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प्राकृतिक खेती से जुड़ें किसान

प्राकृतिक कृषि पद्धति में सूखे कचरे को गोबर में मिला कर कंपोस्ट खाद तैयार करने के ग्रामीण स्वच्छता के संकल्प को भी नया आयाम मिल सकेगा.

भारत की लगभग 70 प्रतिशत जनसंख्या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खेती पर आश्रित है. खाद्यान्न उत्पादन में भारत दुनिया में दूसरे पायदान पर है. आज भारत दुनियाभर में खाद्यान्न का व्यापार करने वाला अहम देश बन कर उभरा है. निःसंदेह इस स्थिति में हरित क्रांति की बड़ी भूमिका है, लेकिन उसी हरित क्रांति ने भारत की कृषि प्रणाली को छिन्न-भिन्न कर दिया है.

इसी क्रांति के कारण आज भारत की खेती बड़े पूंजी के दबाव में है तथा तकनीक की गुलाम हो चुकी है. इस हरित क्रांति ने खेती की लागत को कई गुना बढ़ा दिया है. किसानों को बीज के लिए मॉनसेंटों व कार्गिल जैसी दैत्याकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर आश्रित रहना पड़ रहा है. खेती की उत्तर-आधुनिक प्रणाली ने किसानों को बड़े पैमाने पर रासायनिक उर्वरक और कीटनाशकों के प्रयोग के लिए प्रोत्साहित किया.

आंकड़े बताते हैं कि 2020-21 में महाराष्ट्र में 13,242 टन, उत्तर प्रदेश में 11,557 टन, पंजाब में 5,193 टन एवं हरियाणा में 4,050 टन कीटनाशकों का प्रयोग किया गया. एक अन्य आंकड़े के अनुसार, देश में 2015-16 में कीटनाशी दवाओं की खपत 56,720 टन थी, जो 2019-20 में 61,720 टन हो गयी. यही हाल उर्वरकों के खपत का भी है.

वर्ष 2015-16 में उर्वरक की खपत 133.44 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी, जो 2019-20 में 135.76 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर हो गयी. इस कारण न केवल हमारे किसानों पर आर्थिक दबाव बढ़ा है, अपितु पूरे गंगा-ब्रह्मपुत्र की मैदानी मिट्टी प्रदूषित भी हो चुकी है. नदी, तालाब, बाहरी और भूमिगत जल में आर्सेनिक की मात्रा इतनी अधिक हो चुकी है कि उसका उपयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो गया है.

पंजाब, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र के एक बड़े हिस्से में कैंसर महामारी बन चुका है. भारत का हर तीसरा व्यक्ति पेट की बीमारी से परेशान है. जानकारों की मानें, तो हृदय रोग, रक्तचाप, डायबिटीज आदि के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण यही है. खेती ऐसे चौराहे पर आ गयी है, जहां से आगे विनाश के कई रास्ते खुल रहे हैं, लेकिन इस आधुनिक उहापोह के घटाटोप में कुछ संभावनाएं भी परिलक्षित हो रही हैं. उन संभावनाओं में जैविक खेती और प्राकृतिक खेती भी हैं.

भारतीय आदि सनातन चिंतन में धरती को मां का दर्जा प्राप्त है. मानवता की वर्तमान पीढ़ी ने अपनी मां के साथ घोर अन्याय किया है. लालच में हमने सोना उगलने वाली पंजाब की धरती को नशाखोरों की जमीन बना दिया. हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्तमान खेती के तरीकों को बारीकियों से समझते हुए एवं भविष्य को मध्य में रख प्राकृतिक खेती विस्तार योजना की जो रणनीति बनायी है, वह धरती मां को संरक्षित व संवर्धित करने में बड़ी भूमिका निभायेगी.

वैसे भारत में और खासतौर झारखंड जैसे आदिवासी-बहुल राज्यों में ऐसी खेती परंपरा के साथ जुड़ी रही है, लेकिन वर्तमान दौर में इसे आधुनिक सोच के साथ फिर से दुनिया के समक्ष लाने का श्रेय जापानी चिंतक, जो पेशे से किसान हैं, मासनोबू फुकुओका को जाता है. प्राकृतिक खेती में जुताई, गुड़ाई, उर्वरक का उपयोग, कीटनाशक का उपयोग, निराई आदि का उपयोग नहीं किया जाता है.

प्राकृतिक खेती में किसी भी प्रकार के रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशी दवाओं का प्रयोग नहीं होता है. ऐसी खेती के लिए देशी गाय का होना आवश्यक होता है. जानकारों की मानें, तो एक देशी गाय एक महीने में लगभग 30 एकड़ की खेती का खुराक उपलब्ध करा देती है. इस पद्धति की खेती में पानी की भी बचत होती है. जमीन में पानी सोखने की क्षमता बढ़ने लगती है, जिस कारण मिट्टी में सकारात्मक शक्ति का संचार होने लगता है.

परंपरागत कृषि प्रणाली में जीवाणु रोधक क्षमता का खजाना छिपा है. प्राकृतिक कृषि पद्धति में सूखे कचरे को गोबर में मिलाकर कंपोस्ट खाद तैयार करने के ग्रामीण स्वच्छता के संकल्प को भी नया आयाम मिल सकेगा. नीम व अनुप्रयोगी राख को रासायनिक कीटनाशकों के विकल्पों के तौर पर शामिल कर प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जा सकता है. मिट्टी की मृदा शक्ति को संरक्षित रखने व इसे अम्लीय व क्षारीय के साथ साथ प्रदूषित होने से बचाने की जिम्मेदारी सबकी है.

झारखंड के दूरस्थ क्षेत्रों में आज भी जनजातीय किसान रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशी दवाओं का प्रयोग नहीं करते हैं. यदि आदिवासी पद्धति का बारीकी से अध्ययन और दस्तावेजीकरण हो, तो इसका लाभ अन्य किसानों को भी मिल सकता है. भारत ऋषि व कृषि प्रधान देश रहा है.

प्राकृतिक खेती इस देश की आत्मा है. इसे महत्व दिया जाना उतना ही जरूरी है, जितना शरीर के लिए आत्मा का महत्व आवश्यक है. झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, पूर्वोत्तर के राज्य, सिक्किम, हिमाचल प्रदेश, लद्दाख एवं जम्मू-कश्मीर आदि प्रांतों के जनजातीय क्षेत्रों के अलावा पंजाब के उमेंद्र दत्त, पद्मश्री सुभाष पालेकर, गुजरात के राज्यपाल देवव्रत आदि इस खेती को अपनाकर किसानों को प्रोत्साहित कर रहे हैं. यदि इस खेती को बल मिला, तो देश कृषि संकट की विभीषिका का समाधान खोजने में सफल हो सकता है.

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