नहीं होती. संस्कृत के एक ोक का अर्थ है : न राजा था, न राज्य था, न दंड था, न दंड देने वाला था. उस समय प्रजा धर्म के माध्यम से एक-दूसरे की रक्षा करती थी. जब मनुष्य का स्वार्थ बढ़ता गया तो हम परस्परिक हित की कामना करने लगे. जब स्वार्थ आता है तो धर्म का लोभ भी उसी अनुपात में हो जाता है. तब अपराध की प्रवृत्ति बढ़ती है. अपराध होने पर पंच की अवधारणा आती है. जिसे पहले सामाजिक और बाद में कानूनी मान्यता मिली.

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