पिछले दिनों मीडिया में ऐसी खबर आयी कि दवाओं की पूरी स्ट्रिप या पट्टी बेचने को लेकर आयी शिकायतों को देखते हुए केंद्र सरकार इस बारे में कोई कदम उठाने पर विचार कर रही है. इनमें बताया गया कि उपभोक्ता मामलों के विभाग के पास ऐसी बहुत सारी शिकायतें मिलीं कि केमिस्ट या मेडिकल स्टोर ग्राहकों को पूरी स्ट्रिप बेचने पर जोर देते हैं, जिनमें दस या पंद्रह या कई बार बीस-बीस टैबलेट या कैप्सूल होते हैं और वे इससे कम दवाएं बेचने से इनकार कर देते हैं. ये भी कहा गया कि कई बार डॉक्टर एक-दो दिन के लिए ही दवाएं लिखते हैं, मगर ग्राहकों को पूरी स्ट्रिप खरीदनी पड़ती है. वहीं, कई बार ऐसा भी होता है कि लोगों को यदि अधिक दवा की जरूरत हो, तो भी वे पैसे की कमी की वजह से एक साथ ज्यादा सारी दवा लेने की जगह कम संख्या में दवाएं खरीदना चाहते हैं.
मेरे ख्याल से ये बहुत बड़ा मुद्दा नहीं है. इसका सकारात्मक पक्ष भी है और नकारात्मक पक्ष भी. सकारात्मक पहलू यह है कि यदि उपभोक्ताओं को पूरी स्ट्रिप खरीदने पर मजबूर नहीं किया जाता है, तो इससे उनके पैसे बचेंगे. जैसे, यदि किसी मरीज को महंगी दवा की जरूरत है, तो पूरी स्ट्रिप की जगह दो-तीन दवा खरीदने से उसे सुविधा हो सकती है, मगर ऐसा कम ही होता है, जब लोगों को केवल एक या दो ही दवा की जरूरत पड़ती है. सिरदर्द, बदन दर्द, बुखार, एसिडिटी जैसी आम तकलीफों की बात अलग है, लेकिन क्रोनिक स्थितियों में यानी ऐसी स्वास्थ्य समस्याओं में, जिनमें लंबे समय तक इलाज या दवा लेने की जरूरत होती है, उनमें एक या दो टैबलेट लेने से काम नहीं चलता. जैसे, डायबिटीज और ब्लड प्रेशर क्रोनिक बीमारियां हैं, जिनमें लंबे समय तक दवा लेती रहनी पड़ती है, मगर पूरी स्ट्रिप के बदले यदि एक या दो दवा खरीदने की सुविधा मिल भी जाती है, तो उसमें कई समस्याएं हैं.
आम उपभोक्ताओं के लिए समस्या ये होगी कि उनके लिए ये जानना मुश्किल होगा कि जो दवा वे खरीद रहे हैं, वह वास्तव में वही दवा है या नहीं. अगर एक दवा के पैक पर लिखे नाम या अन्य जानकारियों को पढ़ने की कोशिश की जाए, तो वह बहुत मुश्किल होता है. आपको अपनी आंखें फोड़नी पड़ती हैं. ऐसे में, उदाहरण के लिए, यदि आप कोई दवा खरीदते हैं और पता नहीं चल पा रहा कि वे वही है या नहीं, तो आपके सामने केमिस्ट की कही बात पर विश्वास करने के अलावा और कोई चारा नहीं रहता. फिर, यदि हर टैबलेट के पैक के ऊपर नाम या कीमत आदि लिखा भी जाता है, तो इसमें भी समस्या आ सकती है.
एक तो ये कि जगह काफी कम होने से लिखना मुश्किल हो सकता है. दूसरी समस्या ये भी हो सकती है कि इससे पैकिंग का खर्च बढ़ जायेगा और इससे वे महंगी हो जायेंगी. एक सवाल यह भी है कि क्रोसिन, पैरासिटामोल जैसी सस्ती दवाएं तो केमिस्ट शायद कम संख्या में बेचने को राजी होें, क्योंकि उनकी खपत ज्यादा होती है, मगर कोई महंगी दवा हो और उसके उतने ग्राहक नहीं हों, तो ऐसे में शायद मेडिकल स्टोर उनकी एक या दो दवा देने से हिचकिचायेंगे यानी उपभोक्ताओं को राहत देने के इरादे से दवा बिक्री को लेकर जिस बदलाव की बात चल रही है, उसके नफा-नुकसान दोनों हैं.
दरअसल, स्वास्थ्य क्षेत्र में बीच-बीच में अक्सर ऐसे कदम उठाये जाते हैं, जिनके जरिये ये दर्शाने की कोशिश की जाती है कि सरकार को आम लोगों की बहुत परवाह है. इसमें कोई समस्या नहीं है, लेकिन सरकार यदि वास्तव में आम लोगों की मदद करना चाहती है, तो उसे दवाओं की कीमतों को और कम करने के बारे में प्रयास करना चाहिए. ऐसा नहीं है कि दवाओं की कीमतों को नियंत्रित करने के लिए प्रयास नहीं किये गये हैं, लेकिन अब भी दवा के कारोबार में मुनाफे की मात्रा बहुत ज्यादा है. दवाओं की बिक्री में कई मामलों में पांच सौ से लेकर हजार प्रतिशत तक का मुनाफा होता है. कुछ दवाओं की बिक्री में तो दस हजार प्रतिशत तक का मुनाफा होता है. इसे कम किया जा सकता है. दवाओं के मूल्य के निर्धारण की जो नीति या फॉर्मूला है, उनमें सुधार किया जा सकता है.
इसके अलावा, आम लोगों की मदद के लिए ऐसी बहुत सारी फिक्स्ड डोज दवाओं पर रोक लगायी जा सकती है, जो अतार्किक हैं यानी जिनके इस्तेमाल का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है. एफडीसी दवाएं दो या तीन दवाओं का कंबिनेशन या मिश्रण होती हैं. निश्चित अनुपात में अलग दवाओं को मिला कर बनायी जाने वाली इन दवाओं को फिक्स्ड डोज कंबिनेशन या एफडीसी दवा कहा जाता है, लेकिन इन दवाओं के वैज्ञानिक आधार और उनके उपयोग को लेकर सवाल उठते रहे हैं. ऐसी 344 दवाओं पर वर्ष 2016 में प्रतिबंध लगा दिया गया था, मगर बाजार में अभी जितनी दवाएं बिक रही हैं, उनमें 50 प्रतिशत एफडीसी दवाएं हैं. ऐसे में, यदि आम उपभोक्ताओं को राहत देनी है, तो इन दवाओं के बारे में कदम उठाये जाने चाहिए, मगर अक्सर होता ये है कि मामूली महत्व के मुद्दों को लेकर कुछ किया जाता है और उसे एक जादुई हल के तौर पर पेश किया जाता है.
(बातचीत पर आधारित).