बजट की घंटी बज गयी है. सरकार और रिजर्व बैंक की तरफ से जो कुछ कहा जा रहा है वह अर्थव्यवस्था के वाह-वाह वाला ही है. नौ बजट में सूखा रहने के बाद भारतीय मध्य वर्ग इस बार सरकार से कर राहत समेत कई तरह के लाभ चाहता है. नौ राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव सरकार को भी सख्ती न करने के लिए मजबूर कर रहा है. इस वाह वाह की खास बात यह है कि इस वर्ष दुनिया की अर्थव्यवस्था हिचकोले खा रही है, अमेरिका व यूरोप तक को होश नहीं है.
पूरे कोरोना काल में मौज कर रहा चीन भारी संकट में है, उसकी अर्थव्यवस्था इस बार भारत से खराब रह सकती है. लेकिन दूसरा पक्ष यह है कि खुद हमारी अर्थव्यवस्था के लिए एक अच्छी खबर आती है, तो तीन बुरी. यूक्रेन युद्ध के दुष्प्रभावों का खतरा भी अभी टला नहीं है. फिर तेल की कीमतें अभी जिस स्तर पर हैं उतने पर रुकी नहीं रहेंगी.
उसका उतार-चढ़ाव हमारे ऊपर बड़ा असर डालेगा. भूमंडलीकरण के इस दौर में हम विश्व अर्थव्यवस्था के अच्छे-बुरे प्रभावों से अछूते नहीं रह सकते. इसका सबसे बड़ा प्रमाण हमारा गिरता निर्यात है, क्योंकि दुनियाभर में मांग कम हुई है. यूक्रेन युद्ध की वजह से अनाज की मांग बढ़ी थी जो अब वापस मंदी पर आ गयी है. दूसरी तरफ हमारा आयात कम होने का नाम नहीं ले रहा, उसमें बहुत ज्यादा कमी की गुंजाइश भी नहीं रह गयी है.
दिसंबर 2022 के आंकड़े बताते हैं कि पिछले वर्ष की तुलना में हमारा निर्यात 12 फीसदी कम हुआ है. दो वर्ष में यह सबसे बड़ी गिरावट है. तेल के आयात का बिल कम होने से आयात में तीन फीसदी की कमी आयी है, लेकिन चालू खाते का कुल व्यापार घाटा बढ़ता जा रहा है. जानकार मानते हैं कि यह जीडीपी के 4.4 फीसदी तक जा सकता है.
इसमें अगर केंद्र और राज्य सरकारों के राजकोषीय घाटे को जोड़ दें, तो यह 10 से 11 फीसदी तक चला जायेगा. यदि अर्थव्यवस्था इतने घाटे में होगी, तो सरकार को हाथ बांधने ही होंगे. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की मुट्ठी अगर लगातार कसती जा रही है तो उसकी वजह यही है. ऐसे में हम उनसे मध्य वर्ग के लिए उदार या लोकलुभावन बजट की उम्मीद न ही करें, तो बेहतर होगा.
सरकार और वित्त मंत्री जरूर महंगाई के आंकड़ों में लगातार कमी से कुछ राहत महसूस कर रही होंगी. थोक मूल्य सूचकांक जो पंद्रह फीसदी तक चला गया था, अब वह पांच फीसदी के नीचे आ गया है जिसे कम तो नहीं माना जा सकता, लेकिन वह बेचैनी वाली हालत का संकेत नहीं देता. हालांकि खुदरा मूल्य सूचकांक अभी भी छह फीसदी से ज्यादा नीचे नहीं है, जो खतरे का स्तर माना जाता है.
रिजर्व बैंक द्वारा तय रेट तो चार फीसदी का ही है, लेकिन इधर बैंक द्वारा ब्याज की दरें बढ़ाने से मुद्रास्फीति कम हुई है. यह अर्थव्यवस्था के लिए अच्छी सूचना है, लेकिन सरकार के लिए बुरी. बुरी इस मायने में कि इससे रिजर्व बैंक की अपनी कमाई और बचत में भारी कमी आयी है तथा उसका मुनाफा घटा है. इस चलते वह सरकार को मोटा बोनस देने की स्थिति में नहीं होगा.
दो वर्ष पहले उसने सरकार को एक लाख करोड़ के करीब मुनाफा दिया था और सरकार ने उसके रिजर्व खाते से इससे भी ज्यादा रकम ले ली थी. पिछले वर्ष यह बोनस तीस हजार करोड़ से कुछ ही ऊपर गया था, इस बार इसके और नीचे जाने का अनुमान है.
सरकार ही नहीं, हम भी यह सोचकर खुश होते हैं कि यूक्रेन युद्ध ने उतना नुकसान नहीं किया जितने की आशंका थी. लेकिन अभी भी वह क्या रुख लेगा यह कहना मुश्किल है. यही हाल तेल कीमतों का है. अगर यूरोप व अमेरिका के बाजार से मांग गायब है और वे भारी महंगाई से जूझ रहे हैं, तो जल्दी हालत सुधारने की बात करना सपना ही हो सकता है.
अमेरिका तक ने बैंक दरों में बढ़ोतरी करके अर्थव्यवस्था पर जो बोझ लादा है उससे बहुत जल्दी मुक्ति होगी और अर्थव्यवस्था जल्दी पटरी पर लौटेगी, यह कल्पना भी मुश्किल है. बल्कि इसके चलते हमारे शेयर बाजार से भारी मात्रा में पूंजी निकाली जा रही है.
इसका दबाव हमारा रुपया भी झेल रहा है. मांग न होने से करखनिया उत्पादन गिरा है. हमारी अर्थव्यवस्था में मजबूत चीजें दिख रही हैं (कृषि उत्पादन वगैरह) लेकिन यह सोच लेना कि मात्र इतने से हम दुनिया में सबसे आगे हो जायेंगे, मुंगेरीलाल के हसीन सपने सरीखा ही है.
उम्मीद करनी चाहिए कि वित्त मंत्री चुनावी वर्ष में लोकलुभावन प्रावधानों वाला बजट लाने की जगह खर्च बढ़ाने वाला बजट लायेंगी. सारे लोग यह उम्मीद लगाये बैठे हैं कि वे खेती के साथ सेवा क्षेत्र के लिए कुछ बड़े कदमों की घोषणा करेंगी. सेवा क्षेत्र को बढ़ावा देना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहे हैं.
यह उम्मीद भी की जा रही है कि सेवा क्षेत्र का निर्यात वस्तुओं के निर्यात से ऊपर निकल जायेगा. दुनिया के अनाज और वस्तु व्यापार बाजार में हालात बेहतर होने से राहत महसूस की जा रही है, लेकिन पाकिस्तान और श्रीलंका की जो हालत हुई है वह भूलना नहीं चाहिए. विश्व अर्थव्यवस्था अभी नाजुक दौर में है. इसलिए संभलकर चलने की जरूरत है.
(ये लेखक निजी विचार हैं.)