आशुतोष के पांडेय
पटना : किसी की मुस्कुराहटों पे हों निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार- जीना इसी का नाम है. संगीतकार शंकर जयकिशन इस गाने के गीतकार थे तो इसे शब्दों में ढाला था शैलेंद्र ने. मुकेश की दर्द भरी आवाज में यह नगमा 1959 में आई स्व0 राजकपूर की फिल्म अनाड़ी का गाना है. गाने के बोल आज भी उत्प्रेरित करते हैं. यह गाना सटिक बैठता है बिहार के उन युवाओं की टोली पर जो दिल में सरोकार के अरमान लेकर नि:स्वार्थ सेवा की आसमां को छूना चाहते हैं. गुलाबी ठंड में राजधानी पटना गणतंत्र दिवस की खुशियों में शामिल था. गणतंत्र दिवस के दिन ही 8-10 युवकों की एक टोली राजधानी के बीचोबीच स्थित कमला नगर बस्ती में पहुंची जहां गरीबी, गंदगी और मुफलिसी के अलावा मजबूरी के ताने-बाने में जीवन का रंग चढ़ता – उतरता है.
कमला नगर की दर्दभरी कहानी
सुबह के दस बजे हैं. कमला नगर में रोज की भांति चिल्ल पों मची है. बस्ती के ज्यादात्तर लोग साफ-सफाई का काम करते हैं. महिलाएं भीख मांगने से लेकर कूड़ा बीनने का काम करती हैं. बस्ती में मूलभूत अधिकारों से जुड़ी कोई सुविधा नहीं. ठंड में ओढ़ने के लिए कपड़ा नहीं. पीने के लिए पानी नहीं. बच्चों की पढ़ाई तो जैसे सपना है. बस्ती में गणतंत्रता की खुशी दूर-दूर तक नहीं. हालांकि देश के नागरिकइसबस्ती के लोग भी हैं. प्रियंबल ऑफ इंडिया की पहली लाइन सबके लिए लिखी गयी है. वी द पीपुल.
बस्ती में पहुंची युवाओं की टोली
बस्ती में दर्द हर चौखट पर बिखरा पड़ा है. बच्चों की मुस्कान यहां राष्ट्र की शान नहीं. यहां के लोगों के चेहरे पर सिर्फ सवाल है. आखिर गणतंत्र दिवस में हम अकेले क्यों हैं. देशभक्ति गानों की आवाज इस बस्ती से दूर कही टकरा कर लौट जाती है. इस बस्ती में पहुंचने वाले युवा रिद्म, जयप्रकाश, अभिषेक, हर्ष राज, सत्य प्रकाश और प्रभात अपने हाथों में गत्ते के कार्टून लेकर पहुंचते हैं. इनके पहुंचते ही बच्चों की भीड़ जमा हो जाती है. फिर शुरू होता राष्ट्रीय मिठाई जिलेबी के बंटने का दौर. बच्चे भी खाते हैं और बस्ती की औरतें भी. बेंगलुरु में इंजीनियरिंग कर रहे इन युवकों की टोली आखिर क्यों उन युवाओं से अलग है जो कैफे में कुरकुरे खाकर नये संस्कारों के साथ दुनियां को अपनी मुठ्ठी में करना चाहते हैं? क्यों इन युवाओं के मन में अभी से यह बात घर कर गयी है कि सेवा धर्म हमारा, सर्वे संतु निरामया? हम जब इन युवकों की टोली सेमिले तो इन्होंने जो बताया वह काफी चौका देने वाला था. यह युवा जब पटना से बेंगलुरु पढ़ाई के लिए रवाना हो रहे थे उसी वक्त पटना जंक्शन पर इन्होंने देखा कि एक मां भूख से रो रहे अपने कुपोषित बच्चे को कचरे से उठाकर बिरयानी खिला रही है. यह दृश्य इनके लिए इतना भयावह था कि इन्होंने उसी दिन ठान लिया कि, हर काम के लिए, हर बात के लिए और हर समस्या के लिएसरकार को दोषी ठहराना ठीक नहीं.
बिहार चैप्टर की शुरुआत
इन युवाओं ने संवेदना को मन से निकालकर उसे इंसानियत के विचारों में पिरोया और एक टीम खड़ी कर दी जिसका नाम दिया हिलिंग इंडिया. युवाओं की टोली से बात करने पर उन्होंने बताया कि उनकी टीम में 50 से 60 लोग हैं. अब तक उन्होंने बेंगलुरु की स्लम बस्ती में और कर्नाटक के कई इलाकों में जाकर प्रोवर्टेड लोगों के लिए काम किया है. इस बार यह युवक 10 दिन के प्रवास पर बिहार चैप्टर के लिये आये हैं. हिलिंग इंडिया की टीम पटना के उन इलाकों में कपड़ा,खाना और दैनिक जरूरतों का समान मुहैया कराने का प्रयास करेगी. जिन बस्तियों में लोग तो हैं लेकिन वहां वेलफेयर स्टेट और उसके नुमाईंदे नहीं हैं. कमला नगर राजधानी पटना के उस इलाके में अवस्थित है जहां सामने बड़ी राजनीतिक पार्टियों के कार्यालय हैं. बस्ती में स्कूल, पीने का पानी, बिजली एक सपने की तरह है. ढाई हजार से ज्यादा दिहाड़ी मजदूरों की इस बस्ती में आजतक कोई राजनेता नहीं गया.
सेवा को बनाया जिंदगी का लक्ष्य
हिलिंग इंडिया के युवा अपने दोस्तों के बीच पुराने कपड़े, घर में रखे पुराने खिलौने, खाने के बर्तन, बच्चों के कपड़े, शॉल या फिर अपनी पॉकेट मनी बचाकर स्नैक्स और खाने की सामग्री खरीदकर इन बस्तियों में बांटते हैं. अभी इनकी टीम में शामिल सभी युवा अपने-अपने घरों से समान और पैसा हिलिंग इंडिया के लिए दे रहे हैं. आने वाले दिनों में यह हर उस बस्ती में जाना चाहते हैं जहां मूलभूत सुविधाओं का आज भी घोर अभाव है. बस्ती की महिलाएं जब अपना दर्द बयां करती हैं तो इंसानियत जार-जार कर रोती है. उस रुदन को सुनने के लिए सियासत के पास समय नहीं है. बची-खुची जिंदगी भी बस यूं ही कट रही है. हिलिंग इंडिया के युवा 15 से लेकर 25 सालों के बीच के हैं. वर्तमान में जहां युवाओं का समय मॉल के साथ आभाषी दुनिया से परिपूर्ण एंड्रायड के साथ उनकी जिंदगी एक्टिव मोड में रहती है वहीं हिलिंग इंडिया टीम के युवाओं का यह जज्बा एक मिसाल कायम करता है. शायद शैलेंद्र ने ठीक ही लिखा है, जीना इसी का नाम है.