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यूरोप में विकास को लेकर नयी बहस

इसमें दो राय नहीं कि यूरोपीय नेता और सरकारी संस्थाएं विकास की दिशा बदल कर उसे पर्यावरण संतुलन और खुशहाली की ओर ले जाना चाहती हैं. परंतु भारत के साथ चल रही मुक्त व्यापार समझौते की वार्ताओं में यूरोपीय संघ की दलीलें देख नहीं लगता कि यूरोपीय सरकारें अभी बड़े परिवर्तन के लिए तैयार हैं.

अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने आर्थिक विकास से फैले प्रदूषण की आलोचना का जवाब देते हुए रियो के पृथ्वी सम्मेलन में कहा था- अमेरिका की जीवनशैली का सौदा नहीं हो सकता. जिस जीवनशैली का वे बचाव कर रहे थे वह जीवन को अधिक से अधिक सुविधा संपन्न बनाने के लिए अधिक से अधिक संसाधनों का दोहन कर अधिक से अधिक संपत्ति जुटाने में विश्वास रखती थी. पृथ्वी सम्मेलन के 30 साल बाद यूरोप के देश अपनी उसी जीवनशैली पर गंभीरता से पुनर्विचार कर रहे हैं. पिछले दिनों यूरोपीय संघ की ब्रसेल्स स्थित संसद में बियोंड ग्रोथ (विकास के पार) नाम का अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ जिसमें विकास का ऐसा मॉडल बनाने की जरूरत पर बल दिया गया जो केवल जीडीपी की वृद्धि पर आधारित न होकर लोगों की खुशहाली और आर्थिक समानता पर आधारित हो.

विकास के लिए जीडीपी की बढ़ोतरी भी जरूरी है. उसके बिना न गरीबी से छुटकारा संभव था और न ही शिक्षा, स्वास्थ्य एवं जीवन को आरामदेह बनाने वाली चीजों का विकास. अमेरिका और यूरोप ने पिछली सदी में अपनी जीडीपी बढ़ाकर और व्यापार के जरिये एशिया, अफ्रीका और लातीनी अमेरिका से अपार धन कमाया और अपने लोगों का जीवन स्तर ऊंचा किया. हाल में चीन ने पिछले चार दशकों में अपनी जीडीपी की रफ्तार के बल पर ही करीब 80 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर उठाया और देश का बुनियादी ढांचा बेहतर बनाया. पर सम्मेलन में भाग लेने वाले प्रतिनिधियों का कहना था कि केवल जीडीपी बढ़ोतरी पर आधारित विकास की नीतियों से ही जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, आर्थिक विषमता और कर्ज संकट जैसी गंभीर समस्याएं उत्पन्न हुई हैं.

कोविड महामारी, यूक्रेन पर रूसी हमले से पैदा हुए ऊर्जा और महंगाई के संकट तथा लगातार गंभीर होते जा रहे जलवायु परिवर्तन के संकट को देखते हुए यूरोप को जीडीपी की बढ़ोतरी पर आधारित आर्थिक विकास की स्थिरता की चिंता सताने लगी है. इसलिए इस वर्ष के बियोंड ग्रोथ सम्मेलन का प्रारंभ करते हुए यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेन ने स्वीकार किया कि जैव ईंधन से होने वाला विकास अब बेकार हो चला है. स्वच्छ ऊर्जा से संतुलित विकास का मार्ग अपनाने की जरूरत है. सम्मेलन का आयोजन 20 यूरोपीय सांसदों के एक गुट ने किया. इनके अलावा, पर्यावरण और विकास के क्षेत्रों में काम करने वाली गैर सरकारी संस्थाएं, अर्थ और वित्त जगत की संस्थाएं और क्लब ऑफ रोम जैसी बुद्धिजीवी संस्थाएं तथा विश्वविद्यालयों व शोध संस्थानों से जुड़े वैज्ञानिक और बुद्धिजीवी भी जुटे.

भारत से नवदान्या और बीज विद्यापीठ की संस्थापिका डॉ वंदना शिवा को भी बुलाया गया था. बियोंड ग्रोथ की हिमायत करने वाले अर्थशास्त्रियों का कहना है कि प्राकृतिक संसाधनों के सीमित होने की वजह से जीडीपी को बढ़ाने की भी एक सीमा है. उसमें असीमित बढ़ोतरी नहीं की जा सकती. दूसरे, जीडीपी आधारित विकास, संसाधनों और पूंजी को कुछ हाथों में केंद्रित करता है जिससे आर्थिक विषमता बढ़ती है. मिसाल के तौर पर, अमेरिका की 70 प्रतिशत संपत्ति केवल 10 प्रतिशत अमीरों के पास है. भारत का हाल तो अमेरिका से भी बुरा है. भारत की 77 प्रतिशत संपत्ति केवल 10 प्रतिशत अमीरों के पास है. दुनिया की लगभग एक चौथाई अर्थव्यवस्था वाला देश होने के बावजूद अमेरिका पर 2500 लाख करोड़ रुपये का कर्ज चढ़ चुका है और आने वाले दशकों में उसे अपने लोगों को 16000 लाख करोड़ रुपये की पेंशन और सामाजिक सुरक्षा सेवाएं देनी होंगी. कर्ज, पेंशन और सामाजिक सुरक्षा का लगभग इतना ही बोझ यूरोप के देशों और जापान पर भी है.

जीडीपी आधारित विकास से प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन जैसी प्राकृतिक समस्याएं भी गंभीर होती जा रही हैं. मसलन दुनिया की आधी ऊर्जा दुनिया के एक अरब अमीर लोग खर्च करते हैं. शेष सात अरब लोग बाकी बची आधी ऊर्जा में काम चलाते हैं. इसीलिए वायुमंडल में छोड़ी गयी 80 प्रतिशत गैसों के लिए उत्तरी गोलार्ध के अमीर देश जिम्मेदार हैं. परंतु, इन गैसों से बदलते जलवायु की असली मार दक्षिणी गोलार्ध के उन गरीब देशों को झेलनी पड़ रही है जिनकी अब तक हुए जलवायु परिवर्तन में ना के बराबर भूमिका है. इसलिए यूरोप की आर्थिक नीतियों को जीडीपी बढ़ाने के बजाय लोगों की खुशहाली की दिशा में मोड़ने की जरूरत है. वह तभी होगा जब यूरोप के लोग जैव ईंधन छोड़कर स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा का प्रयोग करेंगे. आर्थिक विषमता की खाई को पाटने की कोशिश करेंगे, उपभोग और अपव्यय पर अंकुश लगायेंगे और उत्पादन की मात्रा के बजाय गुणवत्ता पर जोर देंगे.

मुश्किल यह है कि ये बातें जितनी तर्कसंगत लगती हैं, अमल करने में उतनी ही कठिन हैं. सरकारें जीडीपी की भावी विकास की दर को आधार बना कर कर्ज लेती आ रही हैं. यूरोपीय संघ की सरकारों ने जीडीपी के 91 प्रतिशत से अधिक का कर्ज ले रखा है. इटली, स्पेन और फ्रांस का कर्ज तो जीडीपी से सवा गुणा हो चुका है. ऐसे में यदि सरकारें जीडीपी बढ़ाने की जगह स्वच्छ ऊर्जा अपनाने और उत्पादन बढ़ाने की जगह उपभोग पर अंकुश लगाने वाली नीतियां लागू करेंगी तो कर्ज कैसे चुकायेंगी? फ्रांस और स्वीडन जैसे देश रक्षा सामान बेच कर काफी पैसा कमाते हैं जो बियोंड ग्रोथ के किसी मानदंड पर सही नहीं बैठता. इसी तरह जर्मनी, इटली और चेक गणराज्य पेट्रोल और डीजल से चलने वाली कारें बेचते हैं. सम्मेलन में जैव ईंधन से चलने वाली मशीनों पर कार्बन टैक्स लगाने और उनका व्यापार रोकने की बातें हुईं.

लेकिन, क्या जर्मनी, इटली और चेक गणराज्य को अपनी कारों का कारोबार रोकने का जोखिम ले पायेंगेे? इसमें दो राय नहीं कि यूरोपीय नेता और सरकारी संस्थाएं विकास की दिशा बदल कर उसे पर्यावरण संतुलन और खुशहाली की ओर ले जाना चाहती हैं. परंतु भारत के साथ चल रही मुक्त व्यापार समझौते की वार्ताओं में यूरोपीय संघ की दलीलें देख नहीं लगता कि यूरोपीय सरकारें अभी बड़े परिवर्तन के लिए तैयार हैं. वे बियोंड ग्रोथ जैसे सम्मेलनों से निकली शर्तों को व्यापार वार्ताओं में हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं. वे अपने यहां तो आर्थिक विषमता को लेकर चिंतित हैं और उसे दूर करने के उपायों पर विचार कर रही हैं, लेकिन अपनी अब तक की व्यापार नीतियों से उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध के देशों के बीच पैदा हुई आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए कुछ नहीं करना चाहतीं. वे बियोंड ग्रोथ के सिद्धांतों का प्रयोग अपनी आर्थिक उन्नति को बांटने के बजाय उसकी किलेबंदी में करना चाहती हैं.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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