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My Mati: वनाधिकार कानून के क्रियान्वयन के लिए जरूरी है ग्रामसभा सशक्तीकरण

मध्य प्रदेश, जंगलवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने के मकसद से बने वनाधिकार कानून का उद्देश्य अब भी पूरा नहीं हुआ है, लेकिन देश के कुछ जगहों पर स्थिति जरूर कुछ बदली है. खासकर वनाधिकार पत्र पाने वाले अब थोड़ा राहत महसूस करने लगे हैं.

जेवियर कुजूर : वनाधिकार कानून को लेकर ग्रामसभाओं के आगे आने से देश के लाखों वनाश्रितों को जीविका का अधिकार एवं अवसर मिला है. वे ग्राम सभा में सामूहिक निर्णय से अपना अधिकार ले रहे हैं. झारखंड में भी वनाश्रित आदिवासियों एवं अन्य परंपरागत वनाश्रितों में जागरूकता और ग्रामसभाओं के सक्रिय पहल से हजारों दावेदारों को वनाधिकार प्रमाण पत्र प्राप्त हुए हैं. यह ग्राम लोकतंत्र और ग्रामसभाओं के सशक्तिकरण की पहचान है. दरअसल 73 वें संविधान संशोधन के बाद ‘पेसा’ 1996 और वनाधिकार जैसे कानूनों को लेकर कई ग्राम सभा नयी भूमिका के साथ आगे बढ़ रहे हैं.

झारखंड के गुमला जिले के चैनपुर प्रखंड के रामपुर गांव का उदाहरण उल्लेखनीय है, जहां ग्रामसभा के प्रयास से पांच आदिवासी परिवारों को वनाधिकार पत्र मिल गया है. अब वे निश्चिंत होकर इस जमीन पर खेती-बारी कर रहे हैं और रह रहे हैं. रामपुर ग्रामसभा के सचिव सुमन खलखो से हमने पूछा- जंगल के उपयोग के साथ-साथ आपलोग इसकी रक्षा कैसे करते हैं? उन्होंने कहा कि वे अपने जंगल से जलावन खातिर सूखी लकड़ी एवं झाड़ी तथा वनोपज के रूप में फल-फूल, कंद-मूल, जड़ी-बूटी, रुगड़ा, खुखड़ी, महुआ, केंद, चार, पियार इत्यादि लाते हैं और अपना जंगल भी बचाते हैं.

मनमानी जंगल कटाई पर रोक है. अगर अपने गांव में किसी को निजी जरूरत के लिए लकड़ी या शादी-व्याह में मड़वा की जरूरत होती है तो वे ग्राम सभा की अनुमति से निर्धारित संख्या में ला सकते हैं. गांव के लोग वन संसाधनों का उपयोग अपने तरीके से घरेलू काम के लिए करते हैं. वनाधिकार समिति की सदस्य फ्लोरा टोप्पो बताती है कि 2017 वे सामुदायिक वनाधिकार का दावापत्र भी जमा कर चुके हैं तथा ग्राम सभा में नियम बनाकर अपने जंगल की रक्षा खुद करते हैं, जिसमें महिलाओं की सक्रिय भागीदारी रहती है. अब साधारणतः वन विभाग के लोग यहां नहीं आते हैं.

रामपुर गांव रांची से पश्चिम करीब 150 किलोमीटर दूर गुमला जिले में है जो प्रखंड मुख्यालय चैनपुर से मात्र 2 किलोमीटर दूर है. यहां 2015 में ग्रामसभा सदस्यों से वनाधिकार समिति बनाी. इनकी पहल से पांच व्यक्तिगत दावेदारों ने आवश्यक दस्तावेजों के साथ दावापत्र भरा. समिति में छह महिला और छ: पुरुष सदस्य हैं. वनाधिकार समिति एवं ग्रामसभा ने स्थल जांच पूरी कर उन दावों को सर्वसम्मति से पारित किया तथा 19 अगस्त, 2015 को सरकार के पास जमा किया. अंततः 24 सितंबर, 2016 में सभी 5 दावेदारों को वनाधिकार प्रमाण पत्र मिला. इससे इन परिवारों को थोड़ी खुशी हुई है, लेकिन जिन्हें दावों के अनुरूप अधिकार नहीं मिला, उनकी खुशी अधूरी है. इसी भांति झारखंड में व्यक्तिगत वनाधिकार अधिकांशतः 5-10 या 10 से 20 डिसमिल मिला है.

कई ऐसे दावेदार भी हैं जिन्हें मात्र 1-2 या 4-5 डिसमिल वनभूमि मिला जो कि घर-मकान और आजीविका या भरण-पोषण के लिए काफी नहीं है. जबकि कानून की धारा 4 (6) के मुताबिक अधिकतम चार हेक्टेयर (10 एकड़) तक की मंजूरी हो सकती है. झारखंड में वनाधिकार कानून को लागू करने हेतु विभिन्न जिलों में सामाजिक एवं गैर सरकारी संगठनों या कहीं-कहीं सरकारी स्तर पर भी प्रचार-प्रसार, जागरूकता और प्रशिक्षण कार्यक्रम किये गये. इस दौरान वनाश्रितों- खासकर ग्रामसभा, वनाधिकार समिति सदस्यों और वनाधिकार कार्यकर्ताओं को इस कानून के नियम, प्रावधान एवं दावा प्रक्रिया की जानकारी दी गयी. वनाधिकार समिति में अनिवार्य रूप से कम से कम एक तिहाई महिलाओं को रखने पर जोर दिया गया. फिर आवश्यक कागजातों को जुटाने और स्थल जांच के बारे भी बतलाया गया. फलस्वरूप झारखंड में भी व्यक्तिगत वनाधिकार को लागू करने का काम कुछ हद तक हो पाया है, लेकिन राज्य में संभावना के अनुरूप इसमें अपेक्षित प्रगति नहीं हो पायी है.

झारखंड सरकार द्वारा भारत के केंद्रीय आदिवासी मंत्रालय को भेजे गये 31 मार्च, 2022 तक के रिपोर्ट के अनुसार झारखंड में कुल एक लाख 10 हजार 756 दावे (सामुदायिक सहित) जमा हुए, जिसमे एक लाख 7 हजार 32 व्यक्तिगत दावे थे. इनमें से 59,866 दावे स्वीकृत हुए और वनाधिकार प्रमाण पत्र मिले, जिसमें कुल एक लाख 53 हजार 395.86 एकड़ वनभूमि मिला. लगभग 28 हजार 107 दावे निरस्त भी हुए हैं. झारखंड में अब तक के वनाधिकार क्रियान्वयन के आंकड़े बतलाते हैं कि दावेदारों को उनके दावों के अनुरूप वनाधिकार पत्र नहीं मिले हैं और जिनके दावे बिना कारण बतलाये निरस्त कर दिये गये हैं, उनमें निराशा एवं असंतोष है. इन्हें बेदखलीकरण का खतरा हो सकता है. मालूम हो कि दावों पर समितियों के अस्वीकृति की लिखित सूचना के बाद 60 दिनों के भीतर दावेदार उपरी वनाधिकार समितियों में अपील कर सकते हैं.

देश के भू-अधिकार मामले में संभवतः यह पहला कानून है जिसमें व्यक्तिगत वनाधिकार प्रमाण पत्र में पति-पत्नी दोनों के नाम होना अनिवार्य है. अतः जेेंडर/लैंगिक समानता के नजरिये से यह कुछ हद तक लोकतांत्रिक एवं प्रगतिशील कानून है. लेकिन याद रहे कि व्यक्तिगत वनाधिकार के रूप में प्राप्त वन भूमि बिक्रीयोग्य या हस्तांतरणीय नहीं है, बल्कि पीढ़ी दर पीढ़ी उस परिवार के भरण-पोषण के लिए होगा और जिस दिन उस परिवार कोई व्यक्ति नहीं रह जाएगा, तब वह उनके निकटतम संबंधियों के हाथ में चला जाएगा.

कहा जा सकता है कि जंगलवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने के मकसद से बने वनाधिकार कानून का उद्देश्य अब भी पूरा नहीं हुआ है, लेकिन देश के कुछ जगहों पर स्थिति जरूर कुछ बदली है. खासकर वनाधिकार पत्र पाने वाले अब थोड़ा राहत महसूस करने लगे हैं और वे अपने जमीन पर जोत-कोड़ एवं खेती-बारी कर जीवन गुजर-बसर कर रहे हैं. हालांकि वनविभाग की दखलंदाजी कहीं न कहीं अब भी होती है, लेकिन अब थोड़ा फर्क यह है कि वन विभाग हर किसी को कानूनन अतिक्रमणकारी करार नहीं दे सकता. चूंकि अब वे वनाधिकार के दावेदार और प्रमाण पत्र के हकदार हैं. अगर वे इसे हासिल करने वाले ग्रामसभाओं से प्रेरणा लेकर वनाधिकार का दावा करें तो उन्हें भी यह प्रमाण पत्र मिल सकता है. अतः व्यापक तौर पर वनाधिकार क्रियान्वयन के लिए ग्रामसभा जागरूकता एवं सशक्तीकरण जरूरी है.

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