बजट के आंकड़ों का स्वप्निल लक्ष्यों की संभावना से अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तौर-तरीकों को आधुनिक अर्थशास्त्र माना जाए, तो साहसी दाव-पेंच और मायावी निर्देश सत्ता के गुण होते हैं. वे बड़े आंकड़ों में दक्ष हैं- देश को आधे दशक में पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाना कुछ ही समय की बात है. वर्ष 2014 से हर भारतीय बजट आंकड़ों पर आधारित रहा है, न कि एक निर्धारित आर्थिक विचारधाराओं पर, जिनसे अपनी गति से चलती अर्थव्यवस्था की आधारभूत संरचना में शायद ही कभी बदलाव आता है,
पर वे एक अभिजन आख्यान के वाहन होते हैं. सभी नौ मोदी बजटों में अचरज पैदा करने वाले तत्व रहे हैं, लेकिन इस बार के बजट में ऐसा नहीं है. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा बजट पेश करने से एक सप्ताह पहले सब कुछ जानने वाले अर्थशास्त्री, उद्योग जगत के नेता, मामूली जानकारी वाले नेता और पत्रकार विश्वास के साथ घोषणा कर रहे थे कि मध्य वर्ग के लिए कर छूट मिलेगी, पूंजी व्यय बढ़ेगा और इंफ्रास्ट्रक्चर में आवंटन होगा.
जब सीतारमण ने अपना बजट पढ़ा, तो उसमें बड़े सपने नहीं थे और न ही कुछ उल्लेखनीय था, भले ही प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि ‘इस बजट में सबके लिए कुछ-न-कुछ है. आयकर में छूट सुर्खियों में रही. कारोबारी मंचों ने स्वाभाविक रूप से अधिक खर्च के वादे पर सरकार की प्रशंसा की ताकि उनकी मांग बनी रहे.
लेकिन क्यों इसमें बड़े आंकड़े नहीं है? नॉर्थ ब्लॉक के बाजीगर समझ नहीं पा रहे हैं क्योंकि उनसे बड़ा सोचने या कोई आकर्षक कारक बनाने के लिए नहीं कहा गया. चूंकि सरकार को सलाह देने वाले अधिकतर आर्थिक विशेषज्ञ अपने विचारों की तुलना में अपनी डिग्रियों के लिए जाने जाते हैं, इसलिए उनके लिए कुछ नया सोच पाना असंभव सा है.
बहरहाल, कही-सुनी बातें इंगित करती हैं कि मध्य-स्तरीय नौकरशाहों ने पांच ट्रिलियन विचार की तरह 50 लाख करोड़ का बजट होने की बात प्रचारित करने का प्रयास किया. अनौपचारिक वार्ताओं के दौरान अनाम अर्थशास्त्रियों, सेवानिवृत्त अधिकारी, उद्योग जगत के नेता और श्रम एवं किसान संघों के नेताओं ने प्रधानमंत्री कार्यालय और वित्त मंत्रालय को सरकारी खर्च बढ़ाने के लिए सुझाव दिया.
उन्होंने सोचा कि यह कोई आदर्शवादी अवधारणा नहीं है क्योंकि सरकारी खर्च 2021-22 के 32 लाख करोड़ से बढ़कर 38 लाख करोड़ रुपये हो गया है. प्रशासनिक स्तर पर हिसाब-किताब करने वालों ने पूंजी व्यय में एक लाख करोड़ रुपये बढ़ाने तथा स्वास्थ्य, शिक्षा आदि सामाजिक क्षेत्रों में आवंटन कम-से-कम 30 प्रतिशत बढ़ाने का सुझाव दिया था. किसानों की नाराजगी को देखते हुए उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि कृषि क्षेत्र को अतिरिक्त आवंटन दिया जाए.
लेकिन आंकड़ों को जोड़ने पर प्रस्तावित खर्च और आय के स्रोत में बड़ी खाई देखी गयी. बढ़ते घाटे को लेकर सरकार की पहले से ही आलोचना हो रही थी. ऐसे में मनरेगा और केंद्र द्वारा पोषित लगभग 58 कार्यक्रमों में आवंटन बढ़ाने की जगह रेलवे और आवास क्षेत्र में अधिक आवंटन किया गया. लेकिन 45 लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा अभी भी स्वप्निल लक्ष्य से पांच लाख करोड़ पीछे है. सीतारमण ने पार्टी को कई छोटे आंकड़े दिये, जिसके आधार पर वे अमृत काल के पहले बजट को लेकर लोगों के बीच जा सकें.
मुख्यमंत्रियों के लिए चुनाव सरदर्द भी है और उम्मीद भी. कर्नाटक, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्रियों और दावेदारों की नींद उड़ी हुई है. आंतरिक विद्रोहों के चलते वे जीत को लेकर असमंजस में हैं. कांग्रेस के दो मुख्यमंत्री- अशोक गहलोत और भूपेश बघेल- आश्वस्त दिख रहे हैं, लेकिन कर्नाटक में एसआर बोम्मई और मध्य प्रदेश के शिवराज चौहान मुश्किल में हैं. भाजपा के दोनों मुख्यमंत्री असली और नये आने वालों के बीच फंसे हैं.
चौहान ने तीन बार जीत हासिल की है और स्थायी एवं अच्छी सरकार दी है. वे बहुत सक्रिय भी हैं और कार्यकर्ताओं के लिए उपलब्ध भी रहते हैं. वे राज्य में भाजपा के सबसे लोकप्रिय पिछड़े चेहरे हैं और सबसे ऊर्जावान भाजपाई मुख्यमंत्रियों में एक हैं. उनकी कोई राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा भी नहीं है. वे अटल-आडवाणी युग के एकमात्र मुख्यमंत्री हैं.
लेकिन बहुत से केंद्रीय नेता मोदी को बता रहे हैं कि चौहान के खिलाफ मजबूत एंटी-इनकमबेंसी है और अब कोई युवा चेहरा लाया जाना चाहिए. कर्नाटक में भी बोम्मई को हटाने का दबाव है. सरकारी कामकाज को लेकर भी उनकी आलोचना हो रही है तथा उन्हें कांग्रेस की चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है. इन दो राज्यों में 55 लोकसभा सीटें हैं, इसलिए मोदी और उनकी टीम के लोग कोई बड़ा कदम उठाने से पहले काफी सोच-विचार कर रहे हैं.
राजस्थान और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्रियों- वसुंधरा राजे और रमन सिंह- को नाममात्र का राष्ट्रीय उत्तरदायित्व देने से इंगित होता है कि उन्हें किनारे कर दिया गया है. अंदर के लोगों का मानना है कि इनके सहयोग के बिना इन राज्यों में भाजपा के लिए मामूली गुंजाइश रह जायेगी. अब मोदी पर निर्भर करता है कि वे क्या करते हैं.
अब तक डबल इंजन की सरकार भाजपा के लिए केवल एक राजनीतिक नारा थी. अब राज्यों को प्रधानमंत्री कार्यालय के सहयोग से विकास का संभावित इंजन होने का नया लेबल दिया गया है. बीते पांच वर्षों से हर प्रचार सामग्री पर प्रधानमंत्री के साथ संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री की तस्वीर रहती आयी है. अब पहली बार राज्य और केंद्र की नौकरशाही भाजपा-शासित राज्यों में साथ काम करेगी ताकि विजन मोदी को ठीक से लागू किया जा सके.
मुख्य सचिव, पुलिस प्रमुख और जनसंपर्क विभाग के प्रमुख समेत राज्य के प्रमुख अधिकारियों को प्रधानमंत्री की पसंदीदा योजनाओं को लागू करने के लिए सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय से संपर्क रखने की सलाह दी गयी है. सूचना और प्रचार के अधिकारी प्रधानमंत्री कार्यालय और पार्टी के मीडिया विभाग के सीधे संपर्क में है ताकि प्रचार सामग्री पर सलाह हो सके. उन्हें संदेश और संदेशवाहक यानी प्रधानमंत्री में एका सुनिश्चित करना है.
नींव रखने तथा पुरानी योजनाओं के उद्घाटन का पूरा कैलेंडर बनाया जा चुका है ताकि आगामी 15 महीनों तक प्रधानमंत्री मोदी को टीवी चैनलों के प्राइम टाइम में और अखबारों के पहले पन्ने पर प्रमुखता से जगह मिलना सुनिश्चित किया जा सके. राज्यों को कहा गया है कि वे अपने बजट में प्रचार के मद में भारी आवंटन करे, भले ही इसके लिए अन्य विभागों के आवंटन में कटौती करना पड़े. पार्टी को भरोसा है कि प्रधानमंत्री की हर जगह मौजूदगी से मुख्यमंत्री की शक्ति और स्वीकार्यता भी बढ़ेगी.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)