(कन्हैया झा, नयी दिल्ली)
देशभर में आज ‘बाल दिवस’ का आयोजन किया जा रहा है. इस दिवस के आयोजन की चकाचौंध में उन तमाम मुद्दों को भुला दिया जाता है, जो बच्चों समेत देश के विकास में एक बड़ी बाधा के रूप में खड़े हैं. आजादी के छह दशक से ज्यादा समय बीतने के बावजूद आज हम देश में प्रत्येक बच्चे को समग्र स्वास्थ्य सुविधा समेत पोषण की समुचित व्यवस्था मुहैया करा पाने में असमर्थ हैं. देश-दुनिया की तमाम संस्थाओं ने भारत में इन हालातों की भयावहता को इंगित किया है. देश में बाल बंधुआ मजदूरी, बच्चों में कुपोषण, खराब शिक्षा व्यवस्था समेत तमाम उन मसलों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज, जो बच्चों के समग्र विकास में बाधक है..
पिछले एक सप्ताह से हम इस बात को लेकर ‘फीलगुड’ का एहसास कर रहे हैं कि हमारा देश मंगल ग्रह पर जाने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ चुका है. इसके साथ ही हम दुनिया में एक महाशक्ति के रूप में उभरे हैं, जो अंतरिक्ष विज्ञान की दुनिया में बहुत आगे तक अपने कदम बढ़ा चुका है. इस मामले में भले ही हम दुनिया के चार अग्रणी देशों (अमेरिका, यूरोपीय संघ और रूस) में शामिल हो चुके हों, लेकिन देश में बच्चों की स्थिति की दशा पर यदि हम गौर करेंगे, तो बेहद चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं.
भूख और कुपोषण पर नजर रखने वाली एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान’ की ओर से जारी रिपोर्ट (2010) में भारत में कुपोषण की स्थिति को पाकिस्तान और श्रीलंका से भी बदतर बताया गया है. इस सूची में भारत 67वें नंबर पर है, जबकि पड़ोसी पाकिस्तान का नंबर 52वां है. श्रीलंका में हालात और बेहतर हैं और उसका नंबर 39वां है.
अमरीका स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट ने 122 विकासशील देशों के आंकड़ों के आधार पर एक ‘भूख सूचकांक’ जारी किया है. इसमें कहा गया है कि भारत में कुपोषित बच्चों की संख्या 44 प्रतिशत है. इस सर्वेक्षण के तीन आधार थे- बच्चों की मृत्युदर, उनमें कुपोषण की स्थिति और कम कैलोरी पर जीवित रहने वाले लोगों की संख्या.
इस विषय में एक गंभीर चिंता का विषय यह भी है कि इनमें बालिकाओं की संख्या बालकों के मुकाबले ज्यादा है. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे स्वास्थ्य सुविधा की दृष्टि से पिछड़े राज्यों में तो इसके हालात बेहद भयावह हैं. साथ ही, गुजरात, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे विकसित कहे जाने वाले राज्यों में भी इस तरह के बहुत से मामले देखे जाते हैं.
स्कूली शिक्षा से वंचित बच्चे
यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स फंड ने वर्ष 2009 में भारत में स्कूल से वंचित बच्चों के बारे में चिंता जतायी. बताया गया कि देशभर में 80 लाख से ज्यादा बच्चे मौलिक स्कूली शिक्षा से वंचित रह जाते हैं. यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स फंड ने उस समय इसे राष्ट्रीय आपात की स्थिति बताया था. इसके बाद से सरकार और सिविल सोसायटी के लोगों ने इस ओर ध्यान दिया. हालांकि, इसके बाद से स्कूल जानेवाले बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी जरूर हुई, लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि हालात पूरी तरह से सुधर चुके हैं.
नेशलन यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन की ओर से बताया गया है कि देशभर में पिछले तीन सालों में स्कूल जानेवाले बच्चों की संख्या बढ़ी है. स्कूल जानेवाले बच्चों की संख्या में पिछले तीन सालों में 1.118 करोड़ बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. हालांकि, इस मामले में ‘लड़का-लड़की’ का भेद जरूर एक चिंता का विषय है. स्कूल जानेवाले लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या कम है. साथ ही, शिक्षा पूरी होने से पहले ही स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की तादाद भी कम नहीं है.
तमाम सरकारी कोशिशों के बावजूद इस पर नियंत्रण नहीं हो पाया है. हालांकि, इस मामले में कुछ सुधार जरूर हुआ है और पिछले तीन सालों के दौरान प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर इसमें 27 फीसदी की कमी आयी है, जबकि प्रारंभिक शिक्षा के स्तर पर इसमें 41 फीसदी की कमी आयी है. हालांकि, देशभर में सरकारी शिक्षा मुहैया होने के बजाय निजी शिक्षा को बढ़ावा मिला है.
बाल श्रम का कुचक्र
सरकार की ओर से भले ही तमाम योजनाएं बनायी गयी हों, लेकिन बंधुआ मजदूरी और खासकर बच्चों में बंधुआ मजदूरी अभी भी बरकरार है. हाल में जारी ग्लोबल स्लेवरी इंडेक्स-2013 की रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में बाल बंधुआ मजदूरों की दशा बहुत ही दयनीय है. सरकारी आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि देश में डेढ़ करोड़ बच्चे बाल मजदूरी करते हैं. स्वयंसेवी संगठनों के अनुसार तो यह आंकड़ा छह करोड़ के आस-पास है. यह सब तब है, जब बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम, 1976 में स्पष्ट प्रावधान है कि मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से कम दिया जाना, निर्धारित घंटों से ज्यादा काम करवाना तथा उन्हें ओवरटाइम न दिया जाना कानूनन अपराध है. इस संबंध में बनाये गये कानूनों का सख्ती से पालन नहीं होने की वजह से देश के कई इलाकों में आज भी बड़ी संख्या में बच्चे बंधुआ मजदूरी की चपेट में हैं.
स्कूलों से बाहर रहने पर विवश
देश में ज्यादा से ज्यादा बच्चों को शिक्षा मुहैया कराने के लिए कुछ वास्तविक कार्यो को किये जाने की जरूरत है. इसके लिए शिक्षक की गुणवत्ता, क्लासरूम टीचिंग, स्कूल का प्रभावी तरीके से संचालन और उन्नत स्कूल प्रबंधन आदि को सुदृढ़ बनाना होगा. इस मकसद को हासिल करने के लिए पढ़ाई के तरीके और उसकी गुणवत्ता को उन्नत करने को फोकस करना होगा, क्योंकि स्कूल और पढ़ाई-लिखाई की खराब व्यवस्था के नतीजे खराब ही आयेंगे. ग्रामीण इलाकों में मौजूद ज्यादातर स्कूलों में अभी भी पीने के पानी और शौचालय की सुविधा समेत अनेक मौलिक सुविधाओं का अभाव है. बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग के मुताबिक, देश के ज्यादातर इलाकों में स्कूलों में भाषायी शिक्षक नहीं हैं. बताया गया है कि देश के 300 जिलों में करवाये गये एक सर्वेक्षण में यह पाया गया कि 37 फीसदी स्कूलों में भाषा के शिक्षकों का अभाव है. जबकि 31 फीसदी स्कूलों में सामाजिक अध्ययन के शिक्षक और 29 फीसदी स्कूलों में गणित और विज्ञान के शिक्षकों का अभाव है. इस आयोग के अध्यक्ष का मानना है कि बेहतर नतीजा हासिल करने के लिए ‘शिक्षा के अधिकार’ का दायरा बढ़ाते हुए उसे बारहवीं कक्षा तक किया जाना चाहिए.
खतरे में जिंदगानी
देश को आजाद हुए छह दशक से ज्यादा समय बीत चुका है. देश ने बुनियादी ढांचों के निर्माण के मामले में बेहद तरक्की की है. लेकिन बच्चों की सेहत और उन्हें पर्याप्त शिक्षा मुहैया कराने की दिशा में हमारा देश कई पिछड़े देशों से भी पीछे है. अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ‘लैंसेट’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बाल मृत्यु दर की स्थिति देश के विकसित राज्यों में भी बहुत अच्छी नहीं है. बताया गया है कि देश में बाल मृत्यु की दर कुछ इलाकों में तो केन्या जैसे पिछड़े देशों से भी बदतर है. वर्ष 2012 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में प्रत्येक एक हजार बच्चों में 57.3 बच्चे (पांच वर्ष से कम उम्र वाले) मौत के मुंह में चले जाते हैं. सहस्त्रब्दी विकास लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में यह देश के सामने एक बड़ी चुनौती हो सकती है. इन आंकड़ों को देखते हुए तो फिलहाल यही कहा जा सकता है कि देश के 597 में से केवल 222 जिलों में ही वर्ष 2015 तक सहस्त्रब्दी विकास लक्ष्यों को हासिल कर पायेंगे. यदि इसकी गति यही रही तो समग्र रूप से इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए देश को 2020 तक का इंतजार करना पड़ सकता है.
मादक पदार्थो में लिप्तता
देश में बच्चों और किशोरों के बीच मादक पदार्थो के सेवन की घटना की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा है. इसकी प्रमुख वजह यह है कि एक किशोरावस्था में पहुंच रहा बच्च अपने आसपास उपलब्ध चीजों का प्रयोग करते हुए खुद की एक अलग पहचान बनाना चाहता है. हालांकि, भारत जैसे विकासशील देश में यह प्रवृत्ति विकसित देशों के मुकाबले कुछ कम जरूर है, लेकिन धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है. साथ ही, समाज में इन चीजों की स्वीकार्यता भी बड़ी तेजी से बढ़ रही है. आधुनिक लाइफ स्टाइल के नाम पर किशोर इन चीजों का सेवन शुरू कर देते हैं. बच्चों में मादक पदार्थो के सेवन के संबंध में अनेक अध्ययन किये गये हैं.
एक गैर-सरकारी संगठन की ओर से कराये गये सर्वेक्षण की रिपोर्ट बहुत ही चौंकाने वाली है. देश में मादक पदार्थो से होनेवाली बीमारियों से पीड़ित रोगियों में से 63.6 फीसदी 15 वर्ष से कम उम्र में मादक पदार्थो की चपेट में आ चुके थे. हेरोइन, अफीम, शराब, भांग और गांजा- ये पांच ऐसे प्रमुख मादक पदार्थ हैं, जो भारत में बच्चों द्वारा प्रमुखता से सेवन किये जाते हैं.
भारत में इस मामले में सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इन चीजों से सख्ती से निबटने के लिए कोई नीति नहीं है. बच्चों द्वारा तंबाकू को विविध तरीकों से इस्तेमाल करना भी एक बड़ी समस्या बनती जा रही है. बच्चों में मादक द्रव्यों के सेवन से पैदा होनेवाली समस्याओं से निबटने के लिए पर्याप्त हेल्थ सेंटर्स का भी अभाव है. खासकर, ग्रामीण इलाकों में तो बहुत कम ही ऐसे हेल्थ सेंटर्स हैं. एक रिपोर्ट में बताया गया है कि देश में सालाना दो करोड़ बच्चे तंबाकू के सेवन की शुरूआत करते हैं. मणिपुर में बच्चों की दशा का अध्ययन करते हुए ‘चाइल्डलाइन इंडिया फाउंडेशन’ ने वर्ष 2008 में रिपोर्ट जारी की थी. इसमें बताया गया था कि ‘हेरोइन’ जैसे गंभीर मादक पदार्थ भी बच्चों को आसानी से मुहैया हो जाते हैं.
विकास की राह में बाधक कुपोषण
भारत में बच्चों में कुपोषण की स्थिति बेहद भयावह है. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वन मंत्रलय की हालिया रिपोर्ट में इसकी दशा को इंगित किया गया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 2012 में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में 48 फीसदी बच्चे कुपोषण का शिकार हैं. इसका मतलब यह हुआ कि देशभर में तकरीबन आधे बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं.
ये आंकड़े सरकार के उन दावों की कलई खोलते हैं, जिसमें देश में बच्चों की ‘सुधरती’ स्थितियों को लेकर लंबी-चौड़ी बातें की जाती हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, पिछले सात वर्षो में देश में कुपोषण की अवस्था में महज 20 फीसदी ही सुधार हो पाया है. यह स्थिति तब है, जब इन चीजों से निबटने के लिए देश में कई सरकारी योजनाएं लागू हैं.
कम वजन वाले बच्चे
कुपोषण के साथ ही बच्चों में वजन कम होने की समस्या देश में बेहद गंभीर है. इससे बच्चों में कई तरह की बीमारियां होने की आशंका रहती है. देश में पांच वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों में सामान्य से कम वजन की समस्या से मध्य प्रदेश सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य है. इस उम्र समूह में मध्य प्रदेश में 60 फीसदी बच्चे कम वजन की समस्या की चपेट में हैं, जबकि झारखंड में 56.5 फीसदी और बिहार में 55.9 फीसदी बच्चे इस समस्या की चपेट में हैं. रिपोर्ट में बताया गया है कि बिहार समेत मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और झारखंड में ज्यादातर बच्चे (छह माह से पांच वर्ष तक की उम्र समूह के) एनीमिया से प्रभावित हैं.
कुपोषण दूर करने के लिए आइसीडीसी
पिछले वर्ष ही प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने बच्चों में कुपोषण से प्रभावित देश के सबसे खराब हालात वाले 200 जिलों में ‘इंटेग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट स्कीम’ (आइसीडीसी) लागू की है. इस योजना के माध्यम से देशभर में कुपोषण से जंग के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है. समयबद्ध लक्ष्य को हासिल करने में विफलता मिलने से हाल ही में इस योजना की दोबारा से समीक्षा की गयी है. इसे नये सिरे से लागू किया है, ताकि देश के प्रत्येक बच्चे तक इसकी पहुंच कायम हो सके.
जानकारों का मानना है कि आइसीडीसी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस कार्यक्रम में अभी भी व्यापक बदलाव की जरूरत है. विश्व बैंक की रिपोर्ट में भी इस ओर इंगित किया गया है. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि अफ्रीकी देशों के मुकाबले भारत में बच्चों का वजन सामान्य से कम है. साथ ही, इससे कुपोषण से होनेवाली संबंधित समस्याओं के बारे में भी चिंता जतायी गयी है. रिपोर्ट में बताया गया है कि देश का आर्थिक विकास ही समुचित नहीं माना जा सकता. कुपोषण की समस्या से निजात पाने के लिए व्यापक निवेश करते हुए मूलभूत सुविधाएं मुहैया करानी होंगी. विश्व बैंक ने इसके लिए सलाह दी है कि आइसीडीसी की नीति निर्माण के इरादों और उसके वास्तविक में लागू किये जाने की प्रक्रिया में कुछ गैप है. इस गैप को जल्द से जल्द पाटते हुए इस नीति को प्रभावी बनाया जा सकता है.