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रोजगार की व्यवस्था कहां है बिहार में

सुमन कुमार सिन्हा,मुंबई से जॉब आॉपरच्यूनिटी अगर बिहार में होती, तो हम मुंबई में नहीं होते, लेकिन इस मामले में वहां की जो स्थिति 1991 में थी, वही आज भी है. आज भी वहां के युवा दिल्ली, मुंबई, पुणो जैसे शहरों की ओर भाग रहे हैं. यह बड़े शहर में या बड़ी जगह पर काम […]

सुमन कुमार सिन्हा,मुंबई से

जॉब आॉपरच्यूनिटी अगर बिहार में होती, तो हम मुंबई में नहीं होते, लेकिन इस मामले में वहां की जो स्थिति 1991 में थी, वही आज भी है. आज भी वहां के युवा दिल्ली, मुंबई, पुणो जैसे शहरों की ओर भाग रहे हैं. यह बड़े शहर में या बड़ी जगह पर काम करने का आकर्षण नहीं, उनकी मजबूरी है. अपने राज्य में उन्हें रोजगार दिलाने की कोई व्यवस्था नहीं है. सरकार के पास नौकरी नहीं है. इतनी नौकरी उसके पास हो भी नहीं सकती है. बेरोजगारी को कम करने के लिए उसके पास जो योजनाएं हैं, वह बहुत प्रैक्टिकल और प्रोग्रेसिव नहीं हैं. राज्य में कोई बड़ा कारखाना या उद्योग नहीं है. युवाओं को नौकरी दे सके, ऐसी कंपनी नहीं है. शिक्षा का भी वही हाल है.

तमाम सुधार और विकास के बाद भी क्वालिटी और टेक्निकल एजुकेशन की न तो व्यवस्था है, न माहौल. इस मामले में जिस तेजी से देश के कई दूसरे राज्य आगे बढ़ें, उस लिहाज से बिहार बहुत ही पीछे है. ग्लोबल वर्ल्ड के इस दौर में सफलता पाने के लिए पुराने तौर-तरीके वाली शिक्षा व्यवस्था और माहौल में रह कर कुछ कर पाना संभव नहीं है. इसलिए अच्छी शिक्षा के लिए भी मां-बाप अपने बच्चों को बिहार से बाहर भेज रहे हैं. आम आदमी को छोड़ दीजिए, वहां के मिनिस्टर, लीडर और ब्यूरोक्रेट्स भी यही कर रहे हैं. जब राज्य का यह हाल है, तो उन्हें यह बताना चाहिए कि बिहार का विकास कहां हुआ और इसके लिए जिम्मेवार कौन है? 1987 में मुङो इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए कर्नाटक जाना पड़ा था, क्योंकि बिहार में सीटें सीमित थीं. आज भी वही हाल है. पढ़ाई पूरी करने के बाद बिहार में नौकरी की तलाश की.

पिता जी जमशेदपुर इलेट्रिसिटी बोर्ड में थे. वहां भी कोशिश की. थक-हार कर मुंबई आ गया और अब तो यहीं का हो गया हूं. आज भी वहां के नौजवानों की भी यही हालत है. इससे समझा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर विकास के मामले में बिहार कहां खड़ा है? हमने बिहार का बड़ा बुरा दौर देखा है और वहां से बाहर रह कर भी उसके दर्द के महसूस किया है, जब बिहार की खराब छवि के कारण हमारे प्रति यहां के लोगों की सोच खराब थी. दस साल में बिहार की छवि सुधरी है. विकास का माहौल और विश्वास भी बना है, लेकिन इस अवधि में जो विकास दूसरे कुछ राज्यों में हुआ है, उस अनुपात में बिहार अब भी पिछड़ा हुआ है. मेरा मानना है कि वहां के गांवों में सड़क और बिजली को छोड़ दें, तो विकास का और कोई बड़ा काम नहीं हुआ है. वहां की जो स्थिति दस साल पहले तक थी, उस लिहाज से इसे बदलाव कह सकते हैं, लेकिन विकास नहीं. इसे लोगों और नेताओं को समझना होगा.

राज्य को विकास की जिस पटरी पर पिछली सरकार ने लाया है, उससे उम्मीद बनी है. इस उम्मीद को और मजबूती देने की जरूरत है. चुनाव का पैटर्न बदलना चाहिए. अगर विकास को हम मुद्दा नहीं बनायेंगे, तो हमारा राज्य हमेशा दिल्ली-मुंबई-कोलकाता जैसे शहरों की ओर भागता रहेगा. नेता अगर वास्तव में राज्य के बारे में सोचते हैं, तो उन्हें अवसरवाद छोड़ना होगा. जनता को एक बार फिर मौका मिलने जा रहा है. उन्हें बहुत सोच-विचार कर वोट करना चाहिए. डेमोक्रेसी में यह उसकी परीक्षा की घड़ी होगी.

लेखक जहानाबाद जिले के रहने वाले हैं. कर्नाटक से पढ़ाई करने के बाद मुंबई की एक बड़ी कंपनी में इंजीनियर हैं. बिहार की राजनीति को लेकर ठोस सोच रखते हैं.

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