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सवाल सिर्फ जोशीमठ का नहीं है

हिमालयी क्षेत्र में इस तरह की आपदाओं में हाल के वर्षों में भारी वृद्धि हुई है. इन प्राकृतिक आपदाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता. माना जा रहा है कि बढ़ती आपदाओं के पीछे अंधाधुंध निर्माण कार्य जिम्मेदार है.

आदि शंकराचार्य द्वारा आठवीं शताब्दी में स्थापित शहर, जहां पवित्र ज्योतिर्लिंगम स्थित है, उस जोशीमठ के धंसने की खबर से उत्तराखंड में ही नहीं, संपूर्ण देश में चिंता है. ‘जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति’ के आंदोलन के चलते एनटीपीसी को आदेश दिया गया है कि तपोवन विष्णुगढ़ हाईड्रोपावर प्रोजेक्ट के निर्माण, जिसमें हेलांग बाइपास सड़क भी शामिल है, को रोक दिया जाए.

एशिया की सबसे बड़ी रोपवेज के काम को भी रोक दिया गया है. संकट के मद्देनजर भले ही ये कदम उठाये गये हैं, पर जानकारों का मानना है कि जोशीमठ को धंसने से रोका नहीं जा सकेगा. यह पहला अवसर नहीं है जब इस हिमालयी क्षेत्र में ऐसी त्रासदी हुई है. इससे पूर्व 2021 में भी चमोली में आयी बाढ़ में तपोवन बांध के मजदूरों सहित 200 लोगों की मौत हो गयी थी. वर्ष 2013 में भी भारी बारिश के बाद गंगा, यमुना और उसकी सहायक नदियों में बाढ़ के कारण बड़ी संख्या में पुल, सड़कें और भवन धराशायी हो गये थे.

हिमालयी क्षेत्र में इस तरह की आपदाओं में हाल के वर्षों में भारी वृद्धि हुई है. इन प्राकृतिक आपदाओं को हल्के में नहीं लिया जा सकता. माना जा रहा है कि बढ़ती आपदाओं के पीछे अंधाधुंध निर्माण कार्य जिम्मेदार है. इस तरह की आपदाओं में आयी तेजी के मद्देनजर यह विचार करना जरूरी हो गया है कि मानवीय लालच से प्रेरित तथाकथित विकास को इस तरह जारी नहीं रखा जा सकता.

इस प्रकार के जर्जर एवं नाजुक पहाड़ पर अनियंत्रित निर्माण कार्य ही जोशीमठ के धंसने का कारण है. गौरतलब है कि जोशीमठ के पहाड़ की तलहटी में जिस प्रकार जरूरत से ज्यादा चौड़े चार धाम मार्ग के निर्माण हेतु पहाड़ को काटा गया और एनटीपीसी द्वारा अपनी हाइड्रो परियोजना के लिए पहाड़ के बीच में से एक सुरंग निकाली गयी, उससे इस नाजुक पहाड़ पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है.

यह भी सच है कि यहां ऊंचे-ऊंचे होटलों एवं इमारतों के निर्माण और सैनिटेशन की ठीक व्यवस्था नहीं होने के चलते इस जर्जर क्षेत्र की अस्थिरता और बढ़ गयी. इस सबके चलते आज जोशीमठ का पूरा क्षेत्र ही धंसता जा रहा है और उसे बचाने का कोई रास्ता भी दिखाई नहीं दे रहा. सवाल सिर्फ जोशीमठ का नहीं है. विकास के नाम पर संपूर्ण उत्तराखंड में निर्माण कार्य और प्रकृति के साथ छेड़छाड़ लगातार जारी है. पेड़ों के कटने के कारण पहाड़ों पर हरियाली समाप्त हो चुकी है और इस कारण भूस्खलन एक सामान्य प्रक्रिया बन चुकी है.

पूरे उत्तराखंड, खास तौर से नैनीताल एवं मसूरी जैसे पर्यटन के केंद्र भी विनाश की कगार पर खड़े हैं. कुछ लोगों का मानना है कि जोशीमठ की पुनरावृति नैनीताल में भी हो सकती है. गौरतलब है कि उत्तराखंड में सड़कों का चौड़ीकरण, सुरंग निर्माण, रेलवे लाइन, बांध निर्माण आदि इंफ्रास्ट्रक्चर के अतिरिक्त बड़े पैमाने पर भवन निर्माण, जिसमें अधिकांशतः होटल शामिल हैं, का काम पिछले दो दशकों में तेजी से बढ़ा है.

एक वैज्ञानिक तथ्य यह भी है कि हिमालय पर्वत तुलनात्मक दृष्टि से नये पर्वत हैं और इसलिए ये जर्जर और नाजुक हैं. इसकी धारण क्षमता से ज्यादा इसमें छेड़छाड़ यहां भूस्लखन एवं भू-धंसाव का कारण बनती है. इसके चलते इस क्षेत्र में नये निर्माण स्थायी नहीं रह सकते. वर्तमान स्थिति में देखा जा रहा है कि निर्माण के दौरान ही भारी हादसे हो रहे हैं, जिससे निर्माण कार्य बीच में ही रुक जाता है.

एनटीपीसी के 520 मेगावॉट का हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट, जो 2006 में शुरू हुआ था और जिसकी अनुमानित लागत प्रारंभ में 3000 करोड़ रुपये थी, उसका निर्माण कार्य भूस्लखन एवं अन्य प्राकृतिक कारणों से लगातार अवरुद्ध होता जा रहा है. जिससे इसकी इसकी लागत लगभग 12 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी है और अभी इस प्रोजेक्ट के पूरा होने के दूर-दूर तक आसार दिखाई नहीं दे रहे हैं. यही बात सड़कों के विस्तार कार्य पर भी लागू होती है.

बिना अपेक्षित प्रभाव के आकलन के विकास के नाम पर विनाशकारी निर्माण त्रासदी का कारण बन रहे हैं. इस अंधाधुंध निर्माण पर अंकुश लगाकर ही इस संकट से बचा जा सकता है. लेकिन कानून बनाये बिना निर्माण कार्यों को रोका नहीं जा सकता है. कानून बनाने की एक लंबी प्रक्रिया होती है और विभिन्न हितधारकों के बीच समान सोच बनाना एक कठिन कार्य है.

हालांकि राज्य सरकार ने संवेदनशीलता का परिचय दिया है और वर्तमान स्थिति को देखते हुए जिला प्रशासन ने सभी निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी है. पर यदि दीर्घकालिक उपाय नहीं सोचे गये तो निर्माण कार्य देर-सवेर फिर से शुरू हो जायेंगे. इसलिए इस समस्या से निपटने के लिए दीर्घकालिक उपाय की जरूरत है.

पूर्व में भी गंगा नदी पर बांध बनाने के चलते गंगा के अविरल प्रवाह के अवरुद्ध होने के कारण उसका भारी विरोध हुआ था. वर्ष 2010 में प्रो जीडी अग्रवाल समेत कई लोगों द्वारा आमरण अनशन और आंदोलनों के बाद केंद्र सरकार ने भागीरथी के क्षेत्र को पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर दिया था. उसके बाद इस क्षेत्र में प्राकृतिक आपदाएं लगभग न के बराबर हुई हैं.

इसी प्रकार, भागीरथी क्षेत्र के समानांतर यदि यमुनोत्री, अलकनंदा, मंदाकिनी, काली नदी, धौली गंगा क्षेत्रों को भी पर्यावरण संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर दिया जाए, तो यहां भविष्य में आने वाली आपदाओं को रोके जाने की संभावना बढ़ जायेगी. भागीरथी क्षेत्र की तर्ज पर शेष संवेदनशील क्षेत्रों के साथ समान व्यवहार करने से न केवल हजारों वर्षों से देश की जीवन रेखा रहे हिमालयी क्षेत्र, बल्कि इन क्षेत्रों से निकलने वाली नदियों और सहायक नदियों को भी बचाया जा सकेगा.

ग्लेशियरों को बचाने पर भी ध्यान दिये जाने की जरूरत है. ग्लेशियरों के नीचे विभिन्न नदियों का उद्गम होता है. वैश्विक तापन के चलते दुनियाभर में ग्लेशियर पिघल रहे हैं और उस कारण जल के अधिक प्रवाह से न केवल पेयजल के स्रोत समाप्त हो रहे हैं, बल्कि समुद्र का जल स्तर भी बढ़ता जा रहा है. हिमालय से देश में अधिकांश नदियों का उद्गम होता है और हिमालय के शिखर पर ग्लेशियर स्थित है.

यहां भी चिंताजनक स्थिति बनती जा रही है, जिसका निदान जरूरी है. सरकार, नीतिकारों और वर्तमान पीढ़ी पर हिमालयी क्षेत्र के संरक्षण का ही नहीं, बल्कि भारत भूमि पर रहने वाले समस्त लोगों, जो इस क्षेत्र से निकलने वाली नदियों पर आश्रित हैं, का भविष्य निर्भर है. ऐसे में सभी को समय रहते संवेदनशील होना पड़ेगा, अन्यथा भविष्य की पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी.

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