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एक साल में ही हो गया जनता का मोहभंग

उम्मीदों की लहरों पर सवार होकर आयी नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल पूरे हो गये हैं. बिहार के परिप्रेक्ष्य में मोदी सरकार की घोषणाएं कितनी जमीन पर उतर पायी हैं, यह जानने की कोशिश की प्रभात खबर के पटना ब्यूरो प्रमुख मिथिलेश ने वरिष्ठ जदयू नेता और बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क तथा […]

उम्मीदों की लहरों पर सवार होकर आयी नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल पूरे हो गये हैं. बिहार के परिप्रेक्ष्य में मोदी सरकार की घोषणाएं कितनी जमीन पर उतर पायी हैं, यह जानने की कोशिश की प्रभात खबर के पटना ब्यूरो प्रमुख मिथिलेश ने वरिष्ठ जदयू नेता और बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क तथा जल संसाधन मंत्री विजय कुमार चौधरी से.

नरेंद्र मोदी अपने को प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि प्रधान संतरी और प्रधान सेवक कहते हैं. आपकी क्या राय है?

मैं व्यक्तिगत पहनावे पर नहीं जाता. जब चुनावी नतीजे आये थे तो प्रधानमंत्री पद के लिए चुने गये नरेंद्र मोदी ने कहा था कि एक साल में देश की दशा और दिशा बदल देंगे. लेकिन, इस एक साल की अवधि में पूरे देश में जनता का मूड निराशा में बदल गया है. जिस ढंग से भाजपा और नरेंद्र मोदी ने सपने बेचे थे, उससे जनता का मोहभंग हो चुका है.

इनके चुनावी वायदों पर गौर करेंगे, तो सारे के सारे वायदे लफ्फाजी साबित हुए हैं. प्रधान संतरी और प्रधान सेवक सिर्फ जुमला है. जिस तरह से उन्होंने काले धन के चुनावी वायदे को जुमला करार दिया उसी प्रकार प्रधान संतरी और सेवक भी जुमला साबित हुआ है.

2014 का लोकसभा चुनाव उम्मीदों का चुनाव था. भाजपा ने महंगाई खत्म करने, विकास दर बढ़ाने, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और कालाधन वापस लाने की उम्मीदें जगायी थी. सरकार के एक साल पूरे हुए, आप इसे किस रूप में देखते हैं?

चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने देश को सपना दिखाया था, महंगाई दूर करने का, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने का. लेकिन, एक साल की अवधि में इन सबकी उपलब्धि नगण्य है. जैसा कि पिछले समय देखा गया कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतें कम हो रही थीं, तो यहां भी कम होती गयीं. क्षणिक तौर पर देखा गया कि महंगाई नियंत्रित हुई.

लेकिन, सबसे आश्चर्य का विषय यह है कि जब पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतें अंतरराष्ट्रीय कारणों से घट रही थीं, इसका श्रेय भी भाजपा और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ले रहे थे और अपनी पीठ थपथपा रहे थे. अब जब एक ही सप्ताह में दो-दो बार पेट्रोलियम पदार्थो की कीमतों में बढ़ोतरी हुई, तब तो कीमत पर नियंत्रण नहीं कर पाने की जिम्मेवारी भी प्रधानमंत्री को लेनी चाहिए. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ. बेरोजगार नौजवान उदास हैं.

उन्हें रोजगार के मौके मिलने का सपना दिखाया गया था. कल-कारखाने लगे नहीं. जितने दिवास्वप्न युवाओं को दिखाये गये, सब के सब खोखले साबित हुए. काले धन पर सरकार की उपलब्धि और प्रतिक्रिया अनोखी है. वायदा किया था भ्रष्टाचार मिटाने का, विदेश में रखे पैसा वापस लाने का. लेकिन उसे अब जुमला कह लोगों को बरगलाया जा रहा है.

सत्ता पक्ष इसे जुमला कह कर अपनी जिम्मेवारी की इतिश्री कर लेता है. जिस ढंग से प्रधानमंत्री चुनावी भाषणों में जनता से सीधे वार्तालाप कर पूछते थे कि काला धन वापस आना चाहिए या नहीं आना चाहिए.. जनता जब तक हां नहीं कहती, तब तक वह अपना प्रश्न दोहराते थे. आज देश की जनता उनसे पूछ रही है कि काला धन वापस लाओगे या नहीं लाओगे.

मोदी ने कहा था कि बिहार समेत पूर्वी राज्यों को गुजरात की तरह बना देंगे. इस परिप्रेक्ष्य में आप इस सरकार का किस रूप में आकलन करते हैं?

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार की नीतियों से तो बिहार जैसे पिछड़े प्रदेशों की हकमारी बढ़ गयी है.

बिहार की जनता को स्पष्ट याद है कि चुनाव के दौरान मोदीजी ने बिहार को विशेष राज्य का दरजा, विशेष ध्यान और विशेष सहायता.. स्पेशल अटेंशन, स्पेशल सहायता और स्पेशल पैकेज जैसे वायदों को परोस कर रख दिया था. बिहार की जनता टकटकी लगाये देख रही है.

14वें वित्त आयोग की अनुशंसाओं को लागू करने के पश्चात बिहार को जो वित्तीय नुकसान हो रहा है, उसकी भरपाई का आश्वासन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने 2015-16 के बजट भाषण के दौरान दिया था, किंतु प्रगति शून्य है. उलटे हर विभाग में चल रही योजनाओं में केंद्र की हिस्सेदारी को भी घटा दिया गया है. कृषि विभाग के द्वारा किसानों को बीज, जैविक खाद, बागवानी आदि के लिए पूर्व से दी जा रही विशेष सहायता में भारी कटौती कर दी गयी है.

इससे बिहार के किसानों के हितों की अनदेखी हुई है. अभी खरीफ की फसल का वक्त है और संकर धान जिसका तेजी से उपयोग बिहार के किसान करने लगे हैं, पिछली केंद्रीय सरकार ने उसके बीज के लिए दो सौ रुपये प्रति किलो की भरपूर मदद की थी.

इस बार केंद्र सरकार ने इन योजनाओं में मदद को घटा कर सीधे पचास रुपये कर दिया है. केंद्र के इस बेरहम फैसले की चोट हमारे किसानों पर कम पड़े, इसलिए बिहार सरकार ने अपने खजाने से पचास रुपये प्रति किलो अनुदान देने का फैसला किया. जिससे किसानों को कम से कम एक सौ रुपये प्रति किलो का अनुदान मिल सके. इसी तरीके से बाढ़ प्रबंधन की योजनाओं में भी केंद्रीय सहायता में भारी कटौती की गयी है.

बाढ़ प्रबंधन की अधिकतर योजनाओं में केंद्र की हिस्सेदारी या तो 90 प्रतिशत या फिर 75 प्रतिशत हुआ करती थी, लेकिन नरेंद्र मोदी की सरकार ने सभी योजनाओं में केंद्रीय सहायता की राशि घटा कर पचास प्रतिशत कर दी है. इस कारण भी बिहार को अपने लोगों को बाढ़ से सुरक्षित रखने के लिए पिछले वर्ष की तुलना में अधिक पैसे खर्च करने पड़ेंगे. जो बिहार जैसे गरीब और पिछड़े प्रदेश के लिए भारी दवाब का विषय होगा.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का पक्ष लेनेवाले अर्थशास्री जगदीश भगवती ने भी पिछले दिनों लिखा कि मोदी को जुमलेबाजी से बचना चाहिए. आप इस पर कुछ कहना चाहेंगे?

जो भी संवेदनशील व्यक्ति होगा, लोकहित में या जनहित में सोचने की कोशिश करेगा, वह स्वभाविक तौर पर किसी को भी जुमलेबाजी से बचने की सलाह देगा. यदि मामला प्रधानमंत्री का हो तब तो यह सुझाव और भी सटीक बैठता है. हम नहीं समझते हैं कि इसका कोई असर प्रधानमंत्री पर पड़ने वाला है. क्योंकि उनकी तो यूएसपी और खासियत ही यही है. इसे ही वह अपनी ताकत समझते और मानते हैं.

थोड़ी देर के लिए उनको अपनी जुमलेबाजी की ताकत पर गर्व होना स्वभाविक भी है क्योंकि इसी ताकत के बल पर उन्होंने बिहार और पूरे देश की जनता को गुमराह कर केंद्र में सत्ता हासिल की है.

भूमि अधिग्रहण विधेयक को आप कितना नुकसानदेह मानते हैं? नये अध्यादेश में कौन-सी चीजें हैं जो किसानों के लिए नुकसानदेह हैं?

जो नया भूमि अधिग्रहण विधेयक एनडीए सरकार लायी है, वह किसानों के हितों के विरुद्ध है. हम इसलिए इसका विरोध करते हैं कि इसमें किसानों की रजामंदी का प्रावधान छीन लिया गया है. यूपीए सरकार ने जिस विधेयक को पास कराया था, उसे एनडीए सरकार ने हटा दिया है.

या कहिए कि डाइल्यूट (हल्का या बेअसर) कर दिया है. अब किसान यदि नहीं भी चाहेंगे, तो जबरन उनकी जमीन का अधिग्रहण कर लिया जायेगा. एक और महत्वपूर्ण तथ्य यह कि जिस मकसद से किसानों की जमीन सरकार अधिगृहीत करेगी, उस मकसद को बदला जा सकता है. पहले, जमीन का सही उपयोग नहीं किया गया तो उस जमीन को किसानों को वापस कर देने का प्रावधान था. एनडीए सरकार ने इस प्रावधान को हलका कर दिया है.

औद्योगिक कॉरीडोर जैसे कुछ मामले ऐसे हैं जिस पर किसानों के अधिकार को अवक्रमित कर दिया गया है. यानी किसानों के अधिकार छीन लिये गये हैं. यह पूरी तरह किसानों के हितों पर कुठाराघात है.

एक साल पहले नरेंद्र मोदी का माहौल था. आपको लगता है कि अब यह दरका है? यदि हां, तो इसके दरकने के कारक क्या हैं?

नरेंद्र मोदी के सभी चुनावी वायदे जुमलेबाजी थी. एक भी वायदा जमीन पर नहीं उतर पाया. अनैतिक सहारा लेकर जिस ढंग से नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा सत्ता में आयी, उसकी एक न एक दिन पोल तो खुलनी ही थी. भाजपा को बेनकाब तो होना ही था. हां, एक चीज अच्छी यह हुई कि चुनावी वायदे पर यह प्रतिक्रिया अप्रत्याशित गति से हुई.

सबसे खतरनाक प्रवृत्ति जो दिख रही है वह यह कि देश की कीमत पर एक राजनेता की छवि चमकाने की कोशिश हो रही है. प्रधानमंत्री अपनी विदेश यात्रएं करते हैं. रॉकस्टार परफार्मर की तरह घूमते मंच पर भाषण देकर लोगों को आकर्षित करते हैं. लेकिन, इन यात्रओं से देश को क्या मिल रहा है, आम लोगों को क्या मिलता है, जनता नहीं जान रही है.

देश से बड़ा एक व्यक्ति को बताने की कोशिश की जा रही है.

शैक्षणिक और सांस्कृतिक स्तर पर जो सरकार ने फैसले किये उनको आप किस नजरिये से देखते हैं? सांप्रदायिकता को आधार बना कर कुछ भाजपा नेताओं की बयानबाजी पर प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की चुप्पी भी सवालों के घेरे में है.

शैक्षणिक और सांस्कृतिक स्तर पर सरकार के फैसले स्पष्ट दिख रहे हैं. सामाजिक और सांप्रदायिक सद्भाव का माहौल बिगाड़ कर राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश हो रही है. जिस ढंग से इन दोनों क्षेत्रों से जुड़े संस्थानों में विवादास्पद संगठनों से जुड़े लोगों को बिठाया जा रहा है, लगता है कि इस देश के इतिहास से छेड़छाड़ की साजिश की जा रही है. यह देश के सामने बड़ी चुनौती है. सामाजिक सौहार्द का ताना-बाना तोड़ने की कोशिश हो रही है.

नहीं तो भाजपा के नेतागण यहां तक कि सांसद भी धर्मातरण जैसे संवेदनशील मुदों पर एक से एक विवादास्पद बयान देते रहे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व गृह मंत्री राजनाथ सिंह मौन साधे रहे! यह उनकी मौन स्वीकृति नहीं तो और क्या है? आज भाजपा को समर्थन देनेवाला संगठन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को महिमामंडित करे और केंद्र तथा प्रधानमंत्री चुप्पी मार कर इसकी मौन स्वीकृति दें, इससे बड़ा इस देश को कलंकित करने का और दूसरा प्रयास हो नहीं सकता.

जब सत्ता-लोलुपता की बात आती है तो घोषित तौर पर देशद्रोहियों और अलगाववादियों को समर्थन देनेवाली राजनीतिक ताकतों एवं पार्टी के साथ समझौता कर जम्मू-कश्मीर सरकार में शामिल होना, यह किस बात की ओर इंगित करता है. इन सारी घटनाओं पर गौर करने से स्पष्ट होता है कि यह सब फिक्स मैच की तरह है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी के कोई व्यक्ति धर्मातरण की बात करता है तो कोई गोडसे को पूजता है और कोई आतंकवादियों की हौसलाआफजाई करता है. इस पर प्रधानमंत्री चुप्पी साध कर मौन समर्थन दे रहे हैं.

नरेंद्र मोदी ने अभी बिहार को लेकर जातीयता से ऊपर उठने की बात कही है. क्या भाजपा खुद जातीय कार्ड खेल रही है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जातिवाद समाप्त करने का सुझाव उस कहावत को चरितार्थ करता है, जिसमें कहा गया है कि ‘नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली’. यह सरकार खास कर प्रधानमंत्री हज करने के बाद भी चूहे खा रहे हैं.

चुनाव अभियान से लेकर सभी कार्यक्रमों में जातीय कार्ड खेलनेवाले नेता एवं पार्टी आज दूसरे को नसीहत देते घूम रहे हैं. खुद नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के दौरान अपने को अति पिछड़ा कह प्रधानमंत्री बनाने की अपील करते रहे.

क्या वह जातीय कार्ड नहीं था? लोगों की संकीर्ण भावनाओं को उभार कर राजनीतिक रोटी सेंकने की कोशिश के रूप में इसे नहीं माना जाना चाहिए? जिस सरकार या नेता की बुनियाद में ही जातीय सोच भरी हो, तो उस नेता और पार्टी को दूसरे को जाति व्यवस्था से ऊपर उठ कर सोचने की सलाह देना न सिर्फ बेमानी है, बल्कि बेईमानी भी है. इस श्रृंखला के तहत कल पढ़िए केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री जयंत सिन्हा से खास बातचीत

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