दो नवंबर 1834 को 36 भारतीय मज़दूर मॉरीशस में ठेके पर मज़दूरी करने गए थे. इस पहले दल ने जिन सीढ़ियों पर चढ़कर मॉरीशस की ज़मीन पर कदम रखा था, वो आज भी मौजूद हैं.
आप्रवासी घाट की इन सीढ़ियों पर चढ़कर अगले 80 साल तक लाखों भारतीय गन्ने के खेतों में काम करने पहुंचते रहे.
इन्हीं भारतीय ठेका मज़दूरों के आगमन की 180वीं जयंती पर रविवार से 4 नवंबर तक पोर्ट लुइस में एक अंतर्राष्ट्रीय कॉंफ्रेंस हो रही है.
इसकी अध्यक्षता मॉरीशस के प्रधानमंत्री नवीनचंद्र रामग़ुलाम कर रहे हैं और इसमें भारतीय विदेशमंत्री सुषमा स्वराज भी शिरकत कर रही हैं.
‘महान प्रयोग’
आप्रवासी घाट में आज भी कुली डिपो, अप्रवासी डिपो की इमारतें मौजूद हैं.
इनके रहने के लिए बनी झोपड़ियां, किचन, शौचालय और अस्पताल की इमारत के अलावा 14 सीढ़ियां तो हैं ही.
ये मज़दूर ब्रिटिश साम्राज्य के ‘महान प्रयोग’ में शामिल थे, जिसमें गन्ने की खेती में ग़ुलामों के बजाय ‘मुफ़्त’ मज़दूरों का इस्तेमाल होना था.
आप्रवासी घाट मॉरीशस की पहचान का एक महत्वपूर्ण चिह्न है क्योंकि इसकी 70 फ़ीसदी से ज़्यादा आबादी के पूर्वज इसी आप्रवासी डिपो से होकर यहां पहुंचे थे.
1933 में ब्रितानी संसद ने अपने उपनिवेशों में ग़ुलामी प्रथा ख़त्म करने का फ़ैसला किया.
इसके बाद उन्होंने खेतों में काम करने के लिए बड़े पैमाने मज़दूरों की नियुक्ति के लिए नई व्यवस्था, ठेका मज़दूरी शुरू की गई. क्योंकि मॉरिशस के फलते-फूलते चीनी उद्योग में बड़ी संख्या में मज़दूरों की ज़रूरत थी.
साल 2006 में यूनेस्को में स्थाई प्रतिनिधि भास्वती मुखर्जी, जो वर्ल्ड हैरिटेज कमेटी में भारत के प्रतिनिधि भी थे, ने मॉरीशस और अफ़्रीकी समूह की ओर से आप्रवासी घाट को वर्ल्ड हैरिटेज साइट का दर्जा देने की मांग की थी.
मुखर्जी ने एक लेख में जानकारी दी है कि अप्रवासी घाट को वर्ल्ड हैरिटेज साइट्स की लिस्ट में शामिल कर लिया गया है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए यहां क्लिक करें. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर भी फ़ॉलो कर सकते हैं.)