देश में हो रहे आम चुनावों के कारण राजनीतिक उबाल इन दिनों चरम पर है. कमोबेश सभी राजनीतिक दल चुनाव परिणाम के बाद सत्ता सुख भोगने को लालायित हैं. सभी दलों के नेता रैलियों पर रैलियां करके जनता के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. फिर चाहे वो क्षेत्रीय पार्टियां हों या राष्ट्रीय दल, सभी अपने-अपने ढंग से और लोकलुभावने वायदों से जनता के बीच अपनी खोयी हुई साख को पुन: स्थापित करने के प्रयास में अग्रसर हैं.
जहां भारतीय जनता पार्टी तमाम प्रिंट एवं टीवी सर्वेक्षणों का भाजपा के प्रति अनुकूल होने की वजह से पूरे जोश से लबरेज दिखायी दे रही है, तो वहीं मौजूदा संप्रग-2 अपने कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार, घोटाले की वजह से कांग्रेस अंदरूनी तौर पर 2009 लोकसभा चुनाव के मुकाबले कहीं न कहीं हताश एवं निराश दिखायी दे रही है. भाजपा अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर निर्भर होकर केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के आसार देख रही है, लेकिन हाल ही में भाजपा की ओर से घोषित की गयी उम्मीदवारों की सूची में महज कुछ एक सीटों के फायदे के लिए दूसरे राजनैतिक दलों से आये नेताओं को भी अपने पाले में शामिल करने के लिए दिखायी जा रही बेताबी भी साफ दिख रही है.
कुछ दिनों पहले तक नरेंद्र मोदी और भाजपा की मुखालफत करनेवाले चंद नेताओं को भाजपा ने अपने साथ जोड़ कर चुनावी डील की आशंका को बढ़ा दिया है. रामकृपाल यादव, सतपाल महराज, पुरंदेश्वरी, जगदंबिका पाल आदि की विचारधारा में अचानक आया परिवर्तन समझ से परे है. ऐसे में सवाल उठता है कि अगर सच में ‘नमो’ की कोई लहर है, तो आयातित नेताओं की जरूरत क्यों पड़ रही है.
मदन तिवारी, लखनऊ