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बिहार की लोक कला फिर हो रही जीवित, कनिया-पुत्री समेत इन कलाओं के प्रतिलोगों का बढ़ा रूझान

बिहार में कलाओं का समृद्ध विरासत है. यहां सैकड़ों साल पुरानी कलाओं को जीवित रखने के लिए कलाकार लगातार प्रयास कर रहे हैं. एक वक्त ऐसा भी आया जब बाजार से कास्ट कला (वुडेन आर्ट), कनीया पुत्री, टेराकोटा, सुजनी कला को लोग भूलने लगे थे.

जूही स्मिता, पटना

बिहार में कलाओं का समृद्ध विरासत है. यहां सैकड़ों साल पुरानी कलाओं को जीवित रखने के लिए कलाकार लगातार प्रयास कर रहे हैं. एक वक्त ऐसा भी आया जब बाजार से कास्ट कला (वुडेन आर्ट), कनीया पुत्री, टेराकोटा, सुजनी कला को लोग भूलने लगे थे, तब ये कलाकार अपनी कलाओं को आधुनिक रूप देकर न केवल बिहार के बाजार में फिर से जगह बनाने में सफल हो रहे हैं, बल्कि उन्हें ग्लोबल मार्केट में भी पहुंच बना रहे हैं. यही वजह है कि देशभर से इन हस्तशिल्पों की मांग बढ़ी है. कलाकारों का कहना है कि इसका एक मकसद यह भी है कि बिहार की कलाओं से आज की युवा पीढ़ी भी जुड़े और इसे बढ़ावा दें. गौरतलब हो कि बिहार की विश्वविख्यात मिथिला पेंटिंग की यात्रा काफी पुरानी है. काष्ठ कला, पेपरमैसी, मंजुषा कला, मेटल क्राफ्ट, टिकुली कला, सिक्की कला, कशीदाकारी(एप्लिक वर्क), सुजनी कला , गुड़िया शिल्प,वेणु शिल्प, बावन बूटी, भोजपुरी कला, कोहबर शिल्प आदि के क्षेत्र में भी बिहार अतीत में समृद्धशाली रहा है.

कनिया-पुत्री की पुरानी परंपरा फिर बना रही जगह

कंकड़बाग की रहने वाली नमिता आजाद पिछले 20 सालों से पश्चिम चंपारण की पुरानी परंपरा ‘कनिया पुत्री’ को पुनर्जीवित करने में लगी है. इसके तहत विदा हो रही बेटियों की खुशहाली और समृद्धि के लिए डॉल यानी गुड़िया देने की परंपरा थी. वे कहती हैं, इस कला को जब लोग भुलने लगे, तो इसे फिर से लोगों के सामने लाने का प्लान किया. वे समय-समय पर महिला उद्योग संघ के मेले में और अन्य राज्यों में लगने वाले मेले का हिस्सा बनती रही हैं. इनके पास 150 रुपये से लेकर 4000 रुपये तक की कनिया पुत्री की गुड़िया है. इस डॉल की मांग बिहार के अलावा नयी दिल्ली, मुंबई, सिंगापुर, अमेरिका और सऊदी अरबिया तक है.

कास्ट कला को आधुनिकता के रंग में रंगा

पटना सिटी के रहने वाले कुश कुमार पिछले 16 वर्षों से कास्ट कला से जुड़े हैं. वे कहते हैं, एक वक्त ऐसा आया जब यह 300 साल पुरानी कला बाजार से लुप्त हो गयी थी. पर कुश ने इस कला को मॉडर्न लुक देकर बाजार में मजबूत पकड़ बनायी. कास्ट कला में खासतौर पर लकड़ी का इस्तेमाल होता है. वे लकड़ी के साथ-साथ अब अखरोट और नारियल के छिलकों से भी खिलौने बनाते हैं. वे इससे हाथी, घोड़ा, मोरतोता, मूर्ति, कुल्हिया-चुकिया आदि बनाते हैं. इस कला को अब वे मॉर्डन लुक देते हुए इंटीरियर डिजाइन के क्षेत्र में भी समावेश कर रहे है.

जूट से बन रही क्वालिटी व ट्रेंडी फैशन ज्वेलरी

आदर्श कॉलोनी की रहने वाली दिव्या रानी सिंह पिछले 17 साल से जूट आर्ट से डॉल, ज्वेलरी और डेकोरेटिव आइटम बना रही हैं. ज्वेलरी और डेकोरेटिव आइटम में उनका खुद का डिजाइन शामिल होता है. वे बताती हैं कि ट्रेडिशनल फॉर्ममें उन्होंने मॉडर्न आर्ट लुक शामिल किया है, जिसे यंगस्टर काफी ज्यादा पसंद कर रहे हैं. इनके द्वारा बनायी गयी जूट कला की चीजें पूरे देश के अलग-अलग राज्यों के अलावा अमेरिका और दुबई तक पसंद की जाती है. लोकल वेंडर इनसे ऑर्डर पर आइटम तैयार करवाते हैं. इनकी कीमत 100 रुपये से लेकर 600 रुपये तक होती है.

आर्थिक उन्नति का आधार बनी सुजनी कला

परंपरागत सुजनी कला आज न सिर्फ स्वरोजगार से जुड़ा है, बल्कि ग्रामीण महिलाओं को यह आर्थिक रूप से सशक्त भी बना रहा है. यह कहना है कंकड़बाग की रहने वाली संजु देवी का. वे पिछले 35 सालों से इस कला से जुड़ी हैं. शुरुआत में सुजनी कला में बेडशीट, कुशन कवर और साड़ी ही बनाये जाते थे, लेकिन बदलते वक्त के साथ इन पारंपरिक चीजों के साथ साड़ियों में वैराइटी, दुपट्टा, स्टोल, वॉल हैंगिंग बाजार में आने लगे हैं. इनके यहां नयी दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई, कोलकाता, कनाडा, जापान और ऑस्ट्रलिया से भी ऑर्डर आते हैं.

विश्व पटल पर छायीं टेराकोटा की कलाकृतिया

मौलागंज, कुम्हार टोली, दरभंगा के रहने वाले लाला पंडित पिछले 50 वर्षों से टेराकोटा कला से जुड़े हैं. वे कहते हैं कि यह कला पुस्तों से चली आ रही है. बदलते वक्त के साथ लोग इस कला को भूल गये थे, पर आज वे इसे विश्व पटल पर लेकर गये हैं. इनके द्वारा बनायी गयी टेराकोटा की कलाकृतियां और खिलौने नयी दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, जापान, इटली और अमेरिका तक में डिमांड है. इनके पास 200 रुपये से लेकर ढाई लाख रुपये तक के टेराकोटा के घोड़े और हाथी हैं. उन्हें इसके लिए स्टेट अवार्ड के अलावा अन्य अवार्ड मिल चुके हैं.

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