बरेली : इस्लाम में मुसलमानों पर जकात फर्ज है, लेकिन साहिब-ए- निसाब (मालदार) हो. इसमें आदमी के साथ औरत और बालिग बच्चा भी है. मगर उसके पास साढ़े सात तोला सोना यानी 75 ग्राम सोना या 52 तोला चांदी होनी चाहिए. इसके साथ ही हलाल (जायज) कमाई में से वार्षिक बचत 75 ग्राम सोने की कीमत के बराबर हो. ऐसे मुसलमानों को अपनी कुल बचत का 2.5 फीसदी जकात के तौर पर देना होता है. एक वर्ष में किसी मुसलमान को एक लाख रुपये की बचत हो, तो उस शख्स को एक लाख का 2.5% यानी 2500 रुपये जकात के तौर पर गरीबों में देना (दान) करना होगा. रमज़ान में रोजा, नमाज और कुरान की तिलावत (कुरान पढ़ने) के साथ जकात और फितरा देने की खास अहमियत है. हालांकि जकात फर्ज है, जो इस्लाम के 5 स्तंभों में से एक है. रोजदार के रोजे और इबादत फितरा देने के बाद ही कुबूल होती है.
इस्लाम में जकात गरीब, मिस्कीन और मुसाफिर को जकात दी जा सकती है. अगर कोई फकीर या मिस्कीन नहीं मिले तो मदरसे में भी जकात की राशि दी जाती है. इसके साथ ही घर की नौकरानी और नौकर को भी जकात दे सकते हैं. मगर सबसे पहले अपनों में से जकात के लिए तलाशना चाहिए. यह एक वर्ष में कभी भी दे सकते हैं. मगर रोजे में जकात देने का 70 गुना सबाब है.
उलमा का कहना है कि गरीब मुसलमान भी रमजान और ईद का त्यौहार खुशी के साथ मना सकें, इसलिए मालदार मुसलमानों को गरीबों का ख्याल रखना चाहिए. गरीबों की आर्थिक मदद के साथ ही कपड़े और खाने पीने की चीजें भी दें.
अल्लाह ने कुरान रमजान के महीने में नाजिल (उतारा) फरमाया है. रमजान में कुरान की तिलाबत करनी चाहिए. इसका काफी सबाब है. मगर कुरान मर्दों (पुरुष) को तेज आवाज में और महिलाओं को धीमी आवाज में पढ़ना चाहिए.
रिपोर्ट- मुहम्मद साजिद, बरेली
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