रमेश ठाकुर
टिप्पणीकार
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चौक-चौराहे, सड़क व बाजारों आदि जगहों पर तमाशा दिखानेवाले बंजारों की जिंदगी खुद एक तमाशा बन गयी है, जिनका ना कोई वर्तमान है, ना कोई भविष्य. यह हकीकत देशभर के घुमंतुओं की है.
कुछ को तो दो जून की रोटी और चंद सिक्कों के लिए खुद को कोड़ों से तब तक पीटना पड़ता है, जब तक देखनेवाले की आंखें गीली न हो जायें. कागजों में कल्याणकारी योजनाओं की कभी कमी नहीं रही, लेकिन उन योजनाओं का लाभ घुमंतुओं को शायद ही कभी मिला हो. देशभर में जहां-तहां खेल-मदारी दिखानेवाले इन बंजारों की संख्या हजारों-लाखों में है.
बंजारों के खेल-तमाशे अलहदा किस्म का मनोरंजन है. एक तमाशे में एक महिला गीत के साथ ढोल बजाती है और सामने एक पुरुष अपने आपको कोड़ों से लहूलुहान करता रहता है.
सड़ाक-सड़ाक कोड़ों की आवाज जितनी तेज आती है, उतनी ही बच्चों की तालियां बजती हैं. उनकी चीख तमाशा देखनेवालों तक नहीं पहुंच पाती, न ही सरकार तक. जैसे ही तमाशा खत्म होता है, लोग हंसने लगते हैं. पैसे मांगने पर कोई गाली, कोई धमकी, तो कोई चंद पैसे देकर चलता बनता है.
ये बंजारे पूरे दिन अपने शरीर पर कपड़े के चाबुक मारते है. इनका यह खेल चाबुक तक ही सीमित नहीं रहता है, अपने हाथों में लोहे के स्पॉक भी घोंप लेते हैं, खून निकलने लगता है. लेकिन उनके दर्द को कोई नहीं समझ पाता. इसके बदले ये बंजारे बमुश्किल दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाते हैं.
बंजारों की दशा देखने के बाद लगता है कि हमारे विकास और संपन्नता के दावे थोथरे मात्र हैं. जैसे इन तक विकास की रोशनी अभी पहुंची ही नहीं.
बंजारों के पास समस्याएं ही समस्याएं हैं. अशिक्षा और गरीबी इनकी असल पहचान है. इनके पक्ष में आवाज उठानेवाले शून्य में हैं. इनके पास पहचान पत्र न होने से इनको कहीं-कहीं तो भारत का नागरिक भी नहीं समझा जाता है.
जनजातियों की स्थिति के अध्यन के लिए फरवरी, 2006 में बने आयोग के अध्यक्ष बालकिशन रेनके के अनुसार, केंद्र सरकार के पास इन्हें राहत देने के लिए कोई कार्य योजना नहीं है, इसलिए इन्हें राज्यों के अधीन कर दिया गया है.
पहली और तीसरी पंचवर्षीय योजना तक इनके लिए प्रावधान था, लेकिन किसी कारणवश यह राशि खर्च नहीं हो सकी, तो इन्हें इस सूची से ही हटा लिया गया. काका कालेलकर आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था, कुछ जातियां तो अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़ी जातियों से भी पिछड़ी हैं. उनके लिए अलग से प्रावधान होना चाहिए.
हमारे देश में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए करीब करोड़ रुपये के खर्च का प्रावधान है, लेकिन इन घुमंतुओं के हिस्से कुछ नहीं आता. समय की दरकार यही कहती है कि बंजारों के आर्थिक सुधार के लिए सोचा जाये. इनके बच्चों के लिए निःशुल्क कोचिंग और स्कूली व्यवस्था हो, तभी शायद उनकी दशा सुधर पायेगी.