परिवार दिवस के बारे में कहा जाता है कि इसे 2007 में कामगारों की सुविधा के लिए बनाया गया था कि कम से कम कर्मचारी वर्ग एक विशेष दिन अपने परिवार के साथ बिता सकें. साल में एक बार! बाकी तीन सौ पैंसठ दिन बहुत से लोगों को अपने परिवार से दूर रहना पड़ता है. कुछ दिन पहले अखबार में काम करने वाले एक लड़के ने बताया कि उसका एक दोस्त अपने बच्चे से सप्ताह में एक बार उसी दिन मिल पाता है, जब उसकी छुट्टी होती है.
जब वह काम से लौटता है, बच्चा सो चुका होता है और जब वह सोकर उठता है, तो बच्चा स्कूल जा चुका होता है. यह हमारे शहरी युवा की हालत है. वह क्या करे? अगर नौकरी नहीं बचाता है, तो वह आय कहां से आयेगी, जिससे परिवार चलता है. कागजों में परिवार दिवस मनाने की घोषणा कर भी दी जाए, तो भी हमारे परिवारों की जमीनी हालत अच्छी नहीं है. पिछले सौ सालों में जितने हमले परिवार नामक संस्था पर दुनियाभर में हुए हैं, शायद किसी और पर नहीं.
पूर्व अमेरिकी उपराष्ट्रपति अल गोर की पत्नी 1993 से परिवार की वापसी का अभियान चला रही हैं, मगर इससे कोई खास लाभ होता नहीं दिखाई देता. वैसे भी जब चारों तरफ से हमले बोलकर आप किसी संस्था को नष्ट करना चाहते हैं, तो कुछ न कुछ असर तो होता ही है. स्त्री विमर्श परिवार को अपना सबसे बड़ा शत्रु और आफत का कारण मानता है. वह परिवार को स्त्रियों के शोषण की सबसे बड़ी संस्था कहता है.
लेकिन सचमुच क्या परिवार सिर्फ शोषण का कारण है. दिलचस्प यह है कि बहुत सी स्त्रियां जो मंच पर चढ़कर परिवार को गाली देती हैं, उसे जीभर कोसती हैं, वे भी निजी तौर पर अपने-अपने परिवार के साथ, पति की कमाई सुविधाओं के साथ चैन की जिंदगी जीती हैं. सबसे चकित करने वाली बातें उन फिल्मी हीरोइनों की लगती हैं, जो खुद को बहुत सशक्त बताती हैं. यह बताते हुए वे किसी न किसी उत्पाद की ब्रांडिंग करती रहती हैं.
इनमें से अधिकतर खुद को प्रखर स्त्रीवादी कहती हैं. ये लड़कियों से कहती हैं कि उन्हें अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीना चाहिए. लेकिन खुद अपना जीवन परिवार की शर्तों पर जीती हैं. अपने परिवार और बच्चों को जीवन में सर्वोच्च प्राथमिकता देती हैं. है न दोहरी बातें! अपने लिए कुछ और दूसरों के लिए कुछ और.
वैसे भी यह सच है कि आप जितनी सनसनीखेज बातें करते हैं, उतनी ही लोकप्रियता प्राप्त करते हैं. अरसे से बहुत से विमर्शकार ऐसा कर रहे हैं. वे परिवार की आलोचना जब करते हैं, तो कभी यह नहीं बताते कि क्या परिवार जैसा दूसरा कोई सिस्टम अब तक विकसित किया जा सका है, जहां सबकी जगह हो. अब तक तो शायद नहीं. एक परिवार में जहां माता-पिता, दादा-दादी, पुत्री, पुत्र, वधू, बहन-भाई, बच्चे सब रहते थे, आज इन सबके लिए अलग-अलग विमर्श मौजूद हैं.
बूढ़ों के लिए काम करने वाली संस्थाएं कहती हैं कि इस उम्र में अकेले कैसे रहें. उन्हें परिवार चाहिए. सोचें कि लगातार दिखायी जाने वाली अकेलेपन की सुंदर तस्वीर बुढ़ापे में किसी को नहीं चाहिए. इसी तरह बच्चों के लिए काम करने वाले कहते हैं कि यदि बच्चों का सही विकास चाहिए, तो उन्हें परिवार की सुरक्षा देना आवश्यक है. जिन दिनों मामूली बातों पर परिवार टूट रहे हों, माता-पिता अलग हो रहे हों, बच्चे भी जिनके कदम न रोक पा रहे हों, ऐसे में परिवार की सुरक्षा की बातें कौन करे?
बूढ़ों और बच्चों दोनों के लिए काम करने वाली संस्थाएं कहती हैं कि इन्हें परिवार चाहिए. बिना परिवार के इनकी दुर्दशा है. स्त्री विमर्श कहता है कि उसे परिवार नहीं चाहिए. दरअसल जो युवा है, उसे किसी तरह की जिम्मेदारी नहीं चाहिए. उसे अकेलापन बहुत अच्छा लगाता है. जिसे अपनी शर्तों पर जीना कहा जाता है, वह एक तरह का यूटोपिया ही है, लेकिन इसके भ्रम में रहता है.
पर जैसे ही उम्र बढ़ती है, डर लगने लगता है कि अब आगे की जिंदगी का क्या होगा. अगर परिवार को युवावस्था में ही संवारा होता, उसका महत्व समझा होता, अकेलेपन को सेलिब्रेट न किया होता, तो बुढ़ापे में अकेलेपन से जूझने की नौबत नहीं आती. मेरे ये विचार ओल्ड एज होम में रहने वाले बहुत से लोगों की बातें सुनकर बने हैं. घर के पास के ओल्ड एज होम में मेरा अक्सर जाना होता है. वहां रहने वाले वे नहीं हैं, जिनके पास कोई आर्थिक अभाव है.
बहुत से लोग उच्च पदों से रिटायर्ड हैं. बच्चे भी बड़े-बड़े पदों पर काम करते हैं. लेकिन कई रिटायर्ड लोग बच्चों के पास नहीं रहना चाहते, तो बहुत लोगों की जिम्मेदारी बच्चे नहीं उठाना चाहते. भाग्यशाली हैं कि उस ओल्ड एज होम में रहते हैं, जहां हर तरह की सुविधा है, देखने के लिए चौबीस घंटे डाक्टर हैं, खाना पकाने वाले हैं.
लेकिन अकेलापन इन बुजुर्गों को परेशान करता है. बच्चे कई बार मिलने भी आ जाते हैं, बहुत से लोगों के बच्चे विदेश में हैं, तो आना कभी-कभार ही होता है. सारी सुविधाएं होने के बावजूद बुजुर्ग अकेलापन भुगत रहे हैं. जिन बच्चों के माता-पिता नहीं हैं, या वे अलग हो गये हैं, या बच्चे घर से भाग गये हैं, वे भी अकेलेपन की पीड़ा से मुक्त नहीं हैं. यह सोचा जाना चाहिए कि यह पीड़ा- अकेलापन की पीड़ा- कैसे दूर हो.