एनसीइआरटी के पूर्व निदेशक कृष्ण कुमार की पहचान बच्चों के अधिकार और शिक्षा के मसले पर काम करने वाले संवेदनशील विचारक की रही है. प्रस्तुत आलेख में उन्होंने महत्वपूर्ण तरीके से मौजूदा व्यवस्था में शिक्षा के उद्देश्य के मसले की व्याख्या की है. इस आलेख के लिए हम राजेश उत्साही जी के आभारी हैं, जिन्होंने इस आलेख का लिप्यांतर किया है और इसे हमने टीचर्स ऑफ इंडिया वेबसाइट से साभार लिया है.
उद्देश्य का अर्थ होता है कि आज हम जहां हैं, उससे आगे के किसी बिंदु की कल्पना करें. उस बिंदु की तरफ बढ़ने के लिए जो उत्साह चाहिए जो ऊर्जा चाहिए, उसको अपने भीतर महसूस करें. इस दृष्टिकोण से अगर देखें तो शिक्षा का उद्देश्य एक बच्चे के मन में, उसकी मां या पिता के मन में या समाज और राज्य के संदर्भ में अलग-अलग तरीके से निर्धारित कर सकते हैं.
एक बच्चे के मन में शिक्षा का उद्देश्य इसी तरह सोचा जा सकता है कि वो बच्चा जब थोड़ा-सा बड़ा होगा, तब उसकीरुचियां, उसकी प्रवृतियां किस-किस रूप में हमें विकसित अवस्था में दिखाई देंगी. अगर आप किसी मां या पिता के दृष्टिकोण से विचार करें तो हम कह सकते हैं, उनके लिए अपने बच्चे की शिक्षा का उद्देश्य यह दिखाता है कि यह बच्चा जब बड़ा होगा तो किस रूप में उनके सपनों को साकार करेगा. और अगर इसी बात को समाज के या पूरे राष्ट्र के संदर्भ में उठायें तो आप कह सकते हैं कि एक सामूहिक सहमति से अगर कोई सपना, भविष्य का कोई बिंदु किसी समाज में स्थापित हुआ है या पहचाना गया है तो वो एक उद्देश्य के रूप में काम कर सकता है.
इस लिहाज से देखें तो हमारे देश का संविधान अपने आप में एक उद्देश्य देता है. एक ऐसा समाज का सपना देता है, जहां सामाजिक सद्भाव और शांति का आधार न्याय होगा, समता होगी. मुख्य बात हमारे संविधान में यही है. यानी कि एक ऐसा राज्य जहां पर कि शांति कानून और व्यवस्था की वजह से नहीं बल्किन्याय की वजह से और राज्य में न्याय देने की क्षमता में आस्था की वजह से होगी.
और इस उद्देश्य के लिए संविधान एक परिवर्तनकारी भूमिका शिक्षा को देता है. इस दृष्टिकोण से देखें तो संविधान बहुत स्पष्टता से निर्धारित कर देता है कि शिक्षा को किन मूल्यों के लिए और किन आदर्शो के लिए काम करना चाहिए. ये हमारे संविधान के बिलकुल शुरु आती हिस्से में इतने सुंदर ढंग से रखे गये हैं कि इनको पढ़ कर हम शिक्षा की भूमिका भारत के समाज के संदर्भ में बड़ी आसानी से पहचान सकते हैं.
एक ऐसे समाज की कल्पना वहां की गयी है, जहां का हर व्यक्ति नागरिक होगा. यानी उसको अपने देश को चलाने की प्रक्रिया में सोच समझकर भागीदारी करने का अधिकार होगा, सिर्फ अवसर नहीं होगा, बल्कि अधिकार होगा. यानी एक ऐसे समाज की वो परिकल्पना है जहां हर व्यक्ति अपने दिमाग से सोच सके, अपने निर्णय खुद ले सके और किसी के दबाव में नहीं और न ही किन्हीं परंपराओं के दबाव में, बल्किअपने दिमाग से अपने विवेक से सोच सके और अपनी भावना से सामाजिक कार्यों में देश के निर्माण में जुड़ सके. तो यहां एक ऐसे लोकतांत्रिक व्यक्तित्व की कल्पना है, जो किसी के सोचे हुए सच का मोहताज नहीं है, जो अपना रास्ता खुद बना सकता है. जिसमें आत्मनिर्भरता है, बौद्धिक स्तर की भी और उपार्जन के लिए भी. अगर आप इन दोनों दृष्टिकोणों से देखें तो ऐसे एक लोकतांत्रिक नागरिक का निर्माण करना. यही संविधान की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य उभरता है.
और इसमें जो सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कि एक बच्चा जन्म से ही जिन स्वाभाविक क्षमताओं के साथ पैदा होता है उन स्वाभाविक क्षमताओं का आदर शिक्षा व्यवस्था कर सके और उन क्षमताओं को इस हद तक बढ़ा सके कि वो एक लोकतांत्रिक समाज में सामूहिक भागीदारी के साथ काम करने की क्षमता उस बच्चे में विकसित की जा सके.
अब अगर आप इस दृष्टिकोण से थोड़ा और आगे बढ़ें तो बड़ी आसानी से समझ सकते हैं कि हमारी आज की जो शिक्षा व्यवस्था है उसमें ऐसे कौन से तत्व हैं, उसके चरित्र में ऐसी कौन-सी कमजोरियां हैं जो हमें संविधान के द्वारा निर्धारित इस उद्देश्य को पाने की दिशा में आगे बढ़ाने की जगह कुछ रोकती हैं या अवरुद्ध करती हैं. ऐसी कौन-सी कमजोरियां हैं.
इनकी अगर फेहरिस्त बनाएं तो बड़ी आसानी से हमारा ध्यान इस बात की ओर जाएगा कि हमारी शिक्षा व्यवस्था दरअसल एक ऐसे युग में स्थापित हुई जब लोकतंत्र की ऐसी परिकल्पना नहीं थी. यानी वो युग था उन्नीसवीं सदी के पूर्वाद्ध का. जब भारत में अंगरेजी शासन था. जिसको औपनिवेशिक शासन कहते हैं. और जो थोड़े से लोगों की मदद से एक औपनिवेशिक किस्म का शासन चलाता था.
जिसमें भागीदारी का प्रश्न नहीं था. एक व्यवस्था के प्रति, एक बनी बनाई व्यवस्था के प्रति निष्ठा उत्पन्न करने का ही केवल प्रश्न था. ये जो पूरी औपनिवेशिक प्रक्रि या है ये अन्य क्षेत्रों में राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित हुई. उसके दबाव में धीरे-धीरे उसमें परिष्कार हुआ और अगर आप उन्नीसवीं सदी के मध्य से लेकर और आजादी के मिलने तक के इन सौ वर्षों का नजारा लें तो देख सकते हैं कि कितने बड़े सामाजिक परिवर्तनों से राष्ट्रवादी आंदोलन ने हमारे समाज को गुजारा. एक नयी चेतना को जन्म दिया, जो राज्य के ढांचे को लोकतंत्र के निर्माण के लिए तैयार करने के लिए छटपटा रही थी. और इसीलिए आजादी में एक गहरा सांस्कृतिक परिवर्तन का नक्शा और सपना देख सकते हैं. जिसको संविधान ने शब्द दिए हैं.
शिक्षा व्यवस्था के साथ एक झंझट दिखलाई देता है कि जिन सुधारों की जरूरत शिक्षा व्यवस्था को थी एक औपनिवेशिक प्रक्रिया से निकल कर के और एक लोकतांत्रिक प्रक्रि या बनने के लिए उन सुधारों के अमल में बहुत परेशानियां आयीं. ऐसा नहीं है कि कोई सुधार नहीं हुआ.
लेकिन अगर हम कुछ बुनियादी मुद्दों पर सुधारों की बात करें तो हमें लगेगा कि आजादी के बाद जो पहला राष्ट्रीय आयोग बना था, मुदलियार आयोग जिसको कहते हैं, जिसका मुख्य फोकस माध्यमिक शिक्षा पर था; उसके नजरिए से अगर देखें, 1952-53 का यह आयोग है, तो ऐसा लगता है कि शिक्षा व्यवस्था की कुछ बुनियादी कमजोरियां परिलिक्षत हुईं, पहचानी गयीं लेकिन उनको सुधारने के लिए जितनी बड़ी मुहिम या कि जिस तरह की एक इच्छाशक्ति की आवश्यकता थी उसकी कमी बनी रही. आज जब हम लोग राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा जो 2005 में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड द्वारा स्वीकार की गयर है उसके संदर्भ में बात करते हैं तो हम उन सभी कमजोरियों को दोबारा एक तरह से सुधार के एंजेडा पर लाने की बात कर रहे हैं.
इनमें से सबसे बड़ी कमजोरी है बच्चे के दृष्टिकोण से पढ़ाई को संचालित न कर पाने की हमारी विवशता. हमारी व्यवस्था में बच्चा एक प्रकार से फिट होने के लिए, किसी मशीन में फिट होने के लिए एक पुर्जा बनाया जाता है. ये औपनिवेशक युग से चली आ रही व्यवस्था है, जिसमें हम बच्चे की स्वाभाविक रु चियों, स्वाभाविक क्षमताओं, उसकी अपनी रफ्तार, उसकी अपनी दिशा की कद्र नहीं करते. बल्कि हम सोचते हैं कि जितनी जल्दी ये व्यवस्था में फिट हो जाए, उतना ही अच्छा होगा.
तो कक्षा की चाहरदिवारी है वो एक तरह का बंधन होता है, चार साल के बच्चे के लिए, पांच साल के बच्चे के लिए. जब हम राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा के पहले ही सिद्धांत पर गौर करते हैं तो हम देखते हैं कि बच्चे के इस स्वभाव में और स्कूल की व्यवस्था में एक बुनियादी अंतरविरोध है.
स्कूल चाहता है कि बच्चा चुपचाप पांच-छह घंटे वहां पर बैठे. और एक के बाद एक जो पीरियड लग रहे हैं, उनमें जो बातें उसको बतायी जा रही हैं उनको ग्रहण करे, सीखे. और उनको याद कर ले और याद करने के बाद जब इम्तिहान में वो बातें पूछीं जाएं तो उनको ज्यों का त्यों बता दे. दूसरी तरफ बच्चा चाहता है कि जो बदलती हुई ऋतुएं हैं उनमें वो पेड़ों को देखे. चीटियों को देखे, कीड़े-मकोड़ों को देखे. हवाओं में जो परिवर्तन हो रहे हैं उनको अपनी त्वचा पर महसूस करे. भागे-दौड़े. रात को चाँद खिलता है उसकी कलाओं को खुद देखे. सितारों को देखे. एक बच्चे में असीम जिज्ञासा होती है दुनिया को समझने की. जो हमारा नया राष्ट्रीय दस्तावेज है राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, वो शुरू ही इस बात से होती है. पहले सिद्धांत के तौर पर वो कहती है कि बच्चे की स्कूल के बाहर की जो जिंदगी है, घर की जिंदगी है, आस-पड़ोस की जिंदगी है, उस जिंदगी को स्कूल की जिंदगी से जोड़ा जाए.
यानी स्कूल के बाहर जो हो रहा है, खिड़की से जो दिखाई दे रहा है वो बच्चे के लिए जितना महत्वपूर्ण है उतना ही वह स्कूल के अध्यापक के लिए भी महत्वपूर्ण बने. स्कूल की परिधि में जो गतिविधियां चल रही हैं जिनका उद्देश्य पाठ्यक्र म में निर्धारित किया है, उन गतिविधियों को बच्चे के इन स्वाभाविक अनुभवों से जोड़ा जाए. यानी कि बच्चे को लगे कि जो उसने बाहर देखा, बाहर सुना, वो मैं इस कक्षा में भी कह सकूं. और जब वो कहे तो उसकी कद्र की जाए. यहां से भाषा शिक्षण की शुरु आत होती है, यहां से गणित की शुरुआत होती है, यहां से सामाजिक विज्ञान की या पर्यावरण विज्ञान की शुरु आत होती है, बच्चे के अपने अनुभवों से.
हमारी शिक्षा व्यवस्था में आज यह कमजोरी है कि बच्चों के अपने अनुभवों को, उनकी अपनी स्वाभाविक भाषा को अपनी स्वाभाविक बोली को जुबान को बहुत जल्दी एक मानक भाषा में या एक मानक सोच के सांचे में ढाल देना चाहते हैं. हम अपनी व्यवस्था में एक छोटे बच्चे और किशोर में फर्क नहीं कर पाते. हालांकि शिक्षक सीखते जरूर हैं शिक्षक प्रशिक्षण में, कि बाल मनोविज्ञान ऐसा होता है, शिशु ऐसा होता है, किशोर ऐसा होता है, लेकिन जब वो कक्षा में पहुंचते हैं तो इन मुद्दों पर अमल नहीं करते. इसलिए भी नहीं करते, क्योंकि वो जब बीएड में ये सब सीखते हैं तो उनका उद्देश्य भी वही होता है, जो शिक्षा व्यवस्था का होता है.
यानी कि बीएड पास करना, अच्छे नंबर लेना. तो यानी वहां शिशु मनोविज्ञान और किशोर मनोविज्ञान के प्रश्नों का सही उत्तर दे दें तो आपको नंबर मिल जाते हैं. लेकिन यह विचार नहीं होता है कि इस बात को हमें कक्षा में अमल में लाना है. तो जब कक्षा में वो पहुंचते हैं तो उनको लगता है कि कक्षा एक का बच्चा पांच, छह साल का जो बच्चा है वो जो जुबान बोल रहा है, वो तुरंत मानक भाषा में आनी चाहिए. उसकी गलतियों को बस आज ही ठीक कर देना है.
जब वो लिखना सीख रहा है तो उसकी गलितयां ही शिक्षक को दिखलाई देती हैं. जब वो पढ़ना शुरू करता है तो लगता है कि उसका उच्चारण आज ही सही हो जाए. यानी कक्षा एक दो में ये जो आरंभिक वर्ष हैं शिक्षा के इन दो वर्षो में हमें बच्चों को इस तरह से देखना है कि वो अपनी प्राकृतिक क्षमताओं के साथ आए हैं. और इन प्राकृतिक क्षमताओं को पहचान के उन्हीं को संवारना, उन्हीं को निखारना, उन्हीं को प्रोत्साहित करना, हमारी शिक्षा का उस समय उद्देश्य होना चाहिए. अगर उस उद्देश्य का हम उस समय पालन कर सकें, इसकी दिशा में बढ़ सकें, तो पांचवी तक या छठी तक आते-आते वह बच्चा एक उज्जवस प्राणी होगा.
वो चुप नहीं बैठेगा, बल्कि वो भागीदार बनेगा हमारी चर्चाओं का. और वो जब हम ज्ञान की, गणित की, सामाजिक विज्ञान की अवधारणाएं पढ़ाएंगे उसको तो उन अवधारणाओं को तौलेगा. अपने विवेक से जांचेगा. और जब वो और भी आगे बढ़ेगा यानी उच्च्तर माध्यमिक कक्षाओं में पहुंचेगा. जहां उसे ज्ञान की काफी बड़ी चुनौतियों का सामना करना है उस समय वो फिर शिक्षक के बताए गए सत्य का ही मोहताज नहीं रहेगा. बल्किअपने दिमाग से सोचेगा. नए-नए स्रोतों को ढूँढेगा. सिर्फ पाठ्यपुस्तक पर निर्भर नहीं रहेगा. वो पाठ्यपुस्तक से शुरू होकर के तमाम अन्य स्रोतों की तरफ बढ़ेगा. यदि हमने एक बच्चे की स्वाभाविक क्षमताओं को और अपना निर्णय खुद लेने की क्षमता को कुचलने की जगह प्रोत्साहित किया तो किशोर बनते-बनते वो एक ऐसा बच्चा बनेगा तो तय कर सकेगा कि मुङो कौन से विषय पढ़ना है, जिंदगी में क्या करना है. यानी अपनी शिक्षा का उद्देश्य वह खुद सोच सकेगा.
आज की तारीख में हम देखते हैं कि बच्चे या तो माता-पिता के दबाव में आ जाते हैं कि माता- पिता भी एक स्टीरियो टाइप ढंग से सोचते हैं कि इसको इंजीनियर बनाना है, डॉक्टर बनाना है. इसके सिवाय दो-चार और चीजें सोच के वो बच्चे की विविध इच्छाएं हैं उनको नहीं समझ पाते. और हमारे युवक भी हम देखते हैं कि पीएचडी स्तर तक आते आते पूछते हैं कि हम पीएचडी किस टॉपिक पर करें. जो हायर सेंकडरी का बच्चा है वो जानना चाहता है कि हम विषय कौन सा लें. तो ये सारी चीजें दिखाती हैं कि जो अपना उद्देश्य खुद बनाने की इच्छा है और उस उद्देश्य के लिए खुद अपनी ऊर्जा से काम करने की जो एक क्षमता है वो हम विकिसत नहीं कर पाते. अगर हम एक ऐसी स्थिति की कल्पना करें जहाँ बच्चों की ये क्षमताएँ बचपन से ही हम संवारेंगे, उनको निखारेंगे तो आगे चलकर ऐसी स्थिति नहीं आएगी.
आज हमारे सामने एजूकेशनल टेक्नोलॉजी का एक बहुत बड़ा संसार खुला हुआ है, प्रकृति का संसार तो है ही. और उसके अलावा जो बड़े हैं हमारे समाज में उनसे सीखना, जानना, विभिन्न प्रकार की पुस्तकें देखना. ये तमाम स्रोत तभी उसके लिए खुलेंगे अगर उसकी जिज्ञासा को, उसकी स्वाभाविक क्षमता को हमने कक्षा एक और दो में कुचल नहीं दिया है.
अगर उस समय हम थोड़ा-सा पीछे रहें और बच्चे को आगे करें, तो बहुत-सा आगे का रास्ता हमारे लिए ही आसान हो जाएगा और जब हम कक्षा ग्यारह-बारह में पहुंचते हैं जहां अनुशासन की बड़ी-बड़ी समस्याओं की चर्चा आजकल शिक्षक करते हैं, वो समस्याएं बहुत कुछ अपने आप दूर हो जाएंगी.
क्योंकि बच्चे के भीतर से ये इच्छा होगी कि वो सीखे. कि वो जाने संसार को समङो और उसके लिए जिस-जस तरह के उपकरण, जिस-जिस तरह के स्रोत उपलब्ध हैं उनकी तरफ वो स्वयं लालायित होगा. आज की शिक्षा की इस कमजोरी को कि वो इतनी रिजिड है, बंधी हुई है नियमों से कि हम खुद भी डरते हैं कुछ नया करने से और बच्चे को भी डराते हैं नया करने से. इसलिए बावजूद इसके कि हम अन्य तमाम क्षेत्रों में भारत को आज एक नयी तरह की दिशाओं में बढ़ता हुआ देखते हैं, शिक्षा में हम नहीं कर पाते हैं.
क्योंकि हम नवाचार से एक तरह से संकोच करते हैं, डरते हैं. और इसी प्रवृति को हम बच्चों में भी उत्पन्न करते हैं इस कमजोरी को हम दूर कर सकें तो ये जो संविधान ने निर्धारित किया है उद्देश्य एक लोकतांत्रिक समाज बनाने का और उस समाज के लिए ऐसा नागरिक बनाने का जो खुद अपने दिमाग से सोच सकता हो,निर्णय ले सकता हो और जिसको दुनिया के किसी भी जटिल प्रश्न से डर न लगता हो, जो प्रश्नों से भागता न हो बल्कि उनसे जूझता हो. और जब वो कठिन प्रश्न देखे तो और भी ज्यादा वो खुश हो जाए क्योंकि उसके सामने एक ज्यादा बड़ी चुनौती हो.
इस तरह का एक नागरिक बनाने का जो उद्देश्य है वो हम पूरा कर सकेंगे. तो इस प्रक्रि या में बच्चे की अपनी जो स्वाभाविक कल्पनाशक्ति होती है और हर अनुभव से सीखने की जो क्षमता होती है चाहे वह अनुभव स्वाभाविक हो या कोई और उसको दे रहा हो इस स्वाभाविक क्षमता को विकसित करने की जगह हमारी व्यवस्था के कुछ पहलू ऐसे हैं जो कि उसको एक तरह से कुचलते हैं या हत्सोहित करते हैं.
और अगर ये पूरी प्रक्रि या हम देखना चाहें तो कक्षा एक में या कक्षा दो में किसी स्कूल में बैठकर देख सकते हैं. यह वो समय है जब बच्चा पहली बार स्कूल आया है. वहां की जो औपचारिक रीतियां हैं ,जो तौर तरीके हैं, उनमें वो अभी बंधा नहीं है, उसमें एक स्वाभाविक ऊर्जा है, एक प्राकृतिक क्षमता है. उसके शरीर में कई तरह की ऊर्जाएं हैं. शरीर का हरेक अंग संचालित करने की उसकी इच्छा रहती है. वो पेड़ पौधों की दुनिया में, फूलों की, जानवरों की दुनिया में सहज रु चि लेता है.
कृष्ण कुमार
शिक्षविद एवं एनसीइआरटी के पूर्व निदेशक