वीरता और भारत भक्ति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मूल पहचान हैं. जहां कहीं भी हिंदुओं पर संकट आता है, लोग संघ की ओर आशा व भरोसे के साथ देखते हैं. बीते वर्षों में संघ ने अपनी संकल्प शक्ति और संगठन बल पर सिद्ध किया है कि उसमें राष्ट्र रक्षा और अपने संकल्प पूरा करने की क्षमता है. जिस राम जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण के लिए सेक्युलर नेता और पत्रकार मजाक उड़ाते थे, वहीं अब भव्य श्री राम मंदिर बन रहा है. यह डॉ हेडगेवार द्वारा स्थापित उस संघ शक्ति का चमत्कार है, जो 2025 में अपनी स्थापना की शताब्दी मनाने जा रहा है.
मात्र सौ वर्ष की अवधि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत में वह शक्ति अर्जित की है, जिसके कारण विश्व भारत का मुख्य शक्ति केंद्र संघ को मानने लगा है, जो आज वस्तुतः राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक एजेंडा तय करने में समर्थ है, नीतियों को प्रभावित कर सकता है, विश्व के प्रमुख बौद्धिकों के साथ विमर्श का ताना-बाना बन सकता है, लेकिन धर्म पर आने वाले संकटों और हिंदू धर्म के भीतर व्याप्त कुरीतियों, विभ्रम एवं नाना मतों-पंथों के साथ किस कसौटी पर समन्वय स्थापित हो सकता है, कैसे अस्पृश्यता जैसी विकृतियों से छुटकारा पाया जा सकता है, इनके बारे में संघ का क्या नीतिगत दृष्टिकोण है?
संघ का मूल चिंतन ही अस्पृश्यता समाप्ति के लिए प्रेरित करता है. संघ के वर्तमान विराट स्वरूप के शिल्पकार माधव सदाशिव राव गोलवलकर ने 1966 में उडुपि (कर्नाटक) के भारतीय धर्म संसद में यह प्रस्ताव पारित करवाने में सफलता पायी थी कि अस्पृश्यता हिंदू धर्म का अंग नहीं है, यह अस्वीकार्य है और धर्म विरोधी है. वर्ष 1974 में तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने कहा था कि सिर्फ इसलिए कि कोई रीति या व्यवहार बहुत पहले से चला आ रहा है, काल सम्मत नहीं कहा जा सकता. यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है, तो कुछ भी पाप नहीं है. जाति व्यवस्था काल बाह्य हो चुकी है, धीरे-धीरे समाप्त हो रही है. इसे समाप्त हो जाना ही होगा.
धर्म रक्षा के लिए पुरुषार्थ करना, आक्रमणकारियों को उचित प्रत्युत्तर देना और काल बाह्य रूढ़ियों को समाप्त करते हुए वास्तविक धर्म सम्मत कसौटियों पर अपना युगानुरूप व्यवहार तय करना ही हिन्दू धर्म रक्षा का मार्ग है. वर्तमान सरसंघचालक डॉ मोहन राव भागवत ने हिंदू धर्म रक्षा के लिए अपना व्यवहार तय करने वाले तीन सूत्र भी दिये और साहसपूर्वक विवेकानंद के वीरोचित भाव से घोषित किया कि हिंदुओं के मध्य पानी, मंदिर और श्मशान साझे हैं, साझे होने चाहिए. इनमें किसी प्रकार का जातिगत भेदभाव अमान्य और धर्म विरुद्ध है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार ने अपने जीवन में कभी भी जाति भेद का व्यवहार नहीं किया. वर्धा में जब गांधी जी संघ की शाखा में आये, तो उन्होंने पूछा- इनमें कितने हरिजन और कितने सवर्ण हैं? डॉ जी ने मंदस्मित से उत्तर दिया था- सब केवल हिंदू हैं, हम जाति भेद नहीं मानते. गांधी जी भी आश्चर्यचकित रह गये थे. आज संघ वैसे कार्य सफलतापूर्वक कर रहा है, जहां गांधी असफल हुए थे. समरसता के क्षेत्र में संघ के मौन तपस्वी देश के प्रत्येक भाग में जाति भेद से ऊपर उठ कर एक सामाजिक क्रांति रहे हैं, लेकिन इस विषय में साधु-संत और राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू संगठन क्या काम कर रहे हैं? अधिकतर तो राजनीतिक नेताओं के पीछे दौड़ते और सुविधाओं को हासिल करते दिखते हैं. संघ के क्रांतिकारी आह्वान को जिन्होंने जिया है, वे श्री रामकृष्ण मठ, गायत्री परिवार, स्वामीनारायण संप्रदाय जैसे संगठन हैं, जिनको अपने हिंदू स्वरूप से भय नहीं, संकोच नहीं और किसी के प्रति आश्रय अथवा किसी की दान क्षमता पर निर्भरता नहीं.
उत्तराखंड के अधिकतर लोग, जो चतुर सुजान हैं, कषाय वस्त्र धारण करके भी वित्त और सुविधाओं की दौड़ में शामिल हैं. वे यह परवाह नहीं करते कि उत्तर पूर्वांचल में धर्मांतरण तीव्रता से चल रहा है. वे इस बात की चिंता नहीं करते कि दलित क्षेत्रों में सवर्णों के अत्याचार की घटनाएं लगातार आ रही हैं. वे शासन द्वारा स्थापित तंत्र पर भी गौर नहीं करते. अनुसूचित जातियों पर अत्याचार के समाचार हर दिन आ रहे हैं, उनको पंजाब में हो रहे धर्मांतरण पर भी कोई चिंता नहीं, लेकिन वे स्वयं को हिंदू धर्म के प्रचारक व व्याख्याता अवश्य कहते हैं. इन्हीं हिंदू पाखंडियों ने तीव्र आघात किये थे.
आज देश के अधिकतर हिंदू मंदिर सरकारी शिकंजे में हैं. उनमें कम्युनिस्ट तथा कांग्रेसी सरकारें अहिंदू व्यक्तियों को नियंत्रण की स्थितियों में नियुक्त करते हैं. उनके सामने हिंदू समाज में समरसता का विषय कैसे महत्वपूर्ण हो सकता है? आवश्यकता है कि हिंदू समाज सबसे बड़े सामाजिक प्रश्न के हल हेतु कटिबद्ध हो एवं मोहन भागवत के सामाजिक समरसता एवं हिंदू एकता के धर्म सूत्र पर क्रियान्वयन करे. यह युग संधि की वेला है. इसमें सेनापति की दृष्टि के अनुरूप ही चलना होगा. आज हिंदू समाज के सेनापति राजनेता नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख हैं.
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)