डॉ संतोष पटेल
साहित्यकार एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष
भोजपुरी जनजागरण अभियान
santosh818270@gmail.com
भाषाएं संस्कृति की मौखिक अभिव्यक्ति होती हैं. ये हमारे मूर्त और अमूर्त विरासत के संरक्षण व विकास का सबसे शक्तिशाली उपकरण भी हैं. भाषा की शक्ति बांग्ला भाषा के सम्मान संघर्ष में दिखती है, जो जाति, जमात, संप्रदाय व धर्म से ऊपर है. वर्ष 2009 से यूनेस्को द्वारा 21 फरवरी को प्रति वर्ष अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा बांग्ला भाषा की अस्मिता के लिए हुए संघर्ष की कोख की उपज है. भारत से विभक्त होकर पाकिस्तान बना, जिसका एक भाग पूर्वी पाकिस्तान था, जो आज का बांग्लादेश है.
वर्ष 1905 में बंगाल का विभाजन हुआ, जिसको इतिहास में बंग-भंग के नाम से जाना जाता है. बंगाल दो भागों में बंट गया- पूर्वी बंगाल और पश्चिम बंगाल. स्वतंत्रता के बाद पूर्वी बंगाल का हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान बना. वर्ष 1948 में पाकिस्तान ने एकमात्र भाषा उर्दू को राष्ट्रभाषा घोषित किया. पाकिस्तान सरकार यह निर्णय पूर्वी पाकिस्तान के बांग्ला भाषियों को नागवार गुजरा.
विदित है कि किसी भी भाषा की उपेक्षा उस भाषा भाषियों के मां की उपेक्षा के समान होता है. बांग्ला के महाकवि गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर ने मातृभाषा के संबंध में लिखा है- ‘हमारा जन्म दो माताओं की गोद में हुआ. एक मां ने जन्म दिया, दूसरी मां मातृभाषा है, जिसमें हम पले बढ़े. दोनों हमारे लिए आवश्यक व सम्माननीय हैं. पूर्वी पाकिस्तान (आज का बांग्लादेश) में अपनी मातृभाषा बांग्ला को पाकिस्तान की दूसरी राष्ट्रभाषा बनाने, उसके सम्मान व अस्मिता हेतु संघर्ष शुरू हो गया.
यह भी सच है कि बांग्ला भाषियों को उनके मछली प्रेम, लुंगी प्रेम, उनके रहन-सहन और रंग के आधार पर गाहे-बगाहे अभद्र टिप्पणियों से नीचा दिखाने की कोशिश भी होती थी. नतीजा यह हुआ कि 21 फरवरी, 1952 को ढाका विश्वविद्यालय के बाहर विद्यार्थियों ने अपनी मातृभाषा बांग्ला को संवैधानिक मान्यता व उसको पाकिस्तान की राजभाषा की दर्जा देने हेतु प्रदर्शन शुरू किया. ऐसा ही प्रदर्शन ढाका हाई कोर्ट के बाहर हुआ.
भाषाई अस्मिता के इस संघर्ष ने देखते-देखते पूरे पूर्वी पाकिस्तान को अपनी आगोश में ले लिया. पूर्वी बंगाल विधान सभा का घेराव हुआ और प्रदर्शनकारियों ने विधायकों का रास्ता अवरुद्ध कर उनसे विधानसभा में अपना आग्रह पेश करने के लिए कहा. छात्रों के एक समूह ने इमारत में घुसने की कोशिश की, तो पुलिस ने गोलियां चलायी. इसमें अब्दुस सलाम, रफीकउद्दीन अहमद, शफीउर रहमान, अबुल बरकत और अब्दुल जब्बार सहित कई छात्रों की मौत हुई. सरकार ने बताया कि उस दिन 29 लोग मारे गये थे. हत्या की खबर फैलते ही पूरे शहर में कोहराम मच गया. दुकानें, कार्यालय और सार्वजनिक परिवहन बंद कर दिये गये और आम हड़ताल शुरू हो गयी.
मातृभाषा के प्रति अगाध प्रेम का यह एक महान और अद्भुत उदाहरण था. यह शहादत पूरे प्रांत में शोहिद दिवस (शहीद दिवस) के रूप में प्रत्येक वर्ष 21 फरवरी को पूर्वी पाकिस्तान में मनाया जाने लगा. आज इस दिन को शहीद दिवस के रूप में बांग्लादेश में मनाया जाता है. यह दिन राष्ट्रीय अवकाश होता है. पांच वर्षों तक प्रत्येक वर्ष 21 फरवरी को प्रांतव्यापी प्रदर्शन, सरकार के खिलाफ धरना और आंदोलन से विवश हो कर पाकिस्तान सरकार ने बांग्ला को देश के द्वितीय राष्ट्रभाषा का दर्जा दे दिया.
संयुक्त राष्ट्र के महत्वपूर्ण घटक यूनेस्को ने 17 नवंबर, 1999 को इस बाबत प्रचारित किया कि विश्व की समस्त भाषाओं के विकास, संरक्षण व बचाव के उद्देश्य से बांग्ला भाषा की क्रांति के दौरान 21 फरवरी, 1952 को घटित ‘शहीद दिवस’ को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में विश्वभर के समस्त देशों में उनकी अपनी-अपनी मातृभाषा को सम्मान प्रदान करने के लिए मनायें.
संयुक्त राष्ट्र के एक संकल्प के आलोक में यूनेस्को ने 2008 को ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा वर्ष’ मनाया. उसके बाद यूनेस्को ने अपने एक अन्य संकल्प के द्वारा 16 मई, 2009 को ‘अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस’ मनाने की घोषणा की, जिसका मूल उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय वैश्विक समझ से समस्त भाषाओं एवं संस्कृति के माध्यम से ‘अनेकता में एकता’ का भाव है.
आज बांग्ला भाषा का यह आंदोलन अंतरराष्ट्रीय फलक पर समस्त देशों में मातृभाषा के प्रति सम्मान के भाव का संचरण करता है. भारत सरकार ने नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में भारत में प्रयोग की जाने वाली विभिन्न मातृभाषाओं को उचित सम्मान देते हुए प्राथमिक स्तर की शिक्षा से इसको जोड़ने का सराहनीय प्रयास किया है. इसके परिणामस्वरूप प्रत्येक राज्य सरकार अपने राज्य की प्रमुख मातृभाषाओं में प्राथमिक स्तर की पढ़ाई के लिए पाठ्य सामग्री भी विकसित करने लगी है और निकट भविष्य में हमें यह देखने को मिलेगा कि नौनिहालों को उनकी मातृभाषा में प्राथमिक स्तर की शिक्षा मिल रही है.
इसका दूरगामी परिणाम होगा कि बड़ी भाषाओं के दबाव से छोटी-छोटी भाषाएं विलुप्त होने से बच जायेंगी और बच्चों को भाषाई साम्राज्यवाद से मुक्ति भी मिलेगी. उनमें अपनी भाषा से प्रेम और भी बढ़ेगा. इससे लगता है कि इसी को ध्येय बना कर यूनेस्को ने अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की थी.