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पश्चिम एशिया में भारत की बड़ी भूमिका

भारत और सऊदी अरब के संबंधों में बेहतरी की प्रक्रिया किंग अब्दुल्ला के दौर में 2006 की दिल्ली घोषणा और 2009 की रियाद घोषणा से शुरू हो गयी थी, जिसे बीते वर्षों में बड़ी गति मिली है

परस्पर संबंधों को ठोस आधार देने के उद्देश्य से भारत, अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात और इजरायल द्वारा गठित समूह ‘आइ2यू2’ को पश्चिम एशिया (मध्य-पूर्व) का ‘क्वाड’ भी कहा जाता है. इसके तहत यह अवधारणा साकार करने का प्रयास हो रहा है कि भारत को पश्चिम एशिया में ऐसी शक्ति के रूप में स्थापित किया जाए, जिससे उस क्षेत्र में सुरक्षा का नया समीकरण बने तथा इंफ्रास्ट्रक्चर विकास को नयी गति मिले.

उस क्षेत्र में बड़ी संख्या में भारतीय कार्यरत हैं, तो उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना भी इस पहल का हिस्सा है. कुछ समय से यह देखा जा रहा है कि अमेरिका समेत पश्चिमी देश मध्य-पूर्व में अपनी उपस्थिति को घटा रहे हैं. उनके लिए हिंद-प्रशांत क्षेत्र अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण हो गया, जिस पर वे ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं. वे अपनी ऊर्जा का अधिकाधिक उपयोग चीन के बढ़ते वर्चस्व को रोकने के लिए करना चाहते हैं.

ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि वे पश्चिम एशिया को किसके हवाले कर दें. जब से पश्चिम के इस क्षेत्र से हटने की चर्चा चली है, तब से चीन और रूस ने यहां अपनी सक्रियता और प्रभाव बढ़ाने की कोशिशें तेज कर दी हैं. सीरिया की लड़ाई ने रूस को सामरिक दृष्टि से और चीन को आर्थिक दृष्टि से स्थापित होने का बड़ा अवसर दे दिया है.

इस पृष्ठभूमि में अमेरिका और अन्य कुछ देशों के ध्यान में यह बात आयी कि पश्चिम एशिया में भारत को बड़ी भूमिका मिलनी चाहिए. यह कहा जाता रहा था कि किसी तरह की अग्रणी भूमिका के लिए भारत स्वयं को तैयार नहीं करता था. पश्चिम एशियाई देशों से जब सहयोग और सहकार बढ़ाने के आग्रह आते थे, तो भारत में इस तरह की भूमिका को लेने में हिचकिचाहट देखी जाती थी.

लेकिन बीते आठ-दस वर्षों में भारतीय विदेश मंत्रालय और सामरिक रणनीतिकारों में यह सोच बन गयी है कि पश्चिम एशिया में सक्रियता के अलावा भारत के समक्ष अधिक विकल्प नहीं बचे हैं. अब यह समझ बन चुकी है कि पश्चिम एशिया की सुरक्षा और उसका विकास भारत के हितों से गहरे से जुड़े हुए हैं. इसका एक परिणाम ‘आई2यू2’ के रूप में हमारे सामने है. इसीलिए कई बार यह भी कहा जाता है कि यह केवल एक संगठनात्मक पहल ही नहीं, बल्कि दार्शनिक पहल भी है. इससे अंतरराष्ट्रीय राजनीति को बहुपक्षीय आयाम देने में बड़ी मदद मिलने की संभावना है और इसमें भारत की उल्लेखनीय भूमिका होगी.

क्षेत्रीय स्तर पर देखें, तो संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, ओमान, बहरीन आदि देशों के लिए यह पहल बहुत महत्वपूर्ण है. ये वे देश हैं, जहां लगभग अस्सी लाख भारतीय रह रहे हैं और विभिन्न प्रकार के पेशों से संबद्ध हैं. भारतीयों के बढ़ते महत्व को वहां के लोगों ने ठीक से समझ लिया है. पहले यह समझा जाता था कि अमीरात या सऊदी अरब जैसे बड़े देश अधिकतर मिस्र, पाकिस्तान, सूडान या सीरिया के कामगारों को प्राथमिकता देते थे, पर बीते दस-बारह वर्षों में बहुत सारे महत्वपूर्ण पदों पर भारतीयों को भी जगह मिलने लगी.

अब जब सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भारत के लिए स्वीकार्यता बढ़ी है, तब वह अब सांगठनिक और सहकार के स्तर पर भी साकार होने लगा है. भारत और सऊदी अरब के संबंधों में बेहतरी की प्रक्रिया किंग अब्दुल्ला के दौर में 2006 की दिल्ली घोषणा और 2009 की रियाद घोषणा से शुरू हो गयी थी, जिसे बीते वर्षों में बड़ी गति मिली है.

संयुक्त अरब अमीरात के साथ संबंधों में निकटता 2014 के बाद के प्रयासों का परिणाम है. इस संबंध में सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से फ्रांस महत्वपूर्ण आयाम बनकर सामने आया है. ऐसी स्थिति में पश्चिम को यह समझ में आ गया है कि पश्चिम एशिया में अमेरिका, चीन और रूस के समकक्ष अगर कोई देश महत्वपूर्ण है, तो वह भारत ही है.

पश्चिमी देशों के लिए यह समस्या है कि वे इस क्षेत्र में चीन और रूस के साथ सहयोग करते हुए आगे नहीं बढ़ना चाहते तथा उनका बढ़ता वर्चस्व पश्चिम के लिए नुकसानदेह भी है. ऐसे में अगर भारत की भूमिका बढ़ती है, तो पश्चिम के हित, जैसे- ऊर्जा सुरक्षा, क्षेत्रीय स्थिरता, आतंकवाद पर नियंत्रण आदि, भी सुरक्षित रह सकते हैं. ऐसी पहलों को हमें गठबंधन की संज्ञा देने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए, लेकिन आपसी समझदारी लगातार बेहतर हो रही है.

पिछले दिनों भारत, अमेरिका और संयुक्त अरब अमीरात के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों ने आपस में भी चर्चा की है तथा उन्होंने सऊदी अरब के होने वाले शासक प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान से भेंट भी की है. इसमें मुख्य रूप से इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने और आवागमन के लिए व्यापक नेटवर्क बनाने पर बातचीत हुई है. इसका आधार यही है कि अब भारत को पश्चिम एशिया में एक नया इंफ्रा-रियल्टी बनाना चाहिए. इसका मतलब यह है कि उस बड़े इलाके में बहुत सारी चीजों की तुरंत आपूर्ति सुनिश्चित की जाए. अभी इसके लिए मुख्य निर्भरता वायु यातायात पर है. आबादी की बसावट बिखरी हुई है, रेगिस्तान हैं, रेल यातायात बहुत ही सीमित है.

संयुक्त अरब अमीरात की मंशा यह है कि वह इस पूरे क्षेत्र के लिए पुनर्निर्यात का मुख्य केंद्र बने, यानी दुनियाभर से सामान वहां आये और फिर विभिन्न देशों में उसे भेजा जाए. अगर उसके संबंध इराक, जॉर्डन, सीरिया, तुर्की, ईरान आदि देशों से अच्छे हो जाएं, तो उसे आगे ले जाने के लिए जरूरी है कि आवागमन समेत हर तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित हो. पश्चिम एशिया को एक ऐसे सुरक्षा सहयोगी की जरूरत है, जो किसी संकट की स्थिति में वहां खड़ा हो सके.

पहले यह स्थान अमेरिका के पास था, पर उसने कुछ वर्षों से यह संकेत दे दिया कि वहां के मसलों में उसका दखल नहीं रहेगा. ऐसे में उन देशों ने चीन की ओर देखना शुरू किया. चीन ने जिबूती में सैन्य ठिकाना बनाया है और सोमालिया से भी उसकी बातचीत चल रही है. चीन ने आर्थिक सहयोग की पेशकश भी की.

पर उसके साथ, इसमें रूस को भी जोड़ लें, समस्या यह है कि उनसे सुरक्षा तो तुरंत मिल जायेगी, लेकिन इससे पश्चिम के साथ जो संबंध हैं, वे बिगड़ जायेंगे. ऐसे में पश्चिम और चीन के अलावा भारत भी सुरक्षा संबंधी मसलों में एक संभावित सहयोगी के रूप में सामने आया है और पश्चिम एशिया के देश उसकी ओर उम्मीद से देख रहे हैं. यह संतुलन उस क्षेत्र के लिए एक आदर्श स्थिति होगी.

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