मोटी तनख्वाह पाने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा के किसी अधिकारी या उनके परिवार सदस्यों की बीमारी के इलाज का पूरा खर्च भारत सरकार उठाती है. क्योंकि, वे सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम (सीजीएचएस) से जुड़े हैं. इसी तरह संसद या विभिन्न राज्यों की विधानसभाओं के मौजूदा या पूर्व सदस्यों के इलाज का खर्च भी हमारा देश वहन करता है. कई राज्यों के कर्मचारियों को भी ऐसी सुविधाएं हासिल हैं.
मतलब, अगर खुदा न खास्ते वे बीमार पड़े और इलाज का अतिरिक्त खर्च आन पड़ा, तो उन्हें सहुलियतें मिल जाएंगी. लेकिन, भारत की आधी से अधिक आबादी को ऐसी स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ नहीं मिल पाता. क्योंकि, वे प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी आयुष्मान योजना के दायरे में भी नहीं आते. विभिन्न राज्यों द्वारा गंभीर बीमारियों के मरीजों के इलाज के सहायतार्थ चल रही योजनाएं भी आपकी सालाना आमदनी की सीमा पर आधारित हैं.
मतलब, अगर आप एक निश्चित रकम से अधिक कमाते हैं, तो आपको यह लाभ नहीं मिल सकेगा. लेकिन, आमदनी की यह सीमा केंद्रीय सेवाओं के अधिकारियों-कर्मचारियों या सांसदों-विधायकों के लिए लागू नहीं हैं. उनकी आमदनी भले ही करोड़ों में हो, वे सरकार की इन मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ ले सकते हैं.
चार फरवरी को विश्व कैंसर दिवस है. लिहाजा, इस मुद्दे को आसान बनाने के लिए कैंसर के बहाने इसकी चर्चा करते हैं. संसद में प्रस्तुत सरकार की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में पिछले साल 2022 में करीब 14.61 लाख लोगों में कैंसर का पता चला. इससे पहले साल 2021 में 14.26 लाख और 2020 में 13.92 लाख नये कैंसर मरीजों की पहचान हुई थी.
आशंका जतायी गयी है कि अगर यही हालत रही, तो 2025 तक देश में कैंसर मरीजों की संख्या साढ़े पंद्रह लाख से अधिक हो जायेगी. दुखद यह कि देश में 2020 से 2022 के बीच पहचाने गये कैंसर के कुल 23 लाख 67 हजार 990 मरीजों की मौत भी हो गयी. मतलब, पूरी संख्या के आधे से अधिक मरीजों की जान हमारे देश की स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं बचा सकी.
ऐसा क्यों! एक उदाहरण से समझिए, साल 2021 में जब मुझे फेफड़ों का कैंसर डायग्नोस हुआ, तो वह अपने अंतिम स्टेज में था. चौथे स्टेज का मेटास्टैटिक लंग कैंसर. मैंने देश के प्रमुख कैंसर अस्पताल टाटा मेमोरियल हास्पिटल, मुंबई में अपना इलाज कराना शुरू किया. मैं नॉन स्मोकर था, तो डॉक्टरों ने मेरी मालिक्यूलर जांच भी करायी.
मेरे शरीर में एक म्यूटेशन (इजीएफआर) मिला, जिसकी टारगेटेड थेरेपी की जा सकती है. इसके लिए भारत में एक अच्छी दवा उपलब्ध है, जिसकी कीमत प्रति 30 टैबलेट करीब 5 लाख रुपये है. तब एक महीने की दवा खरीदने पर दो महीने की मुफ्त की स्कीम थी. मतलब तीन महीने की टारगेटेड थेरेपी के लिए 5 लाख रुपये का खर्च सिर्फ दवा पर. मैं वह दवा नहीं ले सका.
मैं सेकेंड लाइन ट्रीटमेंट पर गया, क्योंकि न तो मेरा कोई हेल्थ इंश्योरेंस था और न उतनी आमदनी. भारत में प्रति व्यक्ति आय के नजरिये से देखें, तो अधिकतर लोग इतनी महंगी दवा अफोर्ड नहीं कर सकते. हमारे देश में मोर्टालिटी दर बढ़ने की यह बड़ी वजह है.
अब जरूरत दो बातों की है. पहली कि कैंसर को कोविड-19 की तरह महामारी घोषित करें, क्योंकि सरकार की रिपोर्ट के ही मुताबिक देश के हर नौवें आदमी को कभी न कभी कैंसर हो जाता है. दूसरी देश में हेल्थ इक्वलिटी की बात करें. किसी ऐसी योजना पर सोचें, जो देश के हर नागरिक को एक निश्चित रकम का स्वास्थ्य बीमा देता हो. क्या हम सबके लिए आयुष्मान योजना पर नहीं सोच सकते. क्योंकि, बीमारी तो सबको तोड़ती है. वो करोड़पति हो या खाकपति.