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देश की पहली आदिवासी ‘हिंदी विदुषी’ सुशीला समद थीं बापू की एकमात्र जनजातीय महिला ‘सुराजी’, जानें उनके बारे में

सुशीला समद झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम के चक्रधरपुर इलाके की रहने वालीं थीं और उन्होंने बनारस के प्रयाग महिला विद्यापीठ से हिंदी की पढ़ाई की थी. वह प्रथम श्रेणी में परीक्षा में उत्तीर्ण हुईं थीं. सुशीला समद हिंदी की कवयित्री, पत्रकार, संपादक और प्रकाशक तो थीं हीं, स्वतंत्रता सेनानी भी थीं.

झारखंड की बेटियां खेल जगत में खूब नाम कमा रही हैं. तीरंदाजी से लेकर हॉकी और फुटबॉल तक में उनका मुकाबला नहीं है. शिक्षा के क्षेत्र में भी राज्य की बेटियां आगे बढ़ रही हैं. आज जब राज्य और केंद्र सरकार बेटियों को बढ़ावा दे रही है, तब बेटियों का कमाल भी सामने आ रहा है. झारखंड की धरती पर पहले भी ऐसी बेटियां पैदा हुईं, जिन्होंने कई क्षेत्रों में एक साथ काम किया. वह भी तब, जब इस क्षेत्र में कोई विशेष सुविधा नहीं थी. सुशीला समद (Sushila Samad Birth Anniversary) एक ऐसी ही बेटी थीं, जो देश की पहली आदिवासी ‘हिंदी विदुषी’ बनीं. वह देश की पहली महिला आदिवासी संपादक भी थीं. स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. बापू के नमक सत्याग्रह के दौरान वह उनकी एकमात्र आदिवासी महिला ‘सुराजी’ थीं.

सुशीला समद ने बनारस से हिंदी में विदुषी की डिग्री ली

सुशीला समद झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम के चक्रधरपुर इलाके की रहने वालीं थीं और उन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ से हिंदी की पढ़ाई की थी. वह प्रथम श्रेणी में परीक्षा में उत्तीर्ण हुईं थीं. सुशीला समद हिंदी की कवयित्री, पत्रकार, संपादक और प्रकाशक थीं. स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया था. सुशीला समद महिलाओं को संगठित करतीं थीं. मुंडा आदिवासी परिवार में 7 जून 1906 को उनका जन्म हुआ.

हिंदी विदुषी बनने वाली देश की पहली महिला आदिवासी

सुशीला के पिता का नाम मोहन राम संदिल और मां का नाम लालमणि संदिल था. वर्ष 1932 में उन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ से विनोदिनी की परीक्षा पास की. वर्ष 1934 में विदुषी ( बीए ऑनर्स) की डिग्री हासिल की. ‘हिंदी विदुषी’ बनने वाली सुशीला समद देश की पहली महिला आदिवासी थीं. इतना ही नहीं, वह बापू यानी महात्मा गांधी की एकमात्र आदिवासी महिला ‘सुराजी’ यानी स्वतंत्रता सेनानी थीं.

नमक सत्याग्रह के समय महिलाओं का किया नेतृत्व

स्वतंत्रता आंदोलन में महिलाओं का नेतृत्व करतीं थीं. 12 मार्च 1930 को जब बापू ने नमक सत्याग्रह (डांडी मार्च) की शुरुआत की, उस वक्त झारखंड क्षेत्र की आदिवासी महिलाओं का नेतृत्व सुशीला समद ही कर रहीं थीं. खरसावां में 1 जनवरी 1948 को कथित तौर पर सैकड़ों लोगों को गोलियों से भून दिया गया था. बहुत से लोगों की मौत हो गयी. कई घायल हुए. सुशीला समद उन घायलों की मदद में भी आगे रहीं थीं.

डेढ़ साल के बच्चे को छोड़ स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़ीं

कविता लिखने वाली देश की पहली आदिवासी विदुषी ने देश की आजादी में अपनी भूमिका निभाने के लिए एक मां के कर्तव्य को पीछे छोड़ दिया. अपने डेढ़ साल के बच्चे को छोड़कर वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़ीं थीं. उन्होंने सिर्फ हिंदी में ही कविताएं नहीं लिखीं. उन्होंने अपनी मातृभाषा में भी कविताएं लिखीं.

सुशीला समद के कायल थे सरस्वती पत्रिका के संपादक

उस जमाने के बड़े-बड़े पत्रकार और संपादक बी झारखंड की इस बेटी की कलम के कायल थे. 1934 में ‘सरस्वती’ पत्रिका के संपादक देवीदत्त शुक्ल ने सुशीला समद के बारे में लिखा था, ‘सरल छंदों तथा कोमल मधुर शब्दों में भावों को कविता का रूप देने में उन्होंने कमाल हासिल किया है.’

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एमएलसी के रूप में भी सुशीला समद ने किया काम

सुशीला समद ने एमएलसी के रूप में काम किया. सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया. वर्ष 1925 से 1930 तक उन्होंने साहित्यिक-सामाजिक पत्रिका ‘चांदनी’ का संपादन और प्रकाशन भी किया. वर्ष 1935 में उनकी एक कविता संग्रह प्रकाशित हुई थी – ‘प्रलाप’. इसके बाद वर्ष 1948 में ‘सपनों का संसार’ नामक कविता संग्रह प्रकाशित हुई. 10 दिसंबर 1960 को उनका निधन हो गया.

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