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इस होली उसी परंपरा और स्वाद से हो लें सराबोर, युवाओं की ही नहीं, बुजुर्गों की भी समर्पित होली

Holi 2023: होली का जिक्र आते ही आपके मन में सबसे पहले क्या ख्याल आता है? मिट्टी-रंगों और अबीर-गुलाल की होली, फाग गाते गायकों की टोली या फिर मालपुआ, भभरा, खुरमा और दहीबड़े जैसे पकवानों से सजी थाली! जाहिर है आपका जवाब होगा ये सभी.

Holi 2023: होली का जिक्र आते ही आपके मन में सबसे पहले क्या ख्याल आता है? मिट्टी-रंगों और अबीर-गुलाल की होली, फाग गाते गायकों की टोली या फिर मालपुआ, भभरा, खुरमा और दहीबड़े जैसे पकवानों से सजी थाली! जाहिर है आपका जवाब होगा ये सभी. इन सबके बगैर हमारी होली निश्चित ही अधूरी होती है. हम चाहे मगध में रहते हों या मिथिला में, संथाल के निवासी हों या कोल्हान के, भोजपुर या छोटानागपुर में रिहाइश हो या फिर अंग या सीमांचल में. बिहार-झारखंड में होली तो अपनी समृद्ध परंपराओं और खानपान में ही रची-बसी लगती है और जानी भी जाती है. आधुनिकता के दौर में हम और आप होली के इन्हीं रंगों को मिस करते हैं. इन परंपराओं और खानपान में विज्ञान से लेकर सामाजिक रिश्तों का तानाबाना बुना होता है. एक साथ फाग गाने में सामूहिकता का भाव, कादो-कीचड़ लगाने के पीछे मड थेरेपी का साइंस, तो रंग और गुलाल में उत्साह और तरंग के सार देखे जा सकते हैं. वहीं, परंपराओं और खानपान में हमारी आंचलिकता की खुशबू महसूस की जा सकती है. इस कारण इस होली में हम सब उन्हीं रंगों में सराबोर हो लें, तो फिर होली की यादें लंबे समय तक जेहन में बनी रहेगी.

परंपराओं से बच्चों को जोड़ता है होली

पहले हम सबके यहां होली की तैयारियां तो एक पखवाड़े पहले से ही होती थी. सबसे पहले घरों से जलावन की लकड़ियां जमा कर उससे होलिका जलाने की तैयारी होती थी. बिहार और झारखंड के ग्रामीण या कस्बाई इलाके में बच्चे और युवा आज भी पूरे मनोयोग से होलिका जलाने के लिए मुहल्लों के घरों से मांग कर लकड़ियां जमा करते हैं. यह काम कोई एक दिन नहीं, बल्कि तीन-चार दिनों तक चलता है. इससे बच्चों में अपनी परंपराओं से जुड़ने का उत्साह जगता है. साथ ही बच्चों की टोली घरों में मिट्टी भी लाकर रखने का काम करती है, उसे कूटकर और चालने के बाद पाउडर मिट्टी बनाकर रख दी जाती है. इसे होली की सुबह में बच्चे, महिलाएं, बड़े-बुजुर्ग एक-दूसरे को लगाते हैं. युवाओं के बीच तो इसी घोल में कभी डूब-डूब कर नहाने का क्रेज होता था. अभी भी मगध के इलाके में इस रिवाज को हर घर में अवश्य पूरा किया जाता है.

बिहार विरासत विकास समिति से जुड़े अनंत आशुतोष द्विवेदी कहते हैं कि हमारी लोक-संस्कृति में पुरातन समय से ही विज्ञान पर जोर होता था. मिट्टी लगाने से शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है और आज जो मड थेरेपी आप देखते हैं, उसका एक रूप तो यही है. सुबह से तीन घंटे तक मिट्टी की होली, फिर दो घंटे रंगों की और अंत में अबीर-गुलाल से उसका पटाक्षेप बताता है कि हम न केवल रंगों से, बल्कि अपनी मिट्टी से भी जुड़े रहें. होलिका दहन के लिए गीत गाकर लकड़ियां जमा करना और साथ ही मिल कर पारंपरिक गीतों पर फाग और झुमटा गाने से भी समाज द्वारा एकजुटता का संदेश दिया जाता है.

बाबा और बुद्ध के साथ भी होली

12 ज्योतिर्लिंग में एक बाबा बैद्यनाथ धाम में होली की अनूठी परंपरा है. यहां पूर्णिमा शुरू होते ही मंदिर के सरदार पंडा भोलेनाथ पर अबीर अर्पित करते हैं. इसके साथ ही देवघर में होली की शुरुआत हो जाती है. सरदार पंडा द्वारा अबीर अर्पित करने के बाद आम भक्त भी होली तक शिव जी पर अबीर चढ़ाते हैं. नालंदा के ही तेतरावां में लोग भगवान बुद्ध की मूर्ति के साथ भी होली खेलते हैं.

कहीं प्रतियोगिता, तो कहीं मेले

लोहरदगा में सेन्हा प्रखंड के बरही स्थित देवी मंडप के पास होलिका दहन किया जाता है, जहां पर एक लकड़ी का खंभा गाड़ा जाता है. होली के दिन इस लकड़ी के खूंटे को छूने के लिए लोगों में होड़ मची रहती है. पहले लोग खंभे को छूने के लिए भागते हैं, इसी बीच दर्शक में मौजूद लोग इनको पत्थरों से मारते हैं. मान्यता है कि इन पत्थरों से लोगों को चोट नहीं लगती. जो पत्थर मारने के बावजूद बिना डरे खंभे को छू लेता है, उसे सुख, शांति और सौभाग्य की प्राप्ति होती है. होली के पहले एक-एक दिन या होली के दिन झारखंड के विभिन्न इलाकों में लगने वाले फगडोल मेला की बात ही निराली है. रांची में टाटीसिलवे और चुटिया का फगडोल देखने लायक होता है. गुमला, पालकोट में होली से ही सरहुल की शुरुआत होती थी.

परंपराओं और स्वाद के बिखरे रंग

होली को और भी जायकेदार हमारे खानपान ही बनाते हैं. इसमें पुआ या मालपुआ हमारा सबसे पुराना पकवान है. वैदिक साहित्य में इसे अपूप बताया गया है तो पाली साहित्य में भी इसे विशिष्ट श्रेणी में रखा गया है. होली में यह व्यंजन तो निश्चित रूप से हमारी थाली में होता है. इसी मौसम में मिलनेवाला बुट झंगरी का हरा चना अपने विविध रूपों में थाली में स्थान बनाता है. कहीं भभरे यानी हरे चने के साथ बेसन लपेटकर तवा पर बननेवाले पकौड़े के आंचलिक रूप में, तो कहीं बजका के रूप में. बिहार-झारखंड में अमूमन जहां हर जगह लोग होलिकादहन में हरे चने सेंक कर खाते हैं, तो गया के मारवाड़ी समाज में होलिका दहन की आग पर पापड़ सेंककर खाने और गर्म पानी पीने का रिवाज है. पश्चिम चम्पारण जिले के चौतरवा थाना क्षेत्र के शरणार्थी कॉलोनी में तीन दिवसीय होली में लोग मांसाहार से दूर रहते हैं. बिहारशरीफ से सटे पांच गांव ऐसे हैं, जहा रंगोत्सव के दिन किसी भी घर में चूल्हा नहीं जलता है. सभी शुद्ध शाकाहार रहते हैं. बासी भोजन करते हैं. गांवों के लोग ईश्वर की भक्ति में लीन रहते हैं. करीब 50 वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को आज भी पूरी श्रद्धा के साथ निभाया जाता है.

युवाओं की ही नहीं, बुजुर्गों की भी समर्पित होली

नवादा जिले की सीमारेखा के साथ सटे नालंदा, गया और औरंगाबाद में लोग होली के अगले दिन भी होली खेलते हैं. इसे ‘बुढ़वा’ होली कहा जाता है. बुजुर्गों के प्रति सम्मान का भी यह प्रतीक है. इसमें होली के अगले दिन मगही में होरी गाते बुजुर्गों की टोली गली-मुहल्लों से पारपंरिक वाद्ययंत्रों के साथ निकलती है. होलिका दहन पर ही बांका इलाके में धुरखेली मनायी जाती है. समस्तीपुर के पटोरी में होली की अनूठी परंपरा है. लोग होली खेलते समय छाते का प्रयोग करते हैं. रांची के चुटिया में एक दिन पहले होलिका दहन की परंपरा नागवंशी राजाओं के काल से ही प्रचलन में है. यहां पर होलिका दहन के रस्म पाहन द्वारा संपन्न कराये जाते हैं. आरती के बाद होलिका दहन की जाती है. होली पर फगुआ पुछारी का आयोजन हर गांव-टोलों में किया जाता था. फगुआ पुछारी एक तरह से गीतों के माध्यम से हार-जीत के लिए सवाल-जवाब करना होता है. इसमें सवाल भी गीत से और उसके जवाब भी गीतों से ही दिये जाते हैं.

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