भारत के वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने पिछले कुछ राष्ट्रपतियों की तुलना में मृत्युदंड पर अपने फ़ैसले देने में तेज़ी दिखाई है.
मुखर्जी ने अपने कार्यकाल के शुरुआती सात महीनों में उतने दोषियों की फांसी पर मुहर लगाई जितने कि पिछले 15 साल में नहीं लगी थी.
उन्होंने निठारी कांड में सज़ा पा चुके सुरेंदर कोली की फांसी की सज़ा से जुड़ी क्षमा याचिका ख़ारिज कर दी है. कोली की पुनर्विचार याचिका सुप्रीम कोर्ट में विचारधीन है.
वहीं 2002 के गुजरात दंगों में दोषी ठहराई गई पूर्व मंत्री माया कोडनानी को भी ज़मानत मिल गई है.
भारत की आम जनता फांसी की सज़ा की माँग करती है जो न्याय भावना के बजाय बदले की भावना से प्रेरित है.
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दो अपराधियों का भविष्य ख़बरों है. इनमें से एक कोडनानी को 2002 के दंगों में उनकी भूमिका के लिए 28 साल की सज़ा हो चुकी है.
फ़िलहाल उन्हें स्वास्थ्य कारणों से ज़मानत मिली हुई है. इसी महीने गुजरात की सरकार ने कहा कि वो स्पेशल प्रॉसिक्यूटिंग बॉडी के उस फ़ैसले के ख़िलाफ़ है जिसमें कोडनानी की ज़मानत का विरोध किया गया है.
दूसरे हैं, सुरेंदर कोली, जिन्हें भारत के हालिया इतिहास के सबसे जघन्य मामलों में से एक माने जाने वाले मामले निठारी कांड में सज़ा हुई है.
कोली के कृत्य की चर्चा करते हुए हर्ष मंदर ने ‘द हिन्दू’ में लिखा, "उस समय 33 साल के कोली को कम से कम 16 बच्चों के साथ जीवित या मृत हालात में बलात्कार करने, उनके अंगों को काटने और खाने का दोषी ठहराया गया."
‘आख़िरी मौक़ा’
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने कोली की सज़ा पर 29 अक्तूबर तक के लिए रोक लगा दी है. लेकिन ज़मीनी सच यही है कि राष्ट्रपति मुखर्जी के कार्यकाल में मौत की सज़ा की दर काफ़ी अधिक है.
मौत की सज़ा के मामले में राष्ट्रपति की सम्मति ही आख़िरी फ़ैसला होती है और अगर राष्ट्रपति किसी की फांसी माफ़ी की याचिका ख़ारिज कर दें तो इसका मतलब है कि दोषी की मौत निश्चित है.
राष्ट्रपति ने कोली की याचिका जुलाई में ही ख़ारिज कर दी थी. अगले हफ़्ते होने वाली सुनवाई कोली के वकीलों के लिए उन्हें मृत्युदंड से बचाने का आख़िरी मौक़ा होगा.
‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में 11 फरवरी, 2013 को छपी एक रिपोर्ट के अनुसार मुखर्जी ने अपने कार्यकाल के पहले सात महीनों में जितने दोषियों के मृत्युदंड को सम्मति दी है उतने लोगों को पिछले 15 साल में मौत की सज़ा नहीं मिली थी.
दया का हक़?
कोली के वकील का कहना है कि उनके मुवक्किल से प्रताड़ित करके इक़बालिया बयान लिया गया था और अगर उनकी बात सच है तो भी उससे पता चलता है कि वो मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं.
मंदर ने अपने लेख में लिखा है, "क्या ऐसा कोई व्यक्ति दया का हक़दार है? क्या इस मामले में हम यह नहीं कह सकते कि दुनिया इस आदमी के बग़ैर पहले से बेहतर होगी? लेकिन उसके मामले ने जो कि एक बेहद जघन्य अपराध हैं, मृत्युदंड के ख़िलाफ़ मेरे विरोध को और भी पुख्ता किया है…"
"अगर कोई अपराध किसी मनौवैज्ञानिक विकृति के कारण होता है, चाहे वो कितना भी जघन्य या घिनौना हो, सभ्य, मानवीय समाज और संवैधानिक मान्य उपायों से उस समस्या का इलाज़ खोजेंगे, न कि दोषी को मिटा देंगे. कोली को एक जल्लाद की नहीं डॉक्टर की सख्त ज़रूरत है."
मैं मंदर के विचारों से सहमत हूँ. मुझे नहीं लगता कि किसी को फांसी पर लटकाना किसी समस्या का हल है. मैं यह भी कहूँगा कि 60 साल से ज़्यादा उम्र की माया कोडनानी को ज़मानत दिया जाना भी ग़लत नहीं है.
बदला या न्याय
मैं पहले भी लिख चुका हूँ कि भारत में मौत की सज़ा की मांग न्याय भावना के तहत नहीं बल्कि बदले की भावना के तहत की जाती है.
यह एक आदिम समाज का लक्षण है और हमें यह स्वीकार करना होगा कि शिक्षित भारतीय भी इन भावनाओं से परे नहीं हैं. यह कहना ग़लत नहीं होगा कि अपराध रोकने के कई आदिम उपाय इन्हीं भावनाओं की उपज होते हैं.
हमारे क्षेत्र में भीड़ द्वारा किसी को मार दिया जाना असमान्य बात नहीं है, जैसा काल लोगों के साथ क़रीब सौ साल पहले अमरीका में होता था, इसी तरह भारत में किसी को चोरी या दुर्व्यवहार के लिए घायल कर देना या मार देना आम जनता में स्वीकार्य बात है.
यह कृत्य भी उसी बदले की भावना से जन्म लेता है और इसे सामूहिक और पुरज़ोर तरीक़े से महसूस किया जाता है.
भीड़ भले ही पीड़ित न हो वो आहत महसूस करती है और सज़ा देने को अपना हक़ समझती है. भारतीय उपमहाद्वीप में बहुत तेज़ी से भीड़ इकट्ठा हो जाती है और यह भीड़ आदिम सोच से संचालित होती है जो इसे जानलेवा बना देती है.
‘दोषपूर्ण फ़ैसला’
साल 2012 में फ्रंटलाइन पत्रिका में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार 14 न्यायाधीशों ने राष्ट्रपति से देश के विभिन्न जेलों में बंद 13 मृत्युदंड प्राप्त दोषियों की सज़ा में दखल देने की गुज़ारिश की थी.
रिपोर्ट के अनुसार न्यायधीशों ने कहा था, "हम राष्ट्रपति से अनुरोध कर रहे हैं क्योंकि ख़ुद सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया है कि इन 13 लोगों को ग़लती से मौत की सज़ा दी गई थी."
राष्ट्रपति को यह भी बताया गया कि दो लोगों को ग़लती से फांसी दी भी जा चुकी है.
राजस्थान के रहने वाले रावजी राव और सुरजा राम को दोषपूर्ण फ़ैसले के बाद क्रमशः चार मई, 1996 और सात अप्रैल, 1997 को फांसी दे दी गई थी.
ऐसे हालात में भी यह ध्यान देने की बात है कि हमारे राजनेता और हमारा मीडिया माफ़ी के नहीं बल्कि फांसी को लेकर चीख-पुकार मचाता है.
मीडिया का दायित्व
दिल्ली में चलती बस में हुए बलात्कार के अभियुक्तों को दोषी ठहराए जाने के बाद सीएनएन ने अपनी रिपोर्ट में कहा, "शुक्रवार को जो भीड़ अदालत के बाहर चार बालिग दोषियों को फांसी की सज़ा पर ख़ुशियाँ मना रही थी वही भीड़ मामले में अभियुक्त किशोर पर अपना ग़ुस्सा उतार रही थी. भीड़ मांग कर रही थी कि "किशोर को भी फांसी पर लटकाओ."
यह राज्य और मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि ऐसी हालत में जनता की भावनाओं को शांत करे.
अंत में शेक्सपीयर की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करना चाहूँगा. उनके नाटक ‘मर्चेंट ऑफ़ वेनिस’ की ये पंक्तियाँ हमें स्कूल में बिना समझे-बूझे याद कराई गई थीं. लेकिन आज वयस्क होने के बाद मैं इन पंक्तियों का आशय ज़्यादा बेहतर ढंग से समझ पा रहा हूँ.
"द क्वालिटी ऑफ़ मर्सी इज नॉट स्ट्रेंड
इट ड्रापेथ एज द जेंटल रेन फ्राम हेवेन
अपॉन द प्लेस बिनिथ. इट इज ट्वाइस ब्लेस्ड:
इट ब्लेसेथ हिम दैट गिव्स एंड हिम दैट टेक्स."
(दया की महिमा कम नहीं हुई है / यह स्वर्ग से बारिश की हल्की फुहार के रूप में / गिरती है धरती पर, जिसमें छिपा है दोहरा आशीष/ इसका सुफल मिलता है उन्हें जो दया दिखाते हैं और उन्हें भी जो इसे पाते हैं)
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