कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर भाषा..किसी समाज के लिए भाषा उसकी संस्कृति का वाहक होती है. भाषा के माध्यम से ही समाज अपनी संस्कृति, अपना संस्कार और इतिहास को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तानांतरित करता रहा है. भाषा की मां बोली होती है और दुनिया की बात छोड़ दें तो आज बिहार में ही कई ऐसी बोली हैं जो खत्म होने के कगार पर पहुंच चुकी है. मां और बच्चे के बीच का पहला संवाद बोली के माध्यम से ही होता है. ऐसे में बड़ा सवाल है कि मातृभाषा किसे कहा जाये, इसकी चुनौती क्या है और इसका विस्तार कैसे संभव है. आज अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के मौके पर प्रस्तुत है बिहार की तीन प्रमुख भाषाओं के साहित्यकारों से हुई खास बातचीत के प्रमुख अंश.
बिहार में हिंदी और उर्दू के अलावा मुख्य रूप से तीन क्षेत्रीय भाषाएं बोली जाती है. भोजपुरी, मैथिली और मगही. पिछले 40-50 वर्षों में एक बड़ा तबका इन भाषाओं से दूर हुआ है. मातृभाषा को लेकर तीनों क्षेत्रीय भाषाओं के विद्वानों की आम राय है कि यह महज मां की बोलचाल की भाषा नहीं है, बल्कि यह उस परिवेश की भाषा है जो बच्चे को घर, आंगन, टोला-मोहल्ला में सुनने समझने को मिलता है. आज भाषा आंदोलनों ने बिहार की कई बोलियों को खत्म कर दिया है. भोजपुरी के साथ आज अलग चुनौती है तो मैथिली के साथ अलग संकट है. मगही का दर्द इन दोनों से अलग है. एक बात जो आज तीनों भाषाओं में देखने को मिल रही है वो ये हैं कि पहली पीढ़ी बोलती है, दूसरी पीढ़ी समझती है, लेकिन संकट अगली पीढ़ी को लेकर ज्यादा है, क्योंकि वो न बोल पायेगी न समझ पायेगी. जन्मभूमि और कर्मभूमि के बीच का भाषाई अंतर आनेवाले दिनों में मातृभाषा को लेकर एक नयी बहस को जन्म देगा.
भोजपुरी भाषा के जानकार और पत्रकार निराला बिदेसिया कहते हैं कि भोजपुरी समाज ने खुद अपना इतिहास को अमिट किया है. निराला कहते हैं कि मातृभाषा महज मां की भाषा नहीं है, दरअसल वो आसपास के माहौल की भाषा है. निराला कहते हैं कि उनकी मां मगही इलाके से है और पिता भोजपुरी इलाके से. ऐसे में यह तय कर पाना बेदह कठिन है कि मेरी मातृभाषा क्या है, लेकिन अचानक अगर किसी शब्द का मेरी जुबान से निकलने की बात हो तो वो मगही के शब्द ही होंगे. निराला कहते हैं कि समाज के बड़े नायक भोजपुरी को नहीं छोड़े, राजेंद्र बाबू, जगजीवन राम और जेपी ने भोजपुरी को अपनाये रखा. पिछले 4-5 दशकों में मध्यम वर्ग ने घर की भाषा के तौर पर भोजपुरी को छोड़ दिया है. निराला इसे संकट नहीं मानते हैं, कहते हैं कि गिरमिटिया तो दूसरे भाषा के लोग भी गये, लेकिन वो भी भोजपुरी बोलने लगे. आज मगध के कम से कम तीन जिलों में भोजपुरी बोली जा रही है, जबकि भोजपुरी के कई जिलों में मगही लोग समझ भी नहीं पा रहे हैं. भोजपुरी में सबसे बड़ा संकट साहित्य का रहा है, लेकिन निराला कहते हैं कि यह संकट अब दूर होने जा रहा है. आखर जैसी संस्थान साहित्य रचनात्मकता को काफी आगे ले जाने का काम किया है.
मैथिली के कथाकार अशोक कहते हैं कि मातृभाषा परिवेश की भाषा है. यह व्यक्तिवादी नहीं है. यह संस्कार और संस्कृति का भाव प्रकट करती है. 100 से अधिक किताबों का संपादन कर चुके रमानंद झा रमण कहते हैं कि पलायन और दो संस्कृति के बीच संबंध से मातृभाषा की सामान्य परिभाषा लागू करने में दिक्कत तो होगी ही, लेकिन मातृभाषा को केवल मां की भाषा समझना सही नहीं है. कथाकार अशोक कहते हैं कि मैथिली आज खुद से लड़ रही है. भोजपुरी पूरे समाज की भाषा है, लेकिन कई कारणों से मैथिली को एक जातीय बंधन में बांधने का काम किया गया है. यह एक बड़ा कारण बना इसके संपर्क भाषा के रूप में विकसित नहीं हो पाने का. अशोक कहते हैं कि पिछड़े हुए समाज पर हर प्रकार से आक्रमण होता है. संस्कार और संस्कृति तभी बदलती है जब उस समाज की भाषा बदलती है. आज प्रसिद्ध भाषाविद श्रीनिवास इसे पश्चिमीकरण कहते हैं. बाजार, शिक्षा का माध्यम और राजनीतिक प्रभाव ये तीन तत्व भाषा को प्रभावित करते रहे हैं. अशोक कहते हैं कि मैथिली को पाचन शक्ति बढ़ाना होगा. घर में जब मैथिली बोली जायेगी, तभी मातृभाषा के रूप में इस भाषा का आधार बढ़ेगा.
मगही के साहित्यकार प्रभात वर्मा कहते हैं कि मातृभाषा मां की भाषा है जो हम जन्म के बाद पहली बार सुनते, समझते हैं. मगही को मातृभाषा के रूप में नयी पीढ़ी स्वीकार तो कर रही है, लेकिन अगली पीढ़ी के लिए ये सब आसान नहीं होगा. इस भाषा को अपने समाज ने ही छोड़ दिया है. जगन्नाथ मिश्रा मैथिली बोलते थे, लालू यादव भोजपुरी बोलते हैं, लेकिन नीतीश कुमार मगही नहीं बोलते. मगही जब घर में ही अपना वजूद तलाश रही है तो बाहर बाजार की हम क्या बात करें. मगही में एक फिल्म हमने बनायी है. कुछ साहित्य प्रकाशित हुई है, लेकिन प्रकाशक आज भी नहीं मिलते हैं. पुरानी पीढ़ी तो भाषा बोल लेती है, लेकिन नयी पीढ़ी ने भाषा को पूरी तरह छोड़ दिया है. प्रवासी महगी के घरों में 95 प्रतिशत बच्चे मगही बोलना तो छोड़ दीजिए समझ भी नहीं सकते हैं. यह इस भाषा के साथ संकट है और सबसे दुखद है कि समाज आज भी इसके प्रति गंभीर नहीं है. प्रभात वर्मा कहते हैं कि सरकार ने कहने को तो मगही अकादमी की स्थापना कर दी, लेकिन दुभाग्य देखिए कि उस अकादमी के अध्यक्ष भोजपुरी भाषी बने.