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बेमानी होतीं वैश्विक संस्थाएं

आज जब भारत जी-20 देशों की अध्यक्षता का निर्वहन कर रहा है, विश्व के समक्ष चुनौतियों के समाधान के लिए नयी सोच और नयी व्यवस्था की जरूरत को वैश्विक मंचों पर रेखांकित करना समय की जरूरत है.

हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जी-20 समूह के सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि आज दुनिया में बहुपक्षवाद संकट में है. लगभग यही बात विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी दोहरायी है. गौरतलब है कि जब से भारत ने जी-20 की अध्यक्षता संभाली है, दुनिया में वैश्विक संस्थाओं समेत कई मुद्दों पर चर्चा जोर पकड़ रही है. द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात पहले द्वि-ध्रुवीय विश्व और बाद में अमरीका की अगुआई वाले एक-ध्रुवीय विश्व में भी वैश्विक संस्थानों की महती भूमिका मानी जाती रही है. संयुक्त राष्ट्र और उसके अंतर्गत आने वाली संस्थाएं दुनिया के संचालन की धुरी बनी रहीं.

कहीं द्वंद्व या संघर्ष हो या प्राकृतिक या मानव जनित आपदा हो, तमाम मुल्क संयुक्त राष्ट्र की ओर ही देखते रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ही नहीं, यूनेस्को, संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम आदि की विशेष भूमिका रही है. वर्ष 1995 से पहले ‘गैट’ और उसके बाद विश्व व्यापार संगठन वैश्विक व्यापार को संचालित करने वाले नियमों के निर्धारक के रूप में जाने जाते रहे हैं.

लेकिन आज इन संस्थाओं और उनकी कार्य पद्धति तथा वैश्विक नेतृत्व की उनकी क्षमता पर ही नहीं, उनकी नीयत पर भी सवाल उठ रहे हैं. महामारी, वैश्विक संघर्ष, जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग ही नहीं, दुनिया में बढ़ती खाद्य असुरक्षा और कई मुल्कों पर बढ़ते असहनीय कर्ज के कारण इन संस्थाओं के माध्यम से वैश्विक शासन पर प्रश्न खड़े हो रहे हैं. यही स्थिति संप्रभुता संकट, असंतुलन, संघर्ष और द्वंद्व, स्वतंत्र राष्ट्रों के अस्तित्व के लिए खतरा बन रही है. जैसे समाधान इन संस्थानों से अपेक्षित है, वे उसमें असफल दिख रहे हैं.

महामारी के शुरू से लेकर उसके निवारण के संबंध में विश्व स्वास्थ्य संगठन केवल नकारा ही साबित नहीं हुआ, बल्कि उसके प्रमुख द्वारा चीन की तरफदारी करने के कारण बदनाम भी हुआ है. संयुक्त राष्ट्र के अन्य संगठन भी सम्मेलन और बैठक करने वाले संगठन बन कर रह गये हैं. विभिन्न मुल्कों का भी अब उन पर कोई विशेष विश्वास नहीं रह गया है. विश्व स्वास्थ्य संगठन महामारी के समय इसके प्रारंभ के बारे में भी निष्पक्ष राय नहीं दे सका. टीकाकरण के मामले में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लाभ कमाने के लालच पर भी वह अंकुश नहीं लगा पाया.

जब यह अपेक्षा थी कि महामारी के दौरान आवश्यक दवाओं, टीकों और उपकरणों पर पेटेंट स्थगित किये जायेंगे तथा सभी प्रकार के इलाज और टीके रॉयल्टी मुक्त उपलब्ध होंगे, पर व्यापार संगठन की ‘व्यापार संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकार’ (ट्रिप्स) काउंसिल में पहले तो कोई निर्णय ही नहीं हो पाया और बाद में भी केवल टीकों के संबंध में ही शर्तों के साथ हुए निर्णय ने संगठन की असंवेदनशीलता तथा बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों और विकसित देशों की मानवता के प्रति उदासीनता को उजागर कर दिया.

संयुक्त राष्ट्र द्वारा हर वर्ष जलवायु सम्मेलन आयोजित किया जाता है. ग्लोबल वार्मिंग के संदर्भ में एक लक्ष्य रखा गया है कि 2050 तक दुनिया का औसत तापमान इस शताब्दी के प्रारंभ के औसत तापमान से दो डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न बढ़े. जापान के क्योटो में हुए जलवायु सम्मेलन में यह सहमति बनी थी कि 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के अधिक उत्सर्जन करने वाले देशों को उत्सर्जन को घटाना पड़ेगा, कुछ अन्य को अपने उत्सर्जन को समान रखने और शेष को अपने विकास के मद्देनजर उत्सर्जन को बढ़ाने की भी अनुमति थी. इस सहमति को ‘क्योटो प्रोटोकोल’ के नाम से जाना जाता है. इस संधि का तो पालन हुआ, लेकिन क्योटो के बाद भी कई सम्मेलन हुए और सम्मेलनों की यह प्रक्रिया जारी है. इस शृंखला में एक सम्मेलन नवंबर, 2022 में ही संपन्न हुआ है. कुछ वर्ष पूर्व इस सम्मेलन में एक सहमति बनी थी कि दुनिया के धनी देश विकासशील देशों को 100 अरब डॉलर हर वर्ष उपलब्ध करायेंगे, ताकि वे उत्सर्जन घटाने के लिए अपने देशों में क्षमता निर्माण कर सकें.

लेकिन दुर्भाग्य का विषय यह है कि जहां वैश्विक तापन यानी ग्लोबल वार्मिंग पर काबू पाने के लिए प्रौद्योगिकी और निवेश की भारी जरूरत है, लेकिन इस हेतु विकसित देश अपने दायित्व का निर्वहन करने में अभी तक असफल रहे हैं. विकसित देश अपनी तकनीक भी देने के लिए तैयार नहीं हैं. संयुक्त राष्ट्र, उसके सम्मेलन और संस्थान इस संबंध में अप्रभावी दिखते हैं. विश्व में एक समय अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाने वाली इन वैश्विक संस्थाओं पर लंबे समय से प्रश्नचिह्न लगते रहे हैं. लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि जब लगभग 75 साल से अधिक पुरानी वैश्विक संस्थाओं का आकर्षण ही नहीं, बल्कि प्रभाव भी धूमिल होने लगा है, बदले हुए हालात में नयी वैश्विक शासन व्यवस्था के बारे में चर्चा के लिए माहौल बनने लगा है. आज जब भारत जी-20 देशों की अध्यक्षता का निर्वहन कर रहा है, विश्व के समक्ष चुनौतियों के समाधान के लिए नयी सोच और नयी व्यवस्था की जरूरत को वैश्विक मंचों पर रेखांकित करना समय की जरूरत है.

वर्तमान वैश्विक संस्थाओं के संविधानों में चाहे विश्व बंधुत्व, शांति, विकास, परस्पर सहयोग जैसी बातों का जिक्र है, लेकिन वास्तविकता यह है कि बड़े देश ही उन सिद्धांतों का पालन नहीं कर रहे.गौरतलब है कि जी-20 समूह, जो दुनिया के बड़े राष्ट्रों का सबसे ताकतवर समूह है, जहां से विश्व की 85 प्रतिशत जीडीपी आती है, जहां विश्व की दो-तिहाई जनसंख्या बसती है और दुनिया के कुल व्यापार का 75 प्रतिशत हिस्सा इन मुल्कों से आता है. ऐसे में भारत ने जी-20 देशों की अध्यक्षता के वर्ष में एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य के विषय का चयन किया है.

यदि हम विश्व को एक नयी वैश्विक व्यवस्था की तरफ प्रेरित करने में सफल होते हैं, तो विश्व में वित्तीय अस्थिरता, आतंकवाद, संघर्ष, खाद्य एवं ऊर्जा असुरक्षा जैसी समस्याओं के समाधान हेतु वैश्विक मतैक्य बन सकता है. देखना होगा कि आने वाले महीनों में जी-20 देशों के समूह की विविध स्तरीय बैठकों और सम्मेलनों में हम इस दिशा में कितना आगे बढ़ते हैं. समझना होगा कि, जैसा प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है, वैश्विक वित्तीय संकट, जलवायु परिवर्तन, महामारी, आतंकवाद और युद्ध की स्थिति से निपटने के लिए वर्तमान वैश्विक शासन और संस्थाएं विफल हो चुकी हैं. प्रश्न यह है कि विश्व में ईमानदारी से शांति की बहाली और मानवता पर आसन्न संकटों से निपटने और दुनिया में खुशहाली लाने में जी-20 देशों द्वारा कितने सार्थक प्रयास होते हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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