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बड़ी समस्या के लिए बड़ी तैयारी की जरूरत

हमारी सुरक्षा एजेंसियां संसाधनों की कमी से जूझती हैं, जबकि आतंकियों को हर तरह के संसाधन मुहैया कराये जाते हैं. हम एक संगठन पर नकेल कसने की तैयारी करते हैं, वह दूसरे नाम से खड़ा हो जाता है. पिछले दिनों पटना मे भाजपा की रैली में आतंकी हमला हुआ. इस आतंकी हमले की जांच को […]

हमारी सुरक्षा एजेंसियां संसाधनों की कमी से जूझती हैं, जबकि आतंकियों को हर तरह के संसाधन मुहैया कराये जाते हैं. हम एक संगठन पर नकेल कसने की तैयारी करते हैं, वह दूसरे नाम से खड़ा हो जाता है.

पिछले दिनों पटना मे भाजपा की रैली में आतंकी हमला हुआ. इस आतंकी हमले की जांच को आगे बढ़ाते हुए जब खुफिया एजेंसियों ने अपनी जांच आगे बढायी तो न सिर्फ रैली स्थल पर कई बम मिले बल्कि रांची जैसे शहर में घरों में भी बम पाये गये. इससे आम जन में भय का माहौल बनना स्वाभाविक है. इससे यह भी साफ हो गया कि आतंकवादी कम क्षमता के बम बना रहे हैं और उन्होंने जगह-जगह पर अपने रिसोर्स सेंटर बनाकर रखा है.

ऐसा तब हो रहा है जब खुफिया एजेंसियों द्वारा बिहार से कुछ ही महीने पहले यासीन भटकल और आतंकी अब्दुल करीम टुंडा की गिरफतारी की गयी थी. इससे लोगों को एक उम्मीद बंधी थी कि हमारी खुफिया एजेंसियां आतंकियों की धर-पकड़ में सफलता पा रही हैं और इससे उनका मनोबल कम होगा. आतंक के फैकटरियों का दायरा सिमटेगा. लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं. न हम बोधगया आतंकी हमले से चेते, न ही इन गिरफ्तारियों के बाद हमने पुरजोर कार्रवाई करते हुए आतंकवाद के पूरे मॉडय़ूल को जड़ से मिटाने का प्रयास किया.

हालांकि ये धमाके या धमाके के उद्देश्य से प्लांट किये बमों की क्षमता ज्यादा नहीं थी. न ही तकनीकि दृष्टि से ये ज्यादा उन्नत दिखे. ऐसे में यह कहा जा सकता है कि इन संगठनों से जुड़े निचले स्तर के आतंकियों ने इन धमाकों के जरिये यह जताने का प्रयास किया हो कि उनके संगठन के बड़े लोगों की गिरफ्तारी के बावजूद उनका मनोबल टूटा नहीं है. इस कसौटी पर अगर घटना को देखा जाये तो आतंकवादी भारत के किसी भी इलाके में आतंकी घटना को अंजाम देने में सक्षम हैं. और हमारे पास फिलहाल इस तरह के आतंकवाद को रोकने का कोई तरीका नहीं है.

लेकिन, इसके बावजूद यह भी सच्चई है कि नवंबर 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले के बाद आतंकियों द्वारा किसी भी वारदात को उन जगहों पर अंजाम नहीं दिया गया जो सुरक्षित क्षेत्र में आते हों. इससे यह साफ जाहिर होता है कि वे लुक-छिप कर तो छोटे-बड़े आतंकी हमले को अंजाम दे सकते हैं , लेकिन किसी भी सुरक्षित इलाके में हमला करने की हिम्मत नहीं जुटा सक ते. हमारी सुरक्षा एजेंसियां इनके बचाव में सक्षम है. हालांकि कश्मीर इसका अपवाद है.

हम आतंकवाद को रोकने का कोई तरीका विकसित नहीं कर पाये हैं. आतंकी वारदात हो या आम वारदात, हमें सब के लिए तैयारी करनी पड़ेगी. हमारे पास आतंकवाद पर चर्चा तो बहुत होती है, लेकिन सुरक्षा एजेंसियों को मजबूत करने पर पुख्ता ध्यान नहीं दिया जाता. कोई भी आतंकी हमला होता है, तो सबसे पहले इस बात पर ही राजनीति शुरू हो जाती है कि क्या घटना के विषय में कोई खुफिया जानकारी थी? लेकिन इस बात पर कोई चर्चा नहीं करता कि देश में खुफिया एजेंसियां किस हाल में हैं. खुफिया सूचनाएं जुटाने के लिए उन्हें कितने अधिकारियों, कर्मचारियों की जरूरत है. इसी तरह पुलिस की नाकामी की चर्चा हम करते हैं, लेकिन पुलिस बल को पर्याप्त सुविधा देने, उनके आनुपातिक जरूरतों को ठीक करने की दिशा में, पुलिस आधुनिकीकरण और पुलिस सुधार जैसे विषयों पर फैसला नही लिया जाता. साफ है कि हम चाहते हैं कि देश सुरक्षित हो, लेकिन सुरक्षा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के प्रति जरा भी गंभीरता नहीं दिखाते. दोनो चीजें साथ-साथ नहीं चल सकतीं. अगर आपको आतंकवाद की समस्या से निबटना है तो आपको इसको कुचलने के लिए मजबूती से सामने आना होगा.

हमारी सुरक्षा एजेंसियां संसाधनों की कमी से जूझती हैं, जबकि सीमापार से आतंकियों को हर तरह के संसाधन मुहैया कराये जाते हैं. हम एक संगठन पर नकेल कसने की तैयारी करते हैं, वह दूसरे नाम से खड़ा हो जाता है.

जिसे पाकिस्तान की आइएसआइ अपने पैसों, अपने साधनों से पोषित करती है. कभी यह जेकेएलफ, अल मुजाहिदीन के नाम से सामने आता है तो कभी जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर ए तैयबा के नाम से. हम कदम उठा रहे हैं, लेकिन हमारे कदम उनके नेटवर्क को तोड़ पाने में कितनी कामयाबी पाते हैं, यह बड़ा सवाल है. हम केवल कश्मीर की सीमा को सुरक्षित करने में लगे होते हैं. जबकि आतंकी नेपाल, बांग्लादेश,आदि के रास्ते घुसपैठ की तैयारी में रहते हैं. इसलिए हमें अपनी तैयारी को और तेज करते हुए उन्हें चारों तरफ से घेरने का प्रयास करना होगा.

अजय साहनी
सुरक्षा मामलों के जानकार

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