सद्गुरु स्वामी आनंद जी एक आधुनिक सन्यासी हैं, जो पाखंड के धुरविरोधी हैं और संपूर्ण विश्व में भारतीय आध्यात्म व दर्शन के तार्किक तथा वैज्ञानिक पक्ष को उजागर कर रहे हैं. सद्गुरुश्री के नाम से प्रख्यात कार्पोरेट सेक्टर से अध्यात्म में क़दम रखने वाले यह आध्यात्मिक गुरु नक्षत्रीय गणनाओं तथा गूढ़ विधाओं में पारंगत हैं तथा मनुष्य के आध्यात्मिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक व्यवहार की गहरी पकड़ रखते हैं. आप भी इनसे अपनी समस्याओं को लेकर सवाल पूछ सकते हैं. इसके लिए आप इन समस्याओं के संबंध में लोगों के द्वारा किये गये सवाल के अंत में पता देख सकते हैं…
प्रश्न- क्या नवरात्रि में लक्ष्मी की उपासना की जाती है ?
-प्रणव शर्मा
जवाब- सदगुरुश्री कहते हैं कि नवरात्रि बाहर बिखरी हुई अपनी ऊर्जा को स्वयं में आत्मसात करने यानी उन्हें खुद में समेटने का काल है. और आंतरिक ऊर्जा से बड़ी कोई ऊर्जा नहीं है. इसलिए स्वयं को पहचानना आवश्यक है. नवरात्रि के प्रथम तीन दिन आत्म बोध और ज्ञान बोध के, तीन दिन शक्ति संकलन और उसके संचरण यानी फैलाव के और तीन दिन अर्थ प्राप्ति के कहे गये हैं. यूं तो नवरात्रि में भी लक्ष्मी आराधना की जा सकती है, क्योंकि इसकी तीन रात्रि अर्थ, धन या भौतिक संसाधनों की भी कही गयी हैं. पर सनद रहे कि धन प्राप्ति के सूत्र तो सिर्फ श्रम पूर्वक कर्म और स्वयं की योग्यता व क्षमता में ही निहित हैं.
प्रश्न- नवरात्रि में जो पाठ किया जाता है वो क्या है ?
-मंजू रुंगटा
जवाब- सदगुरु श्री कहते हैं कि सामान्य रूप से नवरात्रि में चण्डीपाठ किया जाता है, जिसे देवी पाठ भी कहते हैं. यह पाठ दरअसल ध्वनि के द्वारा अपने भीतर की ऊर्जा के विस्तार की एक पद्धति है. ये पाठ प्राचीन वैज्ञानिक ग्रंथ मार्कण्डेय पुराण के श्लोकों में गुंथे वो सात सौ वैज्ञानिक फॉर्म्युला हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि वो अपनें शब्द संयोजन की ध्वनि से हमारे अंदर की बदहाली और तिमिर को नष्ट करने वाली ऊर्जा को सक्रिय कर देने की योग्यता रखते हैं. ये कवच, अर्गला, कीलक, प्रधानिकम रहस्यम, वैकृतिकम रहस्यम और मूर्तिरहस्यम के छह आवरणों में लिपटे हुए हैं. इसके सात सौ मंत्रों में से हर मंत्र अपने चौदह अंगों में गुंथा है, जो इस प्रकार हैं- ऋषि, देवता, बीज, शक्ति, महाविद्या, गुण, ज्ञानेंद्रिय, रस, कर्मेंद्रिय स्वर, तत्व, कला, उत्कीलन और मुद्रा. माना जाता है कि संकल्प और न्यास के साथ इसके उच्चारण से हमारे अंदर एक रासायनिक परिवर्तन होता है, जो आत्मिक शक्ति और आत्मविश्वास को फलक पर पहुंचाने की योग्यता रखता है. मान्यतायें इसे अपनी आंतरिक ऊर्जा के विस्तार में उपयोगी मानती हैं.
सवाल- नए घर में झगड़ा बहुत होने लगा है. कहीं कोई वास्तुदोष तो नहीं है?
-ऋतु झा
जवाब- सदगुरुश्री कहते हैं कि घरेलू तनाव के बहुत से कारण हो सकते हैं। परिजनों पर नियंत्रण का प्रयास, विश्वास का अभाव, एकल दृष्टिकोण और अपने विचारों को श्रेष्ठ समझने का भ्रम परस्पर मतभेद के अनेक कारणों में से एक है. हां, इसका कारण वास्तु दोष भी हो सकता है. कई बार गृह क्लेश के सूत्र वास्तु की दहलीज से निकलकर गृह नक्षत्रों के आग़ोश में भी उलझे नजर आते हैं, जो हमारे ही पूर्व कर्मों की उपज होते हैं. जिसके विश्लेषण के लिए परिवार के समस्त सदस्यों की कुंडली का अध्ययन आवश्यक है. वास्तु शास्त्र में ईशान्य कोण यानि उत्तर-पूर्व में अग्नि, आग्नेय पदार्थ या आग्नेय वर्ण की मौजूदगी नि:संदेह घरेलू झमेलों की जनक होती है. आग्नेय कोण पर जल या जलीय पदार्थों या रंगों की उपस्थिति आर्थिक क्षति के के साथ क्लेश को भी जन्म देती है. उत्तर-पूर्व में या मुख्यद्वार पर गंदगी या सफ़ाई की कमी, द्वार वेध, पश्चिम दिशा का खुला और प्रकाश से भरा होना, उत्तरी और पूर्वी भाग में भारी वस्तु और बिस्तर के समक्ष दर्पण का होना भी व्यक्तिगत संबंधों में खटास का कारक हो सकता है. शांति के लिए विश्वास की बहाली, कटु वचनों पर नियंत्रण, आपस में मीठी वाणी का इस्तेमाल, बुजुर्गों और असहायों की मदद, गृह की की पूर्ण सफाई, मीठी वस्तुओं का नियमित वितरण, बांसुरी की मौजूदगी जैसे कुछ कदम घर में परम शांति का सूत्रपात कर सकते हैं, पर धैर्य, शांति व आनंद के लिए अनिवार्य शर्त है.
सवाल- कहीं पढ़ा है कि धन की उपासना में पश्चिम मुख करके बैठना अच्छा फल देता है. तो क्या पश्चिम में सर रख कर सोने से आर्थिक लाभ हो सकता है?
-रूबी शर्मा
जवाब- सदगुरुश्री कहते हैं कि आध्यात्म, कर्मकांड वास्तु और तंत्र ये सब पृथक विधाएं हैं. पर, इनका आपस में अप्राकृतिक घालमेल उलटे फलों का भी कारक बन सकता है. हां, कर्मकांड और तंत्र शास्त्र में यक्षिणी लक्ष्मी की विशिष्ट उपासना के लिए पश्चिमाभिमुख होकर साधनारत होने का का वर्णनअवश्य मिलता है. पर वास्तु में पश्चिम की तरफ पीठ करके पूर्वाभिमुख होकर बैठना ज्ञान के लिए उत्तम माना जाता है। और आवश्यक ज्ञान का अर्जन आर्थिक स्थिति को विशिष्ट सम्बल दे सकता है. वास्तु में सोने के लिए दक्षिण में सर रखकर सोने का उल्लेख मिलता है,और इसे ही धन प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ माना जाता है. क्योंकि, वैज्ञानिक अवधारणा कहती है कि चुंबकीय ऊर्जा दक्षिण से उत्तर की तरफ प्रवाहित होती है, और दक्षिण या पूर्व की ओर सर करके सोना स्वास्थ्य के लिए बेहतर है. पश्चिम दिशा में सर करके सोना मस्तिष्क में भारीपन व स्वास्थ्य समस्याओं के साथ अनेक अवांछित स्थितियों का जनक होता है.
सवाल- पूजा करने की सही दिशा क्या है ?
-मालिनी पाण्डेय
जवाब- सदगुरुश्री कहते हैं कि सामान्यत: पूर्वाभिमुख होकर आराधना करना श्रेष्ठ माना गया है. यदि उपासना में किसी विग्रह या यंत्र का प्रयोग हो रहा है तो प्रतिमा या यंत्र का मुख और दृष्टि पश्चिम में होनी चाहिए, तो उपासना हमारे भीतर ज्ञान, सामर्थ्य भक्ति, दृढ़ता, क्षमता और योग्यता की जनक बनती है और हम अपने लक्ष्य को सुगमता से हासिल कर पाते हैं. पर कई ख़ास साधना में पश्चिमाभिमुख रहकर पूजन का भी उल्लेख प्राप्त होता है. इसमें हमारा मुख पश्चिम की ओर होता है और देव प्रतिमा की दृष्टि और मुख पूर्व दिशा की ओर होती है. यह उपासना पद्धति सामान्यत: पदार्थ प्राप्ति या कामना पूर्ति के लिए अधिक प्रयुक्त होती है. प्रगति के लिए कुछ ग्रंथ उत्तरभिमुख होकर भी उपासना का परामर्श देते हैं. दक्षिण दिशा सिर्फ षट्कर्मों यानि उलटी मंशा परक कामनाओं के लिए इस्तेमाल की जाती है.
(अगर आपके पास भी कोई ऐसी समस्या हो, जिसका आप तार्किक और वैज्ञानिक समाधान चाहते हों, तो कृपया प्रभात खबर के माध्यम से सद्गुरु स्वामी आनंद जी से सवाल पूछ सकते हैं. इसके लिए आपको बस इतना ही करना है कि आप अपने सवाल उन्हें सीधे saddgurushri@gmail.com पर भेज सकते हैं. चुनिंदा प्रश्नों के उत्तर प्रकाशित किये जायेंगे. मेल में Subject में प्रभात ख़बर अवश्य लिखें. )