हंग्रामा मोहिलारी और उनके साथी लंबे समय तक भारत सरकार की चरमपंथियों की सूची में शामिल थे. लेकिन कुछ दिन पहले उनकी मौजूदगी में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम में भाजपा का चुनाव अभियान शुरू किया.
मोहिलारी को इतनी अहमियत पहली बार नहीं मिली. कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र की यूपीए सरकार के भी वे इतने ही दुलारे थे. एक शातिर चरमपंथी से चतुर राजनेता बने मोहिलारी के उभरने की कहानी बेहद दिलचस्प है.
असम में विधानसभा चुनाव को लेकर एक बार फिर वे राजनीतिक रंग में रंगे हुए हैं.
मैं जब भी उनसे मिलता हूँ, मुझे तुरंत याद आता है कि किस तरह कथित तौर पर उनके लगाए एक बम से मैं मरते-मरते बचा था.
दरअसल हंग्रामा मोहिलारी ने 1992 में गुवाहाटी के भीड़भाड़ वाले पलटन बाज़ार में एक बस में बम फ़िट कर दिया था.
मुझे वह तारीख़ तो याद नहीं, पर मैं यह नहीं भूल पाता कि उस ज़बर्दस्त धमाके में 43 लोग मारे गए थे और 152 ज़ख़्मी हुए थे.
मैं उस दिन अपने पत्रकार दोस्त शैबाल दास और रूबेन बनर्जी के साथ होटल नंदन में रात का खाना खाकर उठा था और बाहर आकर सिगरेट के कश लगा रहा था कि बम धमाका हो गया.
मैं झटके के साथ ज़मीन पर गिरा और अपने साथ रूबेन और शैबाल को भी नीचे खींच लिया. हम लोग एक जीप के पीछे खड़े थे. बम के तमाम टुकड़े उस जीप को लगे. उस समय तो यह ख़्याल ही नहीं आया कि यदि वहां जीप न होती तो हमारा क्या होता.
मोहिलारी उस समय भूमिगत संगठन बोडो वॉलंटियर्स फ़ोर्स के नेता थे और ‘थेबला बसुमतारी’ के छद्म नाम से जाने जाते थे.
समझा जाता है कि उन्होंने ही वह बम बनाया था, जिसने बस और उसके आसपास खड़ी दूसरी गाड़ियों के परखच्चे उड़ा दिए थे.
प्रमिला रानी ब्रह्म समेत खुले तौर पर काम करने वाले तमाम बोडो राजनेताओं को इस वारदात में शामिल होने और मोहिलारी और उनके साथियों को पनाह देने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था.
पलटन बाज़ार में इस धमाके और ग़ैर बोडो लोगों पर हमलों के बाद भारत सरकार इस मुद्दे को सुलझाने के लिए मजबूर हुई.
तब केंद्र सरकार के मंत्री राजेश पायलट ने अलग बोडो राज्य के लिए आंदोलन चला रहे लोगों से बात की. इन विद्रोहियों का नारा था, "असम को बराबर-बराबर बांट दो." इस नारे से असमिया जनजाति के लोग आज भी असहज हो जाते हैं.
लेकिन असम के मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने इस समझौते के साथ भितरघात किया. इस वजह से इसे लागू नहीं किया जा सका.
मोहिलारी ने बोडो लिबरेशन टाइगर्स फ़ोर्स (बीएलटीएफ़) बनाकर अपनी लड़ाई तब तक जारी रखी, जब ठीक 10 साल बाद 2003 में केंद्र की भाजपा सरकार ने इस संगठन के साथ एक बार फिर समझौता नहीं कर लिया.
मोहिलारी ने उस समय सुर्खियां बटोरीं जब 1999 के करगिल युद्ध में उन्होंने पाकिस्तानी घुसपैठियों के साथ लड़ने के लिए केंद्रीय गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के सामने अपने छापामारों के साथ मोर्चे पर जाने का प्रस्ताव रखा.
मोहिलारी ने 2003 में भाजपा नेतृत्व वाली केंद्र सरकार से साथ समझौता किया. इसके बाद उनके संगठन के 2,641 छापामारों ने हथियार डाले तो भाजपा ने इसे अपनी कामयाबी बताया था.
पश्चिमी असम का बोडो इलाक़ा पूर्वोत्तर के लिए प्रवेश द्वार है. यही इलाक़ा पूर्वोत्तर को शेष भारत से जोड़ता भी है. यह सिलीगुड़ी गलियारे के पास भी है. इसलिए यहां चल रही छापामार लड़ाई रोकना और समस्या के समाधान के लिए समझौता करना वाकई अहम था.
साल 2003 में समझौते के बाद मोहिलारी ने बोडोलैंड पीपल्स फ़्रंट (बीपीएफ़) के नाम से अपना राजनीतिक दल बनाया लेकिन 2004 का आम चुनाव भाजपा हार गई.
इसके बाद कांग्रेस केंद्र और असम की सत्ता में आई और मोहिलारी ने देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के साथ समझौता कर लिया.
2006 में हुए बोडोलैंड स्वायत्तशासी परिषद के चुनाव में मोहिलारी की पार्टी ने आसान जीत दर्ज की. कांग्रेस के साथ गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ने के बाद उसे कांग्रेस मंत्रिमंडल में जगह मिली.
उसी साल राज्य विधानसभा का चुनाव उन्होंने कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा, सीटें जीतीं और सरकार में शामिल हुए.
पांच साल बाद एक बार फिर कांग्रेस बीपीएफ़ के साथ प्रदेश की सत्ता में लौटी और बोडोलैंड स्वायत्तशासी परिषद की सत्ता में बीपीएफ़ की वापसी हुई.
दूसरे बोडो संगठनों और ग़ैरबोडो लोगों पर मोहिलारी के समर्थकों के हमलों और काफ़ी धूमधाम और शानशौकत से हुई उनकी शादी भी सुर्खियों में रही.
असमिया भाषा के कई अख़बारों की शिकायत रही कि बोडो इलाक़े में उनके छापामारों, ख़ासकर बीएलटीएफ़ के पूर्व छापामारों ने कई बार उनके अख़बार का वितरण रोक दिया.
अब जब असम में चुनाव होने जा रहे हैं तो मोहिलारी एक बार फिर पाला बदलकर कांग्रेस का साथ छोड़ भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए में शामिल हो गए हैं.
पूर्वोत्तर भारत के विद्रोही जब राजनेता बन जाते हैं, तो अमूनन सत्ता के साथ ही रहते हैं. वे कभी भी दिल्ली में राज कर रही पार्टी के ख़िलाफ़ नहीं जाते. मोहिलारी भी अलग नहीं हैं.
राजनीतिक विश्लेषक समीर दास कहते हैं, ”उनके लिए यह ज़रूरी है कि वह बोडोलैंड स्वायत्तशासी परिषद की सत्ता में रहें. और यह तब तक नहीं होगा, जब तक वह सही जगह नहीं होंगे. सत्ता विरोधी लहर में उन्हें भी उतना ही घाटा हुआ, जितना की असम में कांग्रेस को. लेकिन उन्हें लगता है कि वह भाजपा के साथ जाकर इसकी भरपाई कर सकते हैं.”
वह 2006 से बोडोलैंड स्वायत्तशासी परिषद के मुख्य कार्यकारी हैं.
दस साल लंबा अंतराल होता है लेकिन सत्ता विरोधी लहर कमज़ोर करने के लिए मोहिलारी ने कुछ ख़ास नहीं किया, सिवाय सही सहयोगी का चुनाव करने के.
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