आरती श्रीवास्तव
चिपको आंदोलन अपने पचास वर्ष पूरे कर रहा है और आज भी दुनिया को दिशा दे रहा है. बीते दिनों झारखंड के धनबाद में लोगों ने पेड़ से चिपक कर सैकड़ों पेड़ों को कटने से बचाया. चिपको आंदोलन के योद्धा के तौर पर पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट दुनियाभर में लोकप्रिय हैं, लेकिन 26 मार्च, 1974 को रेणी गांव के जंगल बचाने की मुहिम में महिला मंगल दल की अध्यक्ष गौरा देवी के साथ इक्कीस महिलाओं और सात बच्चियों ने अहम भूमिका निभायी थी. इस प्रतिरोध के परिणामस्वरूप ही देश में 1980 में वन संरक्षण अधिनियम बना. आज जब विश्व पर्यावरण की तमाम चुनौतियों से घिरा हुआ है, इस आंदोलन को नये सिरे से याद करने की दरकार है.
चिपको आंदोलन पेड़ों की रक्षा के लिए किया गया एक महत्वपूर्ण आंदोलन था. ग्रामीणों ने पेड़ को बचाने के लिए अहिंसक विरोध प्रदर्शन किया था. उन्होंने पेड़ों को कटने से बचाने के लिए उससे चिपक कर उसे गले लगा लिया था. उनके लिए अपने प्राणों से मूल्यवान वे पेड़ थे, जो पर्यावरण संतुलन के लिए आवश्यक हैं. आंदोलन का मुख्य उद्देश्य व्यवसाय के लिए हो रही वनों की कटाई को रोकना था. जिसका केंद्र उत्तराखंड के चमोली जिले का रेणी गांव था.
वर्ष 1974 के शुरुआत की बात है. वन विभाग द्वारा जोशीमठ ब्लॉक के रेणी गांव के पास स्थित पेंग मुरेंडा वन के 2451 अंगू (ऐश) के पेड़ों को इलाहाबाद स्थित स्पोर्ट्स गुड्स कंपनी, साइमंड्स को ठेके पर दिये जाने का ग्रामीण द्वारा जमकर विरोध किया गया. किंतु ग्रामीणों के विरोध के बावजूद वन विभाग के कर्मचारी व ठेकेदार इन पेड़ों को काटने की जुगत में थे. वर्ष 1974 के 26 मार्च को जब रेणी गांव के सारे पुरुष भूमि के मुआवजे के लिए चमोली गये हुए थे, तब मौके का फायदा उठा वन विभाग के कर्मचारी व ठेकेदार मजदूरों के साथ पेड़ों की कटाई के लिए गांव में आ धमके.
उस समय गांव में केवल महिलाएं और बच्चे थे. पर गांव के महिला मंगल दल की प्रधान गौरा देवी को जैसे ही इस बात की खबर लगी वे 20 से अधिक महिलाओं व बच्चियों को साथ ले वन की ओर प्रस्थान कर गयीं और पेड़ों की कटाई का विरोध किया. उन्होंने वन विभाग के कर्मचारियों और ठेकेदार को वापस जाने की सलाह दी. पर जब उन्होंने गौरा देवी की बात नहीं मानी और पेड़ काटने की जिद पर अड़े रहे, तब गौरा देवी व उनके साथ आयी महिलाएं व बच्चियां पेड़ों से चिपक गयीं और कहा कि ‘पहले हमें काटो, फिर पेड़ों को काट लेना.’ महिलाओं की दृढ़ता देख ठेकेदार को वापस जाना पड़ा. यह चिपको आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने दुनियाभर के पर्यावरण कार्यकर्ताओं को पर्यावरण बचाने के लिए प्रेरित किया.
चिपको आंदोलन की नींव 1970 के दशक में उस समय पड़ी जब चमोली जिला के मंडल गांव के पास के जंगल में लकड़हारे पेड़ों को काटने के लिए पहुंचे थे. तब पेड़ों को कटने से बचाने के लिए एक स्थानीय कार्यकर्ता, चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में ग्रामीणों ने पेड़ों को गले से लगा लिया और वहां से हटने से मना कर दिया. इस घटना ने चिपको आंदोलन को जन्म दिया. चिपको आंदोलन की पहली लड़ाई 1973 के आरंभ में चमोली जिले के गोपेश्वर में हुई थी. इस वर्ष मार्च में चंडी प्रसाद भट्ट और दशोली ग्राम स्वराज्य मंडल के नेतृत्व में ग्रामीणों ने साइमंड्स कंपनी के ठेकेदारों को अंगू के 14 पेड़ों को काटने से रोका.
इसके बाद इसी वर्ष दिसंबर में ग्रामीणों ने गोपेश्वर से लगभग 60 किलोमीटर दूर फाटा-रामपुर के जंगलों में साइमंड्स कंपनी के एजेंटों को एक बार फिर पेड़ काटने से रोक दिया. इसके कुछ दिनों बाद ही ग्रामीणों को खबर मिली की वन विभाग ने रेणी गांव क्षेत्र के पेंग मुरेंडा वन के ढाई हजार से अधिक अंगू के पेड़ों के ठेके साइमंड्स कंपनी को दे दिया है. खबर मिलते ही 14 फरवरी, 1974 को चंडी प्रसाद भट्ट के नेतृत्व में एक सभा हुई और लोगों को चेताया गया कि पेड़ गिराये गये तो हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा. इसके बाद 15 मार्च को गांव वालों ने जंगल की कटाई के विरोध में जुलूस निकाला. कटाई के विरोध में 24 मार्च को विद्यार्थियों ने भी एक जुलूस निकाला. इसके बाद पेड़ों को बचाने के लिए 26 मार्च को गांव की महिलाओं ने जो किया वह इतिहास बन गया.
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रेणी की घटना के बाद जुलाई 1974 में एक और संघर्ष शुरू हुआ जो अक्तूबर में अपने चरम पर पहुंच गया. उत्तरकाशी के व्याली वन क्षेत्र के ग्रामीणों ने पेड़ों को कटने से रोका. इसी वर्ष नैनीताल, रामनगर, कोटद्वार समेत कई स्थानों पर वन नीलामी को रोका गया.
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वर्ष 1977 में तवाघाट में बड़े भूस्खलन के बाद कुमाऊं में आंदोलन तेज हुआ और छह अक्तूबर, 1977 को छात्रों ने पेड़ों की नीलामी रोक दी.
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मई 1977 में सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में टिहरी गढ़वाल में चिपको कार्यकर्ताओं ने हेनवाल घाटी में पेड़ कटाई का विरोध करने के लिए ग्रामीणों को संगठित करना शुरू कर दिया. दिसंबर 1977 में अदवाणी व सालेत के वनों की रक्षा के लिए विरोध शुरू हुआ.
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एक फरवरी,1978 को अदवाणी गांव के जंगलों को कटने से बचाने के लिए गांव की महिलाएं पेड़ों से चिपक गयीं और उन्हें कटने से रोका. इसके बाद नौ फरवरी को महिलाओं ने नरेंद्र नगर में होने वाली वन नीलामी का विरोध किया और गिरफ्तार कर ली गयीं.
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वर्ष 1978 के 25 दिसंबर को मालगाड़ी क्षेत्र में लगभग ढाई हजार पेड़ों की कटाई रोकने के लिए जन आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें हजारों महिलाओं ने भाग लिया और पेड़ों को कटने से बचा लिया. इसी जंगल में नौ जनवरी, 1978 को सुंदरलाल बहुगुणा ने 13 दिनों का उपवास रखा. परिणामस्वरूप सरकार ने तीन स्थानों पर वनों की कटाई को तत्काल रोकने का आदेश दिया.
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वर्ष 1977-78 के दौरान चमोली में एक बार फिर चिपको आंदोलन शुरू हुआ. जहां पुलना की महिलाओं ने भायंदर घाटी में जंगलों को कटने से रोका.
अप्पिको आंदोलन : चिपको के प्रभाव के कारण ही 1983 में कर्नाटक में अप्पिको आंदोलन शुरू हुआ. कन्नड भाषा में चिपको को अप्पिको कहते हैं. अगस्त 1983 में कर्नाटक के पांडुरंग हेगड़े के नेतृत्व में लोगों ने यहां पेड़ों को बचाने का आंदोलन शुरू किया और उनसे चिपक कर उनकी रक्षा की. अप्पिको का मूल उद्देश्य वृक्षारोपण को बढ़ावा देना और वनों का संरक्षण है.
वर्ष 2021 की जुलाई में छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में बायपास सड़क बनाने के लिए लगभग तीन हजार पेड़ों को बचाने के लिए ग्रीन कमांडो के सदस्य पेड़ों से चिपक गये. इसी तरह का विरोध अप्रैल, 2022 में सूरजपुर जिले के जनार्दनपुर गांव की महिलाओं ने किया था. उन्होंने हसदेव अरण्य में खनन परियोजना के लिए पेड़ों की कटाई के विरोधस्वरूप पेड़ों को गले लगा लिया.
अक्तूबर 2021 में असम के दबाका जिले में भी चिपको आंदोलन का प्रभाव दिखा. इस जिले के छह हजार साल के वृक्षों को काटने के सरकार के प्रस्ताव के विरोध में यहां के लोग पेड़ों को बाहों में भर उससे लिपट गये.
हाल ही में झारखंड के धनबाद में जंगलों को काटने के विरोध में महिलाएं आगे आयीं. यहां के बीसीसीएल के पीबी एरिया में पेड़ों से चिपक कर महिलाओं ने इसके काटने का विरोध किया. नतीजा, बीसीसीएल अधिकारियों और कर्मचारियों को बैरंग लौट जाना पड़ा.
वर्ष 1982 में बिहार के सिंहभूम जिले (अब झारखंड) में आदिवासियों ने जंगलों को बचाने का आंदोलन शुरू किया था. आंदोलन का कारण प्राकृतिक साल के जंगल को मूल्यवान सागौन के पेड़ों के जंगल में बदलने की सरकार की योजना का विरोध था. यह आंदोलन बिहार के साथ उड़ीसा में भी लंबे समय तक जारी रहा.
वर्ष 1973 में शुरू हुए चिपको आंदोलन के प्रमुख नेताओं की जब बात आती है तो चंडी प्रसाद भट्ट, सुंदर लाल बहुगुणा, शमशेर सिंह बिष्ट, गोविंद सिंह रावत, धूम सिंह नेगी, घनश्याम रातुरी, गौरा देवी, सुरक्षा देवी, सुदेशा देवी, बचनी देवी, विरुष्का देवी आदि के नाम प्रमुखता से लिये जाते हैं.
रेणी गांव की घटना के चलते राज्य सरकार (उत्तर प्रदेश) को दिल्ली के वनस्पतिशास्त्री वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता में नौ सदस्यीय समिति का गठन करने को मजबूर होना पड़ा. समिति की रिपोर्ट दो वर्ष बाद आयी, जिसमें उसने कुछ सुझाव दिये थे. उस सुझाव के तहत उत्तर प्रदेश सरकार ने रेणी में अलकनंदा के ऊपरी क्षेत्र में लगभग 1200 वर्ग किमी के क्षेत्र में व्यावसायिक वन कटाई पर 10 वर्ष के लिए रोक लगा दी. आंदोलन के कारण ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1980-81 में उत्तर प्रदेश में एक हजार मीटर से अधिक की ऊंचाई पर स्थित हिमालयी वनों में वृक्षों की कटाई पर 15 वर्षों की रोक लगा दी. उत्तर प्रदेश के अलावा, यह आंदोलन पश्चिमी घाट और विंध्य पर्वतमाला में भी जंगलों की कटाई पर रोक लगाने में सफल रहा. इस आंदोलन के कारण ही राष्ट्रीय वन नीति के लिए दबाव बना. वर्ष 1980 में भारत में वन संरक्षण अधिनियम बना. बाद के वर्षों में यह आंदोलन हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान, बिहार और मध्य भारत में विंध्य तक फैल गया.
यह चिपको आंदोलन की शुरुआत थी, जब 27 मार्च, 1973 को अंगू के पेड़ों को काटने इलाहाबाद की साइमंड्स कंपनी के मजदूर उत्तराखंड के गोपेश्वर आये, तब चंडी प्रसाद भट्ट ने कहा था, ‘उनसे कह दो कि हम उन्हें पेड़ काटने नहीं देंगे, जब उनके आरे पेड़ों पर चलेंगे, हम पेड़ों को अंगवाल्ठा डाल लेंगे, उन पर चिपक जायेंगे.’ चिपको आंदोलन के संगठन और नेतृत्व के लिए 1982 में चंडी प्रसाद भट्ट को रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से नवाजा गया. आज उम्र के 88वें पड़ाव पर भी वह पर्यावरण संरक्षण के लिए सक्रिय हैं. चंडी प्रसाद भट्ट से अरविंद दास की बातचीत के अंश…
आज समस्याएं और भी गंभीर हो रही हैं. बात केवल पेड़ तक ही सीमित नहीं है, पानी की, जमीन की समस्या भी है. अलग-अलग ढंग से संरक्षण की बात ऊपर ही ऊपर हो रही है, जमीनी स्तर पर जिस तरह काम होना चाहिए, वैसा नहीं हो रहा है.
जहां तक पेड़ों की बात है, सरकार के कानूनों के कारण और कुछ लोगों की जागृति के कारण अभी ये काफी बचे हैं. मुख्य रूप से उत्तराखंड में महिला मंगल दलों के द्वारा अपने इलाकों में पेड़ों की निगरानी का कार्यक्रम चल रहा है. चिपको आंदोलन की जो मातृ संस्था है, वह जंगलों में आग आदि में जन चेतना जागृत करने का काम कर रही है.
ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, ऐसा विषय विशेषज्ञ बताते हैं. और जैसा कि आपने सुना होगा, सात फरवरी, 2021 को रेणी में कटान टूटा एवं उसके कारण ग्लेशियर भी टूटा. और नंदा देवी के मुहाने के स्फीयर पर एक बिजली का प्रोजेक्ट बनाया था, 13 मेगावाट का, वह भी नष्ट हुआ. इतना ही नहीं, एक बड़ी परियोजना थी तपोवन में वह भी नष्ट हुई. इसमें 205 आदमी की मौत हुई और कई लोग लापता हुए. इससे पहले 2013 में केदारनाथ में त्रासदी आयी.
जोशीमठ, जो एक उभरता हुआ नगर है और शंकराचार्य का मठ है, उस पर भी प्रश्नचिह्न लग गया है. जोशीमठ में त्रासदी हो रही है, अभी तक लोगों का विस्थापन आदि नहीं हो पाया है. तो यहां सवाल यह है कि जोशीमठ को कैसे बचाया जाए? जोशीमठ के साथ हमारी सीमांत की सुरक्षा भी जुड़ी हुई है. इस प्रकार की समस्याएं व आपदाएं प्रत्यक्ष तौर पर जलवायु परिवर्तन के कारण देखने को मिल रही हैं. त्रासदियां हो रही हैं, पर आज भी कोई एक ऐसा संस्थान नहीं है जो त्रासदी के बारे में बता सके. एक बात और, केवल ग्लेशियर के पीछे जाने का सवाल नहीं है, ग्लेशियर पीछे जाने से हमारी ट्री लाइन पर क्या प्रभाव पर रहा है, हमारी खेती-बाड़ी पर, जीव-जंतुओं पर क्या असर रहा है, इस बारे में भी जानकारी नहीं हो पा रही है.
गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी पर जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव देखने को मिल रहा है. इन तीनों नदियों का वाटर बजट 63 प्रतिशत है. अकेली गंगा का बेस लाइन 26 प्रतिशत के करीब है, हिमालय से लेकर गंगासागर तक. हिमालय में गड़बड़ी होगी तो पूरे बेसिन पर किसी न किसी रूप में दुष्प्रभाव पड़ेगा और ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे. अभी तो बाढ़ आदि जैसी आपदा आयेगी, पर एक समय ऐसा आयेगा, जब हमारी गंगा नदी बरसाती नदी की तरह हो जायेगी.