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Sarhul 2023: सरहुल के दिन पाहन करते हैं भविष्यवाणी – अकाल पड़ेगा या होगी उत्तम वर्षा

Sarhul 2023|परंपरा है कि सरहुल पर्व के दौरान गांव का पुजारी, जिसे पाहन भी कहते हैं, भविष्यवाणी करते हैं कि गांव में अच्छी वर्षा होगी या फिर अकाल पड़ेगा. इसके लिए पाहन मिट्टी के तीन पात्र लेते हैं. उसमें ताजा पानी भरते हैं. अगले दिन सुबह-सुबह मिट्टी के तीनों पात्रों को बारी-बारी से देखते हैं...

Sarhul Festival 2023: आदिवासी सदियों से जंगलों में रहते आये हैं. प्रकृति की पूजा करते हैं. इनकी आजीविका कृषि पर निर्भर है. सरहुल के दिन ही आदिवासी कृषि कार्य शुरू करते हैं. खासकर गेहूं (रबी) की नयी फसल की कटाई शुरू होती है. सरहुल के पर्व के साथ प्रकृति और परंपराएं भी जुड़ी हैं. इसी दिन पता चलता है कि इस वर्ष अकाल पड़ेगा या अच्छी वर्षा होगी.

भविष्यवाणी करते हैं पाहन

परंपरा है कि सरहुल पर्व के दौरान गांव का पुजारी, जिसे पाहन भी कहते हैं, भविष्यवाणी करते हैं कि गांव में अच्छी वर्षा होगी या फिर अकाल पड़ेगा. इसके लिए पाहन मिट्टी के तीन पात्र लेते हैं. उसमें ताजा पानी भरते हैं. अगले दिन सुबह-सुबह मिट्टी के तीनों पात्रों को बारी-बारी से देखते हैं और तब भविष्यवाणी करते हैं कि इस साल गांव में अकाल पड़ेगा या अच्छी वर्षा होगी.

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इस तरह होती है भविष्यवाणी

कहते हैं कि जिस पात्र में पाहन ने एक दिन पहले पानी भरा, था अगर उसका जलस्तर कम हो जाता है, तो पाहन उस वर्ष ‘अकाल’ की भविष्यवाणी करते हैं. अगर पानी का स्तर सामान्य रहता है, तो उसे अच्छा संकेत माना जाता है. तब पाहन ‘उत्तम वर्षा’ की भविष्य‍वाणी करते हैं. सरहुल पूजा के दौरान सरना स्थल यानी पूजा स्थल को ग्रामीणों के द्वारा घेरा जाता है.

चार दिन तक चलता है सरहुल का त्योहार

बता दें कि सरहुल का पर्व चार दिनों का त्योहार है. इसकी शुरुआत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को होती है और चैत्र पूर्णिमा के दिन इसका समापन होता है.

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सरहुल के चार दिन तक क्या-क्या होता है

सरहुल के ‘पहले दिन’ मछली के अभिषेक किए हुए जल को घर में छिड़का जाता है. ‘दूसरे दिन’ उपवास रखा जाता है. हर घर की छत पर पाहन ‘साल के फूल’ का गुच्छा रखता है. तीसरे दिन पाहन उपवास रखते हैं. ‘सरना’ (पूजा स्थल) पर सरई के फूलों (सखुआ के फूल का गुच्छा अर्थात् कुंज) की पूजा की जाती है.

पूरे गांव में बंटता है सुंडी का प्रसाद

तीसरे दिन ही ‘मुर्गी की बलि’ देने की भी परंपरा है. मुर्गी के मांस और चावल को मिलाकर खिचड़ी पकायी जाती है. इसे सुंडी कहते हैं. बाद में इसे प्रसाद के रूप में पूरे गांव में बांट दिया जाता है. चौथे और आखिरी दिन ‘गिड़िवा’ नामक स्थल पर सरहुल फूल का विसर्जन कर दिया जाता है.

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