असम सरकार के चाय जनजाति कल्याण विभाग ने बीते शुक्रवार को ‘कच्चा सोना’ नाम से एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया था.
प्रदेश की सत्तारूढ़ भाजपा सरकार ने इस कार्यक्रम को लेकर शहरों में जो पोस्टर लगवाए थे उनमें सरकार का प्रमुख उदेश्य असम में सालों से बसे चाय बागानों में काम करने वाले आदिवासियों की कला और संस्कृति को संरक्षण करने की बात लिखी गई थी.
बदकिस्मती से इस कार्यक्रम का आयोजन जिस दिन मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल के गृहनगर डिब्रूगढ़ में चल रहा था, उसी दिन गोलाघाट और जोरहाट के चाय बागानों में ज़हरीली शराब पीकर एक के एक बाद आदिवासी दम तोड़ रहें थे.
चाय बागानों में इन आदिवासियों के मरने की ख़बर वैसे तो गुरूवार शाम से ही फैल गई थी लेकिन ‘कच्चा सोना’ सांस्कृतिक कार्यक्रम उसके दूसरे और तीसरे दिन तक भी चलता रहा.
असम में पहली दफा सत्ता में आई भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री सोनोवाल उस रात सांस्कृतिक कार्यक्रम में मौजूद थे लेकिन वहां इन चाय बागानों में काम करने वाले लोगों की मौत पर किसी तरह का शोक व्यक्त नहीं किया गया.
रविवार की शाम होते-होते ज़हरीली शराब से मरने वालों की संख्या 144 से अधिक पहुंच गई.
‘केवल वोट के लिए अपनापन’
अखिल असम आदिवासी छात्र संघ के प्रचार सचिव मोहेश घटवार ने बीबीसी से कहा,"प्रदेश की सरकार जिस कच्चा सोना यानी कच्ची चायपत्ती की बात करके आदिवासी लोगों के प्रति अपनापन दिखा रही है,वो केवल वोट के लिए है. बीते चार दिनों से जिस बदतर हालात में आदिवासी लोग मारे जा रहे है सबने देखा है कि हमारी ज़िंदगी कितनी सस्ती है."
वो आगे कहते है,"बीजेपी ने परिवर्तन करने की बात कह कर असम में सरकार बनाई थी लेकिन चाय बागानों के मज़दूरों को आज भी 137 रुपए दैनिक मजदूरी मिलती है. बागानों में न कोई चिकित्सा व्यवस्था है और न ही अच्छी शिक्षा है. लिहाज़ा हाड़तोड़ मेहनत करने वाले चाय श्रमिक अपनी थकान मिटाने के लिए ऐसी सस्ती शराब पीते है. उनको यह नहीं मालूम कि वो ज़हर पी रहें है."
असम में 1860 से 1890 के दशक के दौरान कई चरणों में चाय बागानों में मज़दूरों के रूप में काम करने के लिए झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और छत्तीसगढ़ से इन आदिवासी लोगों को यहां लाकर बसाया गया था. लेकिन इतने सालों इनकी ज़िंदगी में कोई बदलाव नहीं आया.
आदिवासी छात्र नेता मेलकश टोप्पो कहते है,"असम में जब कांग्रेस की सरकार थी तो शनिवार और रविवार को ड्राई डे हुआ करता था लेकिन बीजेपी सरकार आते ही ड्राई डे खत्म कर दिया. ये सरकार देशी शराब बेचने के लिए महज़ 10 हज़ार रुपए में लाइसेंस देने की योजना बना रही है. इतनी बड़ी घटना हो गई, सैकड़ों लोग मारे जा रहे हैं लेकिन सरकार को कोई परवाह नहीं है. क्योंकि हम आदिवासी मज़दूर हैं."
मेलकश गोलाघाट ज़िला सरकारी अस्पताल के बाहर जहां ये बातें कर रहें थे वहां ज़हरीली शराब के कारण बीमार पड़े लोगों के रिश्तेदारों की भीड़ लगी हुई थी. अस्पताल अधिकारी हर दो घंटे के बाद वहां मौजूद पत्रकारों को मरने वालों की संख्या की जानकारी दे रहे थे. आधे से ज़्यादा लोगों का इलाज अस्पताल के गलियारे के फर्श पर ही चल रहा था.
दो-तीन दिन बाद असर
पिछली रात से अपना इलाज करवा रहे 35 साल के शुकुर पुजर के कई दोस्तों का निधन हो गया है. वो कहते हैं, "मैंने बीते मंगलवार को कुछ दोस्तों के साथ शराब पी थी. लेकिन दो-तीन दिन बाद मुझे सबकुछ धुधंला दिखने लगा. शरीर भी कांपने लगा. मेरी पत्नी मुझे चाय बागान के अस्पताल में ले गई और वहां से मुझे यहां भेज दिया गया. मैने सुना है मेरे सभी दोस्त मारे गए है. रोज मेरे गांव का कोई न कोई व्यक्ति मर रहा है. अस्पताल में यही देख रहा हूं."
चाय बागान में काम करने वाले मज़दूर क्यों इस देशी शराब को पीते हैं. इसका जवाब देते हुए शुकुर कहते है,"दैनिक 137 रुपए मज़दूरी कमाने वाले लोग अंग्रेज़ी शराब कहां से पीएंगे. बागान में दिनभर काम करने से काफ़ी थकावट होती है. इसलिए सस्ती देशी शराब पीकर सो जाते है. लेकिन अब मैं कभी शराब को हाथ नहीं लगाऊंगा."
अस्पताल के फर्श पर लेटे अपने बूढे़ ससुर के सिर पर हाथ फेर रही वोखा चाय बागान की रहने वाली दिव्या उरांव कहती है,"गुरूवार की रात को मेरे ससुर बाहर कहीं से पीकर आए थे. उस दिन तो कुछ नहीं हुआ लेकिन अगले दिन इनकी याददाश्त चली गई. कान से सुनाई देना भी बंद हो गया. हम शनिवार को इन्हें सरकारी अस्पताल में लेकर आ गए. लेकिन आज डॉक्टर ने हमें जोरहाट मेडिकल कालेज ले जाने के लिए कहा है."
गोलाघाट सरकारी अस्पताल में ज़हरीली शराब पीकर बीमार पड़े लोगों का इलाज कर रहे डॉक्टर दीपक दत्ता ने शुरूआती इलाज की जानकारी देते हुए कहा, "हम ऐसे मामलों में मरीज का कंसर्वेटिव तरीके से इलाज कर रहे हैं. अगर किसी को सांस लेने में तकलीफ़ हो रही है तो ऑक्सीजन दे रहे हैं.
दवा की कमी
एल्कोहल के असर को कम करने के लिए भी कुछ दवाईयां दे रहे हैं. लेकिन ये काफी नहीं है. इस तरह के इलाज के लिए क़ीमती दवाइयों की ज़रूरत पड़ती है. ऐसी दवाइयां यहां के बाज़ार में उपलब्ध ही नहीं है. फ़िलहाल दो सौ लोगों का इलाज चल रहा है इनमें कुछ लोगों की हालत काफ़ी गंभीर है."
हालमीरा चाय बागान में शुक्रवार से लोगों की चिताएं जल रही है. बागान में प्रवेश करते ही बाईं ओर एक बड़ा खेल मैदान है जहां मरने वालों के रिश्तेदार बिलकुल गुमशुम और चुपचाप बैठे उस काले दिन के बारे में सोच रहे हैं.
इस मैदान के दूसरी छोर पर श्मशान घाट है जहां एक कतार में एकसाथ चिताओं को जलाया जा रहा है. पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवान भी तैनात है. बीते गुरूवार से यहां मातम छाया हुआ है. क्योंकि जहरीली शराब पीने से इस चाय बागान के अबतक 50 से अधिक मज़दूरों की मौत हो चुकी है.
इन जलती चिताओं के पास खड़े 18 साल के बाबू पूजर हाथ के इशारे से दिखाते हुए कहते हैं," जहरीली शराब पीकर मेरे पिता, दो जीजा जी और बड़ी बहन की मौत हुई है. हम ग़रीब लोगों के बारे में कौन सोचता है. हमारे बागान में सबसे ज़्यादा लोग मरे हैं. पुलिस अब यहां खड़ी पहरा दे रही है लेकिन उनको सब पता है कि चाय बागान के भीतर शराब कहां बिकती है."
इस बीच पुलिस ने कुल सात लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेजा है. इसके साथ ही लाल गुड़ पर फ़िलहाल प्रतिबंध लगा दिया गया है. आख़िर लाल गुड़ के साथ किन सामग्रियों को मिलाकर ये देशी शराब बनती है?
इसका जवाब देते हुए स्थानीय पत्रकार ऋतुपल्लव सैकिया कहते है,"यह एक तरह की देशी शराब है जिसे चाय बागान के मज़दूरों को लिए ही बनाई जाती है. स्थानीय भाषा में इसे यहां के लोग चुलाई कहते है. जानवरों को खिलाने वाले लाल गुड़ के साथ यूरिया से लेकर मिथाइल, तारपीन जैसे ख़तरनाक पदार्थ डालकर यह शराब बनाई जाती है. जो लोग इस शराब को बनाते है उन्हें भी इसके असर का कोई अंदाज़ा नहीं होता.
यही कारण है कि हालमीरा गांव में जिस द्रोपदी नामक महिला के घर में यह शराब बेची जा रही थी उसकी और उसके 30 साल के बेटे की भी मौत हो चुकी है."
‘कच्चा सोना’ सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन करने वाले डिब्रूगढ़ ज़िला बीजेपी के नेता पराग दत्त स्वीकारते हैं कि आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया था.
एक सवाल जवाब देते हुए बीजेपी नेता कहते हैं,"इस कार्यक्रम का उदेश्य था चाय जनजाति समुदाय के लोगों का सम्मान करना. लेकिन गोलाघाट में जब आदिवासी लोगों की मौत की ख़बर आई थी तो उनके लिए शोक रखना चाहिए था."
- क्या ज़हरीली शराब के पीछे कोई साज़िश थी?
- मंजू बरुआः चाय बागान के मज़दूरों की ‘बड़ी मैडम’
- क्या अब कभी इंसान और हाथी साथ रह सकेंगे?
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